scorecardresearch
Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतसेना जम्मू में अलगाववाद पर काबू तो कर सकती है, लेकिन राजनीतिक समाधान को स्थायी हल बनाना होगा

सेना जम्मू में अलगाववाद पर काबू तो कर सकती है, लेकिन राजनीतिक समाधान को स्थायी हल बनाना होगा

जम्मू-कश्मीर के संकट के समाधान के तीन आयाम हैं — सीधी सैन्य टक्कर से बचा जाए, अलगावाद विरोधी ढांचे का दायरा बढ़ाया जाए और राष्ट्रप्रेमी नेताओं को साथ लेकर चला जाए.

Text Size:

पाकिस्तान पिछले चार साल से कश्मीर घाटी से जम्मू को अलग करने वाली पीर पंजाल घाटी के दक्षिण-पश्चिम और दक्षिण इलाके में आतंकवाद को फिर से भड़काने की निरंतर कोशिश कर रहा है. धीरे-धीरे इसकी शुरुआत 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद-370 को रद्द किए जाने के बाद हुई और 2020 में घुसपैठ के मामले और आतंकी गतिवधियां बढ़ गईं. पहला बड़ा हमला 2021 में 11 से 14 अक्टूबर के बीच सूरणकोट में किया गया, नौ सैनिक मारे गए जिनमें दो जूनियर कमीशंड अफसर (जेसीओ) शामिल थे. कोई आतंकवादी नहीं मारा गया, जिसने संकेत दे दिया कि उन्होंने अपनी चाल किस तरह बदल दी है और बेहतर ट्रेनिंग के साथ वे बेहतर हथियारों और कूट संचार तंत्र का इस्तेमाल कर रहे हैं.

पाकिस्तान ने ऑपरेशन संबंधी अपनी रणनीति बदल दी है इसके स्पष्ट संकेत तो 2020-21 से ही मिल रहे थे, लेकिन इसके गंभीर नतीजे पिछले दो महीने से महसूस हो रहे हैं जब तीन बड़ी आतंकी कार्रवाई की गईं. तीर्थ यात्रियों वाली एक बस पर हमले में नौ नागरिक मारे गए और 33 घायल हुए. कठुआ और डोडा में अचानक हुए हमलों के बाद की गई कार्रवाई में सेना के एक अधिकारी और एक जेसीओ समेत नौ सैनिक मारे गए.

अनुमान है कि 55-60 पाकिस्तानियों समेत कुल 90-100 आतंकवादी अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार करके सांबा और कठुआ जिलों में घुस आए. संभव है, इनमें से कुछ आतंकवादी पंजाब के पठानकोट जिले से भी घुसे हों और राजौरी और पुंछ जिलों में नियंत्रण रेखा (एलओसी) पार करके आए हों. वो इस इलाके में कार्रवाई करते रहते हैं. पुंछ, राजौरी, सांबा, कठुआ, रामबन, डोडा, और किश्तवाड़ में फैले पहाड़ और जंगल अशांत हो गए हैं.

प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल और सेनाध्यक्ष के साथ हुई उच्चस्तरीय बैठकों में सरकार और सेना ने हालात की समीक्षाएं की हैं. सीमाओं पर घुसपैठ विरोधी कार्रवाई के लिए सेना की तैनाती को मजबूत करने के लिए और अंदरूनी इलाकों में अलगाववाद विरोधी जाल को स्थापित करने के जोशीले कदम उठाए गए हैं. सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्सेस (सीएपीएफ) और असम राइफल्स की अतिरिक्त यूनिटों के अलावा सेना के एक डिवीजन वाली ताकत के बराबर सैन्य यूनिटों और स्पेशल फोर्सेस की एक यूनिट तैनात किया गया है. जम्मू और पठानकोट सेक्टरों की ज़िम्मेदारी संभालने वाले पश्चिमी कमान के दो डिवीजनों के कुछ हिस्से को भी तैनात किया गया है.


यह भी पढ़ें: ड्रोन आधारित युद्ध में भारतीय सेना ने PLA की बढ़त को कम किया है, अब इन्हें स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाना होगा


हालात क्यों बिगड़े?

जम्मू डिवीजन में आतंकवाद की वापसी की वजहों के बारे में कई अनुमान लगाए जा रहे हैं. इसका सीधा जवाब यह है कि जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध चलाने की पाकिस्तानी चाल में 35 साल से कोई फर्क नहीं आया है और अलगाववाद विरोधी ढांचे सक्रिय हैं. आतंकवादी तत्व सुरक्षा तंत्र की कमज़ोरियों का फायदा उठाने की कोशिश करते रहते हैं और सेना उनकी हरकतों पर निगाह बनाए रहती है. इसमें असली पेंच यही होता है कि पहल करने में बाजी कौन मारता है.

