नाना प्रकार की वादाखिलाफियों के आरोप झेलती आ रही नरेन्द्र मोदी सरकार जिस तरह अचानक संविधान की धारा 370 से जुड़ा अपना वादा निभाने की दिशा में बढ़ गई है, उसका दूसरा सिरा उसके अयोध्या में ‘हर हाल में’ और ‘वहीं’ भव्य राम मन्दिर निर्माण के वादे तक भी जाता है. इस कारण और भी कि अब पूरी तरह ‘सिद्ध’ हो गया है कि 1998 में भाजपा ने अपने उन दिनों के महानायक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केन्द्र में दूसरी बार सरकार बनाने के सिलसिले में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक दलों के दबाव में जिन तीन विवादास्पद मुद्दों को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया था, अब वे कतई वर्जित नहीं रह गये हैं.
प्रसंगवश, उन तीन मुद्दों में धारा 370 के साथ समान नागरिक संहिता और अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण का मामला भी शामिल था. अब इनमें धारा 370 को लेकर ‘जरूरी कार्रवाई’ की जा चुकी है, जबकि अयोध्या मामले में मध्यस्थता की आखिरी कवायद भी विफल हो जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय 6 अगस्त से रोजमर्रा हफ्ते में तीन दिन-मंगलवार बुधवार और गुरुवार को फैसलाकुन सुनवाई करने जा रहा है.
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उसका फैसला राम मन्दिर के पक्ष में हुआ तो यकीनन, मोदी सरकार के दोनों हाथों में लड्डू हो जायेंगे. उसका वादा भी निभ जायेगा और कानून, संविधान व न्यायालय सबकी लाज भी रह जायेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसका एक संकेत गत 1 जनवरी को एएनआई को दिये विशेष साक्षात्कार में दे चुके हैं. तत्काल तीन तलाक मामले की नजीर से जोड़ते हुए यह कहकर कि कानूनी प्रक्रिया पूरी हो जाने यानी अंतिम अदालती फैसला आ जाने के बाद वे इस सम्बन्ध में कानून या अध्यादेश पर, जो भी उस वक्त जरूरी या ‘संविधान के दायरे में सम्भव’ हुआ, विचार करके अपनी ‘जिम्मेदारी’ निभायेंगे.
गौरतलब है कि उन्होंने यह बात कही तो देश के इतिहास में पहली बार हुआ कि किसी प्रधानमंत्री ने किसी अदालती विवाद में खुद को उसके एक पक्ष का पैरोकार बना लिया बाकायदा साक्षात्कार देकर. और इतना सौजन्य बरतने की जरूरत भी नहीं समझी कि मामला अदालत में विचाराधीन होने के आधार पर उस पर टिप्पणी करने से मना कर दे.
प्रधानमंत्री के उक्त साक्षात्कार के बाद कई हलकों में सवाल उठाया गया था कि क्या वे देश के सबसे संवेदनशील विवाद में कानूनी नुक्त-ए-नजर से सुनाये गये देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले को निरर्थक भी कर सकते हैं? सवाल पूछने वालों ने कहा था कि ऐसा है तो यह देश में कानून के राज के फिक्रमंदों के लिए नये सिरे से सचेत होने की घड़ी है.
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उन्होंने यह सवाल भी किया था कि सत्ता या संख्या बल की शक्ति से विपरीत अदालती फैसले को पलटकर अनुकूल बनाने के अलावा यह ‘जिम्मेदारी’ प्रधानमंत्री और कैसे निभा सकते हैं? कई जानकारों ने यह भी याद दिलाया था कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1995 में 12 सितम्बर को एक मामले में दी गई इस व्यवस्था ने प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के हाथ बांध रखे हैं कि उसके द्वारा पारित किसी भी ऐसे आदेश को, जो सम्बन्धित पक्षकारों पर बाध्यकारी हो, कानून बनाकर निष्प्रभावी नहीं किया जा सकता.
