scorecardresearch
Wednesday, 1 May, 2024
होममत-विमतज़ोमैटो ने सांप्रदायिक घृणा के अंधेरे कोने में उजाले की कम से कम एक किरण तो फेंकी ही है

ज़ोमैटो ने सांप्रदायिक घृणा के अंधेरे कोने में उजाले की कम से कम एक किरण तो फेंकी ही है

सांप्रदायिक भेदभाव की यह अपनी तरह की कोई अनूठी या पहली घटना नहीं है. ऐसे भेदभावों के ही चलते आजादी के बहुत सालों बाद तक रेलवे स्टेशनों पर ‘हिन्दू पानी’ अलग और ‘मुस्लिम पानी’ अलग हुआ करता था.

Text Size:

अपने देश में सांप्रदायिकता व अस्पृश्यता आदि से जुड़ी कई घृणाएं पिछले कुछ दशकों में छोड़ने व छिपाने के बजाय अपनाने व अकड़ने के लिए होकर न रह गई होतीं, तो मुमकिन ही नहीं था कि कोई सज्जन किसी ऑनलाइन फूड डिलीवरी एप पर अपनी पसन्द का खाना ऑर्डर करते और कोई मुस्लिम डिलीवरी ब्वाय उसे लेकर आता तो लेने से मना कर देते. फिर ठसक से भरकर सोशल मीडिया पर यह भी बताने लग जाते कि उन्होंने गैर-हिन्दू के हाथों उन्हें भेजे गये खाने का ऑर्डर कैंसिल कर दिया है और उन्हें उसका रिफंड भी नहीं चाहिए.

यकीनन, सांप्रदायिक भेदभाव की यह अपनी तरह की कोई अनूठी या पहली घटना नहीं है. ऐसे भेदभावों के ही चलते आज़ादी के बहुत सालों बाद तक रेलवे स्टेशनों पर ‘हिन्दू पानी’ अलग और ‘मुस्लिम पानी’ अलग हुआ करता था. हिन्दू धर्म के आलोचक अकारण थोड़े ही कहते हैं कि यह दुनिया का इकलौता ऐसा धर्म है, जो कहीं किसी विजातीय या विधर्मी के छुये दो कौर हलक के नीचे उतार लेने भर से भ्रष्ट हो जाता है. तिस पर भोजन को धर्म और जाति से जोड़े जाने से जन्मी दूषित चेतनाओं ने हमारे इतिहास में जो अनेक गुल खिलाये हैं, उन्हीं में से एक के चलते पानीपत के मैदान में हुए तीसरे युद्ध में विदेशी हमलावर अहमदशाह अब्दाली ने खुद से कई गुना ज्यादा शक्तिशाली मराठों पर यह कहकर हमला बोला और उन्हें बुरी तरह पराजित कर दिया था कि जो एक साथ खाना नहीं खा सकते, एक साथ लड़ या सिर कैसे कटा सकते हैं?

देश के आज के माहौल को देखते हुए इस बाबत शायद ही कोई संदेह करे कि जब समता पर आधारित संविधान के शासन के सात दशक पूरे होने वाले हैं और हम मानते हैं कि ऐसे ज़्यादातर भेदभाव अंतिम सांसें गिन रहे हैं, इन ग्राहक महोदय को संविधान की मूल स्थापना को ही ऐसी ढिठाई से मुंह चिढ़ाने की प्रेरणा कहां से मिली?

साफ कहें तो उनकी इस प्रेरणा का एक सिरा उत्तर प्रदेश में शामली जिले की कैराना विधानसभा सीट के समाजवादी पार्टी के विधायक नाहिद हसन के उस बयान को भी छूता है, जिसमें विधायक जी ने अपने क्षेत्र के ‘गरीबों’ से विरोधी भारतीय जनता पार्टी के समर्थक दुकानदारों का बहिस्कार करने की अपील कर डाली थी.

इस्कान के उस अक्षयपात्र फाउंडेशन को भी इस प्रेरणा से अलग नहीं ही किया जा सकता, जिसके पास कर्नाटक के 2,814 स्कूलों के कोई साढ़े चार लाख छात्रों को मिड-डे-मील यानी दोपहर का भोजन परोसने का दायित्व है. भोजन की शुद्धता से जुड़ी अपनी खास तरह की ज़िद के तहत वह यह मिड-डे-मील पकाने में राज्य सरकार के मेनू की तो अवज्ञा करता ही है, प्याज़ और लहसुन का कतई प्रयोग नहीं करता. कारण यह कि उसके नेता ज्ञानन्द गोस्वामी मानते हैं कि प्याज़ और लहसुन ‘तामसिक’ तत्व हैं, जो उनका सेवन करने वालों की चेतना पर बुरे असर डालते हैं. इतना ही नहीं, ये ‘प्रकृति में सबसे निचले दर्जे के तत्व’ हैं और इनका सम्बन्ध उत्तेजना, अज्ञान, आलस्य, फोकस के अभाव और उलझन जैसी चीजों से है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ें : नफरत फैलाने के लिए क्यों बढ़-चढ़कर आगे आ रहे हैं हिंदू-मुस्लिम डीजे


