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Friday, 28 March, 2025
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चिपको आंदोलन दुनिया के लिए मिसाल बना, लेकिन इससे कुछ चुनौतियां भी पैदा हुईं

विडंबना यह है कि लोगों के अपने स्थानीय पारिस्थितिकी के प्रति लगाव के प्रदर्शन का इस्तेमाल केंद्रीकृत निर्णयकर्ताओं द्वारा उन्हें इससे अलग करने के लिए किया गया.

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गौरा देवी और रेणी गांव की महिलाओं ने जब लकड़हारों को पेड़ काटने से रोक दिया था, उसके दो महीने बाद चिपको आंदोलन के इतिहास का एक नया अध्याय शुरू हुआ. हर दस साल पर होने वाली अस्कोटआराकोट पदयात्रा का सिलसिला तभी से शुरू हुआ. इसका मकसद उत्तराखंड के पूर्वी से लेकर पश्चिमी कोने तक उसकी सामाजिकसांस्कृतिक तथा भौगोलिकवनस्पतीय विविधता का जायजा लेना था. इसके अलावा, चिपको आंदोलन को रेणी से आगे पूरे उत्तराखंड के गांवों में ले जाना और पारिस्थितिकीय मसलों की गहराई में जाना भी इसका उद्देश्य था.

पदयात्रा अस्कोट में नेपाल सीमा के पास से 25 मई 1974 को शुरू हुई और सात हफ्ते बाद 750 किमी दूर आराकोट में हिमाचल प्रदेश की सीमा पर समाप्त हुई. इसका उद्देश्य हिमालय की पारिस्थितिकी, और जमीन तथा अपनी आजीविका पर जंगल के वासियों तथा भूमिहीन मजदूरों के अधिकारों की ओर ध्यान आकर्षित करना था. चार युवकों, कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर, शमशेर बिष्ट और शेखर पाठक ने यह पदयात्रा की. बाद में शेखर पाठक ने इस पर एक किताब लिखी ‘हरीभरी जमीन’, जो अंग्रेजी में ‘चिपको मूवमेंट : अ पीपुल्स हिस्टरी’ नाम से प्रकाशित हुई.

यह रास्ता किसी राजनीतिक नेता, नौकरशाह, या पर्यटक ने कभी नहीं अपनाया था. पदयात्रा के दौरान, कई स्थानों पर कॉलेज के छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता, गांधीवादी व सर्वोदयी तथा मार्क्सवादी कार्यकर्ता उनके साथ जुड़े. बेशक किसान और महिलाएं भी जुड़ीं, जो इस आंदोलन के अग्रिम मोर्चे पर रहीं. पदयात्रियों ने इलाके की बड़ी नदियों को पार किया, 16,000 फुट की ऊंचाई तक चढ़े, और आंदोलन के गायक घनश्याम सैलानी का यह संदेश गाकर सुनाते रहे –

वन संपदा पर पहला हक़: वनवासियों का, ग्रामवासियों का,

गांव गांव की एक पुकार: पंचायत लो वन अधिकार

वनवासियों का अधिकार: वन संपदा से रोजगार.

इस पदयात्रा से वे अप्रत्याशित चीजें भी हासिल हुईं, जिनकी उम्मीद भी थी.

चिपको की दूर-दूर तक गूंज

दूरदराज़ के गांवों में पदयात्रा करते हुए इन चार युवकों को उस क्षेत्र के जनजीवन के सभी पहलुओं की जानकारी मिली कि वहां सड़कों, संचारसंपर्क के साधनों, स्कूलों, अस्पतालों की कितनी कमी है; खेतीबाड़ी, मवेशी पालन और जंगल में मजदूरी के साथ कितनी मुश्किलें जुड़ी हैं; महिलाओं और बच्चों की हालत कितनी खराब है; और वहां से पुरुष किस तरह पलायन कर रहे हैं. उन्हें लोगों की नब्ज का अंदाजा लगा, जो उन्हें कोई पाठ्यपुस्तक पढ़कर नहीं लगता.

उन्हें सीख मिली कि मानव समुदाय और प्रकृति किस तरह एकदूसरे पर निर्भर हैं; कि मानव जीवन जंगल, नदियों और बंजर जमीन से किस तरह गुंथा हुआ है. उन्हें यह भी मालूम हुआ कि उन गांवों में दलितों को किस तरह की गैरबराबरी और नाइंसाफी का सामना करना पड़ रहा था. उस समय, दलित लगभग भूमिहीन थे और उन्हें गांव के मंदिरों में भी नहीं जाने दिया जाता था.