मेरा मानना है कि अनुच्छेद-370 को रद्द किए जाने पर जो यह राजनीतिक नारा उछाला गया कि यह छद्म युद्ध के लिए मारक प्रहार है, उससे उत्साहित होकर सरकार और सेना ने मसले पर से अपना ध्यान हटा लिया. यह और भी खतरनाक है क्योंकि पिछले चार साल से जम्मू की मुस्लिम आबादी में बढ़ती अलगाव की भावना, घुसपैठों में वृद्धि, इस क्षेत्र में बढ़ी आतंकवादी गतिविधियों से यही संकेत मिल रहा है कि अलगाववाद फिर से सिर उठा चुका है. अमन के भ्रम में अलगाववाद विरोधी ढांचे में जो कमजोरी आई उसने आतंकवादियों को फायदा उठाने का मानो बुलावा ही दे दिया.

पाकिस्तान की पुरानी चाल

आर्थिक और राजनीतिक संकट में फंसे होने के बावजूद पाकिस्तान छद्म युद्ध वाली चाल में कोई नहीं फर्क नहीं पड़ा है. उसका मकसद साफ है — भारत की कश्मीर घाटी और दूसरे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने के लिए उसे थका डालो. कितनी हिंसा करनी है और किन क्षेत्रों पर दबाव डालना है, यह वह इन बातों से तय करता है — रणनीतिक माहौल कैसा है, वित्तीय कार्रवाई करने वाले टास्क फोर्स (एफएटीएफ) कितना दबाव दाल रहा है, खुद उसका अपना और भारत का घरेलू माहौल कैसा है और अलगाववाद विरोधी कार्रवाइयां कितनी सफल हो रही हैं.

भारत ने वास्तव में 5 अगस्त 2019 से ही एकजुट होकर अलगाववाद विरोधी अभियान छेड़ रखा है, जिसमें घुसपैठ को रोकने के लिए अतिरिक्त सुरक्षा बलों की कईं स्तरों पर तैनाती की गई है, अंदरूनी इलाकों में अलगाववाद विरोधी मजबूत ढांचा तैनात किया गया है और आतंकवादियों की अपनी व्यवस्था पर हमले किए जाते हैं. इन सबके कारण घाटी में आतंकवादियों की संख्या और गतिविधियों में कमी आई है.

लेकिन घाटी में इन कार्रवाइयों से मिलने वाले लाभों में गिरावट, पूर्वी लद्दाख में चीन-भारत टकराव के कारण मिले मौके और जम्मू डिवीजन में अलगाववाद विरोधी ढांचे में कमज़ोरी आदि को ध्यान में रखकर पाकिस्तान ने 2021 में इस क्षेत्र में फिर से अपनी हरकतें शुरू करने के लिए अपनी कार्रवाई संबंधी रणनीति पर पुनर्विचार करने का फैसला किया. एक अतिरिक्त लक्ष्य इस धारणा को ध्वस्त करने का था कि अनुच्छेद- 370 को रद्द करने से शांति बहाल हुई है. घुसपैठ के पुराने रास्तों को सक्रिय किया गया, खुला समर्थन करने वालों का एक नेटवर्क बनाया गया, मजहबी घुट्टी पिलाने की मुहिम को फिर शुरू किया गया और आतंकवादी गतिविधियां धीरे-धीरे बढ़ाई गईं.

इन सारी हरकतों के लिए बोनस जैसा यह है कि इस क्षेत्र में हिंदुओं की आबादी अच्छी-खासी, यानी लगभग 67 फीसदी है. उसे अगर कोई नुकसान पहुंचता है तो यह भाजपा के लिए परेशानी वाली बात होगी.

पाकिस्तान की रणनीति की सफलता इस तथ्य से ज़ाहिर होती है कि रियासी में तीर्थयात्रियों की बस पर ठीक उस दिन हमला किया गया जिस दिन मोदी सरकार ने तीसरी बार शपथ ग्रहण की. 35 साल में पहली बार, 2021 से 2024 के बीच जम्मू क्षेत्र में मारे गए सैनिको और आतंकवादियों की संख्या का अनुपात काफी नीचे गिरकर 1:1 का हो गया, जबकि 2020 में यह 1:18 का था.