गोस्वामी के इस ‘आप्तवचन’ के आगे फाउंडेशन वैज्ञानिकों के इस कथन को कान तक नहीं देता कि प्याज़ और लहसुन सुपर फूड हैं क्योंकि उनमें कैलोरी कम होने के साथ पौष्टिक तत्वों की भरमार है. ऐंटी ऑक्सीडेंट और ऐंटी बैक्टीरियल होने के कारण ये कैंसर से लड़ने की क्षमता रखने, कोलेस्टेराॅल व रक्तचाप को नियंत्रित रखने और हड्डियों का घनत्व बढ़ाते हैं. अपने फाइबर व प्रोबायोटिक्स के कारण ये आंतों के स्वास्थ्य के लिए भी बेहतर होते हैं. इस फाउंडेशन को उसका मिड-डे-मील खाने वाले छात्रों की यह शिकायत भी स्वीकार नहीं है कि इनके अभाव में वह बेस्वाद हो जाता है और वे उसे रुचिपूर्वक गले के नीचे नहीं उतार पाते.

मुस्लिम डिलीवरी ब्वॉय से खाना न लेने वाले उक्त सज्जन इस फाउंडेशन की ही तरह अपनी श्रेष्ठता ग्रंथियों और बीमार अहं को कितना भी तुष्ट क्यों न अनुभव कर रहे हों, वह भी इसलिए कि उन्हें भरपूर प्रचार हासिल हो गया है. इस निरंतर छोटी होती जा रही उपभोक्तावादी दुनिया में भी उसके ठोस सामाजिक, मानवीय या वैज्ञानिक आधार नहीं ही तलाश सकते. इसलिए उनकी बीमारी के साथ उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें तो इस सिलसिले में एक अच्छी बात हुई है कि ज़ोमैटो नामक उक्त ऑनलाइन फूड डिलीवरी एप के मालिक ने ऐसे वक्त में भी, जब कहा जाता है कि उपभोक्ता अथवा ग्राहक की बादशाहत चल रही है, उनके या उनके ग्राहकत्व के दबाव में आने से मना कर दिया है.

ये सज्जन दूसरे डिलीवरी ब्वाय की मांग करते ही रह गये और उन्हें नकार कर उसके मालिक ने यहां तक कह दिया कि अगर ऐसे ग्राहक उसे छोड़कर चले भी जाते हैं तो चले जायें. वह उनकी परवाह नहीं करने वाला क्योंकि उसे भारतीयता और अपने ग्राहकों व पार्टनरों की विविधता पर गर्व है.

उसका यह रवैया भविष्य के भारत के लिए, जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘नया भारत’ बताकर सारे देशवासियों से उसके निर्माण में लग जाने की अपील करते रहते हैं, दूसरी कंपनियों के लिए बड़ी मिसाल या कि नज़ीर हो सकता है. इसीलिए उसे समर्थन भी भरपूर मिला है. उस सोशल मीडिया पर भी, ग्राहक महोदय जहां उसके मुकाबले अपनी दिग्विजय की उम्मीद कर रहे थे. तिस पर पुलिस ने भी उन्हें चेतावनी दी है कि इस बार भले ही बख्श दिया जा रहा है, आइन्दा उन्होंने फिर ऐसा कोई ट्वीट किया तो उन पर कड़ी कार्रवाई की जायेगी.

दूसरी ओर देश के पूर्व निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी ने ज़ोमैटो के मालिक के लिए लिखा है, ‘दीपेन्द्र गोयल जी, आपको सलाम. आप भारत के असली चेहरे हैं. आप पर गर्व है.’ यह गर्व इस बात से भी बढ़ जाता है कि एक अनाम यूज़र ने यह पूछकर उक्त ग्राहक महोदय की भरपूर खबर ली है कि अगर पायलट हिन्दू न हुआ तो हवाई जहाज़ से कूद जाओगे क्या? एक अन्य यूज़र ने उन्हें यह ‘सीख’ भी दी है कि ऐसी ऑनलाइन डिलीवरी में डिलीवरी ब्वॉय के हिन्दू होने पर भी इसकी गारंटी नहीं रहती कि जहां का सारा खाना हिन्दुओं ने ही पकाया होगा.


यह भी पढ़ें : राजीव से लेकर मोदी तक ने जिस ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का जिक्र किया, वो क्या बला ​है?


बहरहाल, ग्राहक महोदय ने इस बहाने अपने समय की चकाचौंध का जो अंधेरा कोना प्रदर्शित किया. ज़ोमैटो के मालिक ने उसे पलटकर उक्त अंधेरे कोने में उजाले की किरणें बिखेर दी है. उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसी किरणें बिखेरने वाले आगे भी कम नहीं पड़ेंगे. साथ ही याद किया जाना चाहिए कि महात्मा गांधी का ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का तकिया ऐसे ही उद्योगपतियों पर था जो अंधाधुंध मुनाफे के लिए अपने व्यवसाय के नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं करते. ऐसे उद्योगपतियों की जमात बड़ी हो जाये तो देश को उस बड़ी विपदा से भी छुटकारा मिल सकता है, जो उस बदनीयती से लगातार विकराल होती जा रही है, जिसके तहत उद्योगपति हर हाल में यानी किसी भी कीमत पर मुनाफे और उसके निजीकरण और घाटे के राष्ट्रीयकरण के फेर में रहते हैं.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)

share & View comments