यहां याद रखना चाहिए कि उन दिनों प्रधानमंत्री राम मन्दिर निर्माण के लिए ‘अनंतकाल तक इंतजार न करने’ की धमकी दे रही अपनी ही जमातों के गहरे दबाव में थे, जो राम मन्दिर निर्माण न हो पाने को देश की सबसे बड़ी समस्या बताने व बनाने में लगी थीं. इसलिए कई लोगों ने उनके कथन को इन जमातों को यह समझाने के उपक्रम के रूप में भी देखा था कि एक बार और प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलने पर वे उनकी राम मन्दिर निर्माण की साध पूरी करने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखेंगे.
उनके अनुसार प्रधानमंत्री का इन जमातों को यह समझाना इसलिए भी जरूरी था कि उनका ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ जैसी दर्पोक्तियों से जुड़ा विकास का महानायकत्व समाप्तप्राय हो चला था. इसी के चलते वे इस मुद्दे पर अपनी लम्बी चुप्पी तोड़ने पर विवश हुए थे, वरना 2014 में तो जिस फैजाबाद लोकसभा क्षेत्र में अयोध्या अवस्थित है, उसके भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह की प्रचार रैली को सम्बोधित करते हुए भी उन्होंने राम मन्दिर का नाम नहीं लिया था.
अलबत्ता, 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उनके लब पर इस विवाद का नाम आया तो वे कहने लगे कि ‘कांग्रेस के वकील’ सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई टालने की दलीलें न देते तो यह लटकता नहीं और कौन जाने अब तक मनचाहा फैसला आ गया होता.
अब जब मंगलवार से सर्वोच्च न्यायालय इस विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंड पीठ द्वारा 2010 में दिये गये फैसले जिसमें विवादित भूमि को तीन बराबर भागों में बांटने का आदेश दिया गया था और जिससे कोई भी पक्ष संतुष्ट नहीं हुआ के खिलाफ दायर अपीलों की सुनवाई करने जा रहा है, स्वाभाविक ही कई पक्षकारों को प्रधानमंत्री की वे सारी बातें याद आ रही हैं और वे अपने तईं उनके अलग-अलग विश्लेषण कर अलग अलग अर्थ निकाल रहे हैं. इसलिए और भी कि अब वे पहले से ज्यादा बहुमत के साथ फिर से सत्ता में आ गये हैं और राम मन्दिर के वादे को निभाने का उन पर पहले से कहीं ज्यादा दबाव है.
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विवाद के एक पक्षकार मौलाना महफूजुर्रहमान द्वारा नामित उनके प्रतिनिधि खालिक अहमद खान, जो अयोध्या की हेलाल कमेटी के नेता भी हैं, कहते हैं, ‘इस विवाद के निस्तारण का सबसे उपयुक्त मंच तो सर्वोच्च न्यायालय ही है. वह जो भी फैसला सुनाये, हमें कुबूल होगा. लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एएनआई को दिये साक्षात्कार को उनकी सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर में धारा 370 के साथ किये गये ताजा सलूक के साथ याद करते हैं तो डर लगता है कि उनकी सरकार को न्यायालय का फैसला अनुकूल नहीं लगा तो वह उसे निरर्थक कर देने के लिए किसी भी तरह के दुस्साहस पर उतर आयेगी.’
इतना ही नहीं, खालिक यह भी कहते हैं कि इस तरह का डर विवाद से सम्बन्धित पक्षों के लिए सर्वोच्च नयायालय की सुनवाई के सारे मायने ही बदल देता है. कैसे? पूछने पर वे कहते हैं, ‘डरा हुआ पक्ष यह सोचकर हलकान होता रह सकता है कि अब फैसले के उसके पक्ष में होने का भी कोई हासिल नहीं क्योंकि प्रधानमंत्री या उनकी सरकार द्वारा उसे बदला जा सकता है, जबकि दूसरा यह सोचकर आह्लादित होता रह सकता है कि फैसला उसके विपरीत भी हो तो क्या, अपने प्रधानमंत्री हैं न, सारा ऊंच-नीच बराबर कर देंगे.’
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)