एक छोटी मगर महत्वपूर्ण घटना यह हुई कि बिरला घराने ने पारंपरिक वैष्णव शैली में लकड़ी से बने बद्रीनाथ मंदिर को नई दिल्ली के बिरला मंदिर जैसे आधुनिक ढांचे वाले मंदिर में पुनर्निर्मित करने की जो पेशकश की थी उसका विरोध किया गया. पाठक की किताब के अनुसार, चंडी प्रसाद भट्ट और गौरा देवी समेत चिपको आंदोलन के कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में जिले के लोगों ने मांग की कि ‘मंदिर का पुनरुद्धार और पुनर्निर्माण स्थानीय लोगों से बातचीत और उनकी सहमति, और पेशेवर आर्कियोलॉजिस्ट तथा जियोलॉजिस्ट की सलाह के बाद ही किया जाए”. संदेश तीखा और साफ था कि मूर्त तथा अमूर्त, दोनों तरह की धरोहरों की रक्षा की जानी चाहिए.

चिपको आंदोलन जंगल और आजीविका के मामलों में अपनी बातों पर ज़ोर देने में तो सफल हुआ लेकिन टिहरी बांध के निर्माण के खिलाफ उसका आंदोलन असफल रहा. 9,000 करोड़ रुपये की इस विशाल परियोजना के साथ बड़े इलाके के डूबने, बड़ी संख्या में पेड़ों की कटाई, लोगों के विस्थापन और भूकंप की आशंकाएं जुड़ी थीं.

चिपको आंदोलन के नेता सुंदरलाल बहुगुणा ने इस परियोजना के विरोध में इतने लंबेलंबे उपवास किए जितने आज़ाद भारत में तब तक किसी ने नहीं किए थे मगर उन सबका कोई असर नहीं पड़ा. बहुगुणा ने पी.वी. नरसिंहराव के राज में 45 दिनों का अनशन किया, एच.डी. देवेगौड़ा के राज में 74 दिनों तक उपवास किया. दोनों बार उन्हें केवल यह आश्वासन मिला कि परियोजना की समीक्षा की जाएगी, जो की भी गई लेकिन मुख्यतः सिर्फ समय काटने के लिए.

इन समीक्षाओं का नतीजा सिर्फ यह निकला कि मुआवजे की राशि में कई गुना इजाफा कर दिया गया. जिनकी भी जमीन गई उन्हें बसाए जाने वाले नये टिहरी शहर में आवास दिया गया, या तराई वाले इलाकों में खेती के लिए जमीन और दूसरी तरह के मुआवजे दिए गए.

दरअसल, इस परियोजना का एक नतीजा यह भी निकला कि भूमि अधिग्रहण के औपनिवेशिक काल के क़ानूनों के मुक़ाबले ज्यादा उदार कानून बनाए गए. जो भी हो, मुआवजा, रोजगार, बैंक कर्ज, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और एक आधुनिक शहर की सुविधाओं आदि के रूप में धनदौलत गांधीवादी सत्याग्रह से कहीं ज्यादा आकर्षक साबित हुई.

बहुगुणा और उनके साथियों ने न्यायपालिका की भी शरण ली लेकिन सरकार का तर्क था कि देश को बिजली की, और 300 किमी दूर स्थित राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को पानी की जरूरत थी. प्रभावित लोगों में से ज्यादा से ज्यादा लोग मुआवजे कबूल करते चले गए, और आंदोलन बिखरता गया.

लेखक अल्फ्रेड जेम्स ने अपनी किताब ‘इकोलॉजी इज़ पर्मानेंट इकोनॉमी: दि एक्टिविज़्म ऐंड एनवायरमेंटल फिलॉसफ़ी ऑफ सुंदरलाल बहुगुणा’ में (जिसका शीर्षक बहुगुणा के सूत्र से प्रेरित है) लिखा है कि चिपको आंदोलन के साथ उनका लगाव दो प्रमुख विषयों पर आधारित था.

पहला विषय था आर्थिक रूप से स्वतंत्र और मजबूत गांवों को सहारा देने वाले सामुदायिक संगठनों की स्थापना; और दूसरा विषय था जंगलों का विकास, जिन पर ये स्थानीय अर्थव्यवस्थाएं और परिवार निर्भर हैं. बहुगुणा ‘मनीऑर्डर’ वाली अर्थव्यवस्था को खत्म करना चाहते थे जिसमें स्वस्थ शरीर वाले पुरुष रोजगार की तलाश में पहाड़ों को छोड़ मैदानी इलाकों में चले जाते हैं. गांधी और सर्वोदय का सिपाही होने के कारण वे पहाड़ों में शराबखोरी और दलितों के सशक्तीकरण को लेकर भी चिंतित थे. उन्होंने दलितों और खासकर महिलाओं के लिए एक आश्रम की स्थापना की.


