scorecardresearch
Monday, 2 December, 2024
होममत-विमतUPSC, LBSNAA आदि उम्दा काम कर रहे हैं, उन्हें कॉर्पोरेट की ज़रूरत नहीं है मूर्ति साहब!

UPSC, LBSNAA आदि उम्दा काम कर रहे हैं, उन्हें कॉर्पोरेट की ज़रूरत नहीं है मूर्ति साहब!

आपने मुद्दे की बात की है. सरकार नियमित कर्मचारियों की जगह कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कर्मचारियों को छुट्टी आदि के प्रावधानों के साथ बहाली करके लागत काफी घटा सकती है, लेकिन क्या हम चुनावों, जनगणना, राहत तथा आपदा प्रबंधन के काम को ठेके पर करवा सकते हैं.

Text Size:

प्रिय नारायणमूर्ति जी,

एक सबसे बेहतरीन दिमाग वाले उद्यमी और व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक जीवन में बेदाग ईमानदारी व सच्चाई का पालन करने वाली हस्ती के रूप में आपका सम्मान करने वाले एक सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी का नमस्कार स्वीकार कीजिए. भारत को आईटी क्षेत्र में विश्व में एक अहम मुकाम पर पहुंचाने में आपका योगदान अद्वितीय है. मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि भारत को 2047 तक सुपरिभाषित मुकामों से गुज़रते हुए एक आर्थिक महाशक्ति बनाने की आपकी प्रतिबद्धता पर मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं है.

मैं आपको अपना परिचय देने की इज़ाज़त भी मांगूंगा. मैं 36 साल तक एक आईएएस अधिकारी रहा और भारत सरकार के अलावा दो राज्यों (पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड) की सरकारों को भी अपनी सेवाएं दे चुका हूं. फील्ड पोस्टिंग्स के अलावा मैं मुख्यतः कृषि, उद्योग और प्रशिक्षण से जुड़ी संस्थाओं में काम कर चुका हूं.

मैं लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (LBSNAA) के निदेशक के पद पर सेवानिवृत्त हुआ. मैंने कई बैचों को वहां से पास होकर निकलते देखा. मैं उनकी मेधा और समयसीमा में जटिल कार्य करने की उनकी क्षमता के बारे आश्वस्त कर सकता हूं. उनमें से कुछ को जिस वातावरण में तैनात कर दिया जाता है उसका सामना करने में उनकी दुविधाओं और पूर्वाग्रहों के बारे में भी अवगत हूं.

मैं यह पत्र आईएएस, आईपीएस, अलाएड सर्विसेज के अधिकारियों के बारे में सीएनबीसी-टीवी-18’ के ‘ग्लोबल लीडरशिप समिट’ में 14 नवंबर को दी गई आपकी टिप्पणी के कारण लिख रहा हूं. मैं कहना चाहूंगा कि आपके विचार उन अधिकारियों की भूमिका तथा जिम्मेदारियों के बारे में गलत धारणा पर आधारित हैं.

आपका मुख्य तर्क यह है कि ‘शासन से बदलती अपेक्षाओं’ का तकाज़ा है कि कार्यक्रमों को लागू करने में असली चीज़ है दूरदर्शिता, लागत पर नियंत्रण, नयापन, और तत्काल अमल पर ज़ोर देना. आपका कहना है कि ये काम संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) और लाल बहादुर अकादमी से निकले ग्रेजुएट्स के मुकाबले बिजनेस स्कूलों से निकले ग्रेजुएट्स बेहतर कर सकते हैं.

बिजनेस स्कूल केवल सुविधा संपन्न लोगों के लिए

आपको याद दिलाना चाहता हूं कि यूपीएससी का गठन संविधान के अनुच्छेद-315 के तहत किया गया था. 315 से लेकर 323 तक के नौ अनुच्छेद यूपीएससी की स्थापना से ही नहीं, उन प्रावधानों से भी संबंधित हैं जिनके अंतर्गत उसकी रिपोर्टों को संसद में रखा जाता है.

यूपीएससी की चयन प्रक्रिया योग्यता, विविधता और समावेश पर आधारित है. यह हर एक भारतीय युवा को अंग्रेज़ी या आठवीं अनुसूची में दर्ज 22 में से किसी एक भाषा में परीक्षा देने की सुविधा देती है. मुझे नहीं पता, कोई बी-स्कूल यह सुविधा देता है. इसलिए उनमें अंग्रेज़ी मीडियम वाले कुलीन संस्थानों के विज्ञान और गणित वाले स्टूडेंट्स के प्रति पक्षपात पहले से अंतर्निहित है.

‘विकसित भारत’ के लक्ष्य के लिए काम करने वाले अगर मुख्यतः अंग्रेज़ी भाषी, शहरी मध्यवर्ग के ऊंचे तबके से ही आएंगे तब भारत विकसित नहीं बन सकता.

यूपीएससी अखिल भारतीय तथा केंद्रीय सेवाओं के लिए 12 लाख एस्पिरेंट्स में से बेहतरीन करीब 500 अधिकारियों को सिलेक्ट करता है. उन्हें लाल बहादुर अकादमी में ‘फाउंडेशन कोर्स’ के लिए भेजा जाता है जिसमें अब केवड़िया स्थित ‘स्टैचू ऑफ यूनिटी’ के नीचे ‘आरंभ’ को भी शामिल किया गया है जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘विकसित भारत’ के अपने सपने को उनके साथ साझा करते हैं. अपनी डफली खुद बजाने के आरोप का जोखिम उठाते हुए मैं यह भी बताना चाहूंगा कि 2019 और 2020 में प्रधानमंत्री के साथ इन दो प्रारंभिक संवादों का संचालन करने का सौभाग्य मुझे ही मिला.


यह भी पढ़ें: मैं 36 सालों तक IAS अधिकारी रहा, यह कभी निराशाजनक नहीं था; संजीव सान्याल ने सिविल सेवा को गलत तरीके से समझा


जनता की आवाज़

अब बात दूरदर्शिता की. सर, मैं कहना चाहूंगा कि ‘भविष्य का खाका खींचने का काम’ लोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्था का है. पंचायत से लेकर जिला परिषद तक, क्षेत्रीय परिषद से लेकर राज्य तथा केंद्र सरकारों तक हर स्तर के लिए यह काम जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को करना ही चाहिए.

यह खाका राजनीतिक अर्थव्यवस्था में निहित होता है. क्या यह फैसला सरकारी अधिकारियों या मैनेजरों को करना चाहिए कि भारत ‘क्वाड’ में शामिल हो या नहीं? कि सीमा पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) या नियंत्रण रेखा (एलओसी) क्या हो? या कि समान नागरिक संहिता लागू हो या नहीं? क्या मैनेजरों को यह फैसला करना चाहिए कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत दावा करने वालों की आय सीमा क्या हो?

‘महिलाओं और छात्रों को मुफ्त बस यात्रा करने की सुविधा देने से समाज ज्यादा समावेशी बनेगा या नहीं?’ ऐसे सवालों के जवाब बैलेंसशीट के आधार पर तय नहीं किए जा सकते, नहीं किए जाने चाहिए. इसमें क्या खर्च लगेगा यह जानने के लिए किसी रॉकेट साइंस की ज़रूरत नहीं होती मगर इनके साथ बड़े मसले जुड़े होते हैं. उदाहरण के लिए पूछा जा सकता है कि ‘मिड-डे-मील’ प्रोग्राम से झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों में स्वास्थ्य और शिक्षा के आंकड़े बेहतर हुए या नहीं?

इन मसलों का बेशक बेहतर प्रबंधन किया जाना चाहिए, और एक सजग नागरिक के रूप में आप स्पष्ट सुझाव दे सकते हैं कि यह कैसे किया जाए. पिछले महीने इस कॉलम में मैंने लिखा था कि नीति आयोग ने आईटी वेंडरों के भुगतानों को सरकारी स्कूलों में शिक्षण से किस तरह जोड़ा है.


यह भी पढ़ें: एलके झा से पीएन हक्सर और पीके मिश्रा तक — PMO कैसे बना भारत का पावर हब


शासन से अपेक्षाएं

सर, आपने शासन से बदलती अपेक्षाओं की बात की है. ये अपेक्षाएं कौन तय करता है? व्यवसाय करने की सुविधा और जीवन जीने की सुविधा, दोनों जायज़ लक्ष्य हैं, लेकिन इनके बीच संतुलन कैसे बनाया जाए?

आपने हफ्ते में 72 घंटे काम की वकालत की है (गनीमत है, एक दिन की छुट्टी के साथ), लेकिन ज़िंदगी जीने की सुविधा नागरिक केंद्रित है. इसमें लाइफ और वर्क के बीच बैलेंस बच्चों और बुजुर्गों की सेवा, एक व्यक्ति के सांस्कृतिक तथा सामाजिक विकास के साथ शारीरिक व मानसिक सेहत के लिए पर्याप्त अवसरों की उपलब्धता शामिल है. अब सवाल यह है कि व्यवसाय करने की सुविधा और जीवन जीने की सुविधा की मांगों के बीच मध्यस्थता कौन करेगा?

दुनिया अब सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को देश की तरक्की का एकमात्र पैमाना मानने से आगे बढ़ रही है. यह मसला कॉर्पोरेट के बोर्डरूम में तय नहीं किया जा सकता.