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विरासत और बोझ

कोई स्थानीय आंदोलन जब देश और विदेश में भी लोकप्रिय हो जाता है तब क्या होता है?

चिपको आंदोलन एक राष्ट्रीय, और अंतरराष्ट्रीय मिसाल भी बन गया और दूसरे देशों में लोगों को प्रेरित करने लगा. 1987 में स्वीडन में इसी तरह पर्यावरण संरक्षण का आंदोलन शुरू हुआ, तो 2008 में जापान में माउंट ताकाओ के जंगल को बचाने का आंदोलन चल पड़ा. इसने हिमाचल, राजस्थान, बिहार, और कर्नाटक में अप्पिको आंदोलन के जरिए सामाजिकपारिस्थितिकीय आंदोलनों को भी प्रभावित किया. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने रिज इलाके में पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए कल्पवृक्ष आंदोलन शुरू कर दिया. इससे प्रेरणा लेकर बारासाट और मुंबई में भी पेड़ बचाओ आंदोलन शुरू किए गए.

यह आंदोलन बाहरी लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए वनों की व्यापक व्यावसायिक कटाई के खिलाफ लंबे समय से जारी संघर्ष का हिस्सा था. इस क्षेत्र के लोग पेड़ों की कटाई के लिए बाहर के ठेकेदारों द्वारा प्रवासी मजदूरों को लाए जाने और इस कटाई से हुए नुकसान को लेकर बहुत नाराज थे. इसलिए, यह एक मजदूर आंदोलन भी था और पारिस्थितिकी की सुरक्षा का भी आंदोलन था. इसे केवल ‘पर्यावरण’ से जोड़ना या ‘महिलाओं का पारिस्थितिकीय आंदोलन’ कहना उसके केवल एक पहलू पर ज़ोर देना माना जाएगा.

लेकिन इसके नकारात्मक नतीजे भी निकले.

चिपको आंदोलन पर पूरे देश का ध्यान जिस तरह केंद्रित था, उसके कारण सरकार ने लगाम और कस दिए. इलाके से बाहर के ठेकेदार तो उतनी बड़ी समस्या नहीं रहे लेकिन इलाके में लोगों की आजीविका पर बहुत गंभीर संकट छा गया. इसलिए, हालांकि आंदोलन को 1987 में ‘राइट लाइवलीहुड अवार्ड’ से सम्मानित किया गया लेकिन इसने बेरोजगारी की स्थानीय समस्या की चुनौती से निबटने के लिए कम ही काम किया, सिवा कुछ ‘इकोटूरिज़म’ परियोजनाओं के.

विडंबना यह हुई कि केंद्र में बैठे नीति निर्धारकों ने पारिस्थितिकी के प्रति लोगों के लगाव का इस्तेमाल करके उन्हें इससे अलग कर दिया. ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि भारत में वन कानून (मसलन जंगल कटाई से संबंधित कानून) औपनिवेशिक काल के कानूनों पर आधारित थे, जिनका स्थानीय निवासियों के सरोकारों से कोई ताल्लुक नहीं था.

उदाहरण के लिए, नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान का निर्माण ऐसे नियमों के साथ किया गया जिनके कारण स्थानीय लोग अपने इलाके से जड़ीबूटी और मशरूम आदि इकट्ठा नहीं कर सकते थे. इस वजह से वैद्यों की आजीविका प्रभावित हुई. इसके अलावा कई रोगों के रोकथाम और इलाज के लिए पारंपरिक ज्ञान के उपयोग की संभावना बाधित हुई.

रोजगार और आजीविका के जंगल से जुड़े अवसरों के खत्म होने से वहां के गांवों से लोगों का पलायन जारी रहा. 2011 की जनगणना के अनुसार, बागेश्वर जिले में 73, चमोली में 76, पिथोड़ागढ़ में 60 गांव निर्जन हो चुके थे. इनके अलावा अल्मोड़ा, पौरी में ऐसे कई गांव थे जहां से 80 फीसदी आबादी बेहतर अवसरों की तलाश में जिला मुख्यालयों या मैदानी इलाकों में पलायन कर गई थी.

(अगली कड़ी प्रकाश्य)

26 मार्च को चिपको आंदोलन की वर्षगांठ के मौके पर तीन कड़ियों की सीरीज़ की यह दूसरी कड़ी है. इसका पहला लेख  पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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