लागत और लाभ का समीकरण

आपने लागत पर लगाम लगाने की बात भी उठाई है. मैं आपसे आम तरह का बयान देने से परहेज़ करते हुए यह बताने का अनुरोध करूंगा कि लागत के हिसाब से बेहतर लाभ देने के मामले में, किन सेक्टरों/क्षेत्रों की सरकारी सेवाएं कॉर्पोरेट द्वारा दी जा रही सेवाओं के मुकाबले कमतर हैं.

क्या आप ‘एम्स’ की तुलना मैक्स, अपोलो या मेदांता से करेंगे? शायद आप दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले प्रति छात्र पर औसत खर्च की तुलना किसी निजी विश्वविद्यालय के छात्र पर औसत खर्च से करना चाहेंगे. देश में समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) के किसी भी केंद्र के इंतज़ाम पर नज़र डालिए, मुझे यह जानकर खुशी होगी कि उनकी लागत में कहां और कटौती की जा सकती है.

सरकार का ई-मार्केटप्लेस पोर्टल लागत में कटौती का एक और उदाहरण पेश करता है, जहां आईएएस अधिकारियों ने लेन-देन के समय और लागत को लगभग शून्य पर ला दिया है.

वैसे, सच्ची बात तो यह है कि आपने मुद्दे की बात की है. सरकार नियमित कर्मचारियों की जगह ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों को स्वास्थ्य सेवा तथा शिक्षा आदि के लिए छुट्टी के प्रावधानों के साथ बहाली करके लागत काफी घटा सकती है, लेकिन क्या हम चुनावों, जनगणना, राहत तथा आपदा प्रबंधन के कामों को ठेके पर करवा सकते हैं?

मुझे किसी उत्पाद के उदघाटन और मार्केटिंग सम्मेलनों जैसे कॉर्पोरेट आयोजनों में निमंत्रित किया जाता रहा है. इन आयोजनों पर जो खर्च होते हैं उनकी तुलना प्रायः विज्ञान भवन में आयोजित होने वाले सरकारी सरकारी सम्मेलनों पर होने वाले खर्च से करना असंभव है.

मैं आपसे यह भी स्पष्ट करने का अनुरोध करूंगा कि तेज़ क्रियान्वयन से आपका क्या आशय है. प्रधानमंत्री या किसी मुख्यमंत्री द्वारा घोषित कार्यक्रम कुछ दिनों के अंदर नहीं तो कुछ सप्ताहों के अंदर लागू कर दिया जाता है.

यह सच है कि चाहे किसी भी दल का हो, राजनीतिक कार्यपालक इन्फ्रास्ट्रक्चर, हुनर विकास केंद्र, विश्वविद्यालय आदि के ऊपर महिलाओं तथा बेरोज़गार युवाओं को सीधा लाभ देने के कार्यक्रमों को तरजीह देते हैं. ज़ाहिर है, इसके पीछे चुनावी मजबूरियां काम करती हैं.

राजनीतिक फैसले

अंत में मैं कहना चाहूंगा कि समाज राजनीतिक फैसले करता है और जो लोग यह उपदेश देते हैं कि क्या किया जाना चाहिए उन्हें कॉर्पोरेट दफ्तरों के बाहर से उठने वाली तरह-तरह की आवाज़ों को सुनना चाहिए.

कॉर्पोरेट सेक्टर अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी से ज्यादा अपने विज्ञापनों पर खर्च करता है. वह अपने संगठनों पर ज़रा आरटीआई लागू करके देखें. वह अपने शीर्ष अधिकारियों और ठेके पर काम करने वाले कर्मचारी के वेतन में अंतर का भी खुलासा करें और बताएं कि उनके किन-किन उत्पादों और सेवाओं से उन्हें कितने मुनाफे होते हैं. वह अपने समावेश सूचकांक पर भी रिपोर्ट जारी करें कि उनके शीर्ष पदों पर कितने विकलांग, कितने उभयलिंगी, कितने अनुसूचित जातियों और कितने पिछड़ी जातियों या उत्तर-पूर्व के लोग काम कर रहे हैं.

यह सब जब हो जाए तब आप यूपीएससी, लाल बहादुर अकादमी, सरदार वल्लभभाई पटेल नेशनल पुलिस अकादमी और इंदिरा गांधी नेशनल फॉरेस्ट अकादमी सरीखे संस्थानों को सलाह देने के अधिकारी बन सकते हैं, उन संस्थानों को जो संसद, विधानसभाओं, नगर निगमों और जिला परिषदों में तय की गई नीतियों को लागू करने में लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नेतृत्व की मदद करने का उम्दा काम कर रही हैं.

(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ें: एक अमेरिकी ने मेरे जैसे IAS अधिकारी को सही सवाल पूछना सिखाया- आखिर क्यों जेम्स स्कॉट है महत्त्वपूर्ण


 

share & View comments