लड़खड़ाती राजनीतिक और सैन्य रणनीति

अनुभव से उपजा ज्ञान यही कहता है कि अलगाववाद का समाधान राजनीतिक प्रयासों से ही हो सकता है, सेना हथियारबंद उग्रवादियों/आतंकवादियों को बेअसर करके इसके लिए केवल हालात बना सकती है. भारत आमतौर पर इसी सिद्धांत पर चलता रहा है हालांकि, 1956 से ही इसकी प्रक्रिया दर्दनाक रूप से धीमी रही है. सेना ने उत्तर-पूर्व में जब स्थिति को काबू में करके अनुकूल वातावरण बना दिया उसके बाद भी लंबे समय तक सरकारें ऊहापोह में रहीं और राजनीतिक समाधान नहीं खोज सकीं, लेकिन संयोग से अलगाववादी नेतृत्व की थकान ने उसे सुलह के लिए वार्ता करने पर मजबूर कर दिया.

जम्मू-कश्मीर के मामले में भी कोई अलग रास्ता नहीं अपनाया गया, लेकिन धार्मिक वजहों से और अपनी रणनीति पर चलने की पाकिस्तान की कोशिश और समान मजहब वाले (पाकिस्तानी) आतंकवादियों को भेजे जाने के कारण आतंकवादियों और उनके समर्थकों में जान आ गई और उनकी ताकत बढ़ गई. पिछले एक दशक में सरकार वैचारिक कारणों से संवैधानिक और सैन्य प्रबंधन पर ज़ोर देती रही और समस्या के राजनीतिक समाधान पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया. पहले से ही कमज़ोर पड़ चुके अनुच्छेद-370 में संवैधानिक संशोधन की ज़रूरत लंबे समय से थी, जिसे नाराज़ आबादी की असहज खामोशी के कारण एक राजनीतिक समाधान मानने की गलती की गई.

समस्या इसलिए और गहरी हो गई कि सेना भी आतंकवाद के फिर से उभार को रोकने के लिए चौकस रहने की बजाय सुस्त पड़ गई. 2007 के बाद से जम्मू क्षेत्र का तुलनात्मक रूप से लंबे समय तक स्थिर रहना और पूर्वी लद्दाख में टकराव के कारण जम्मू क्षेत्र में आतंकवाद विरोधी ढांचा कमजोर हुआ. इस क्षेत्र में ऑपरेशन पराक्रम के बाद से करीब दो डिवीजन के बराबर जो अतिरिक्त सेना इस क्षेत्र में कार्रवाई कर रही थी उसे 2008 की शुरुआत में धीरे-धीरे वहां से हटा लिया गया. राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) की 26 बटालियनों में से चार को घाटी में भेज दिया गया. 2021 में अलगाववाद विरोधी बल के एक मुख्यालय और आरआर सेक्टर की 2/3 बटालियनों को पूर्वी लद्दाख भेज दिया गया. इस कमी की भरपाई सीएपीएफ से करने की कोई कोशिश नहीं की गई.

इसके अलावा राजनीति, मीडिया और सार्वजनिक विमर्शों में मुसलमानों की विचारधारात्मक तथा नव-राष्ट्रवादी आधारों पर आलोचना की जाती रही है; गुज्जर तथा बकरवाल समुदायों को नुकसान पहुंचाते हुए पहाड़ी आबादी के लिए दोषपूर्ण आरक्षण नीति लागू की गई; स्थानीय लोगों के प्रति सेना और पुलिस ज्यादती करती रही; पाकिस्तान की लगातार सांप्रदायिक मुहिम ने उस आबादी को अलग-थलग कर दिया जो भारत के प्रति अनुकूल रखती थी और खुफिया तंत्र कमज़ोर पड़ता गया. इन बातों की तस्दीक 2018 में कठुआ में एक नाबालिग बकरवाल लड़की के बर्बर बलात्कार के मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशों और दिसंबर 2023 में सेना की हिरासत में तीन गुज्जरों की मौत के मामले से होती है.


यह भी पढ़ें: अग्निपथ योजना पर फिर से विचार करने, सुधार करने या नए तरीके से लागू करने का यही मौका है


आगे का रास्ता

जम्मू-कश्मीर के मौजूदा संकट के समाधान के तीन आयाम हैं. पहला यह कि पाकिस्तान की अपनी राष्ट्रीय ताकत के सभी औज़ारों का इस्तेमाल करने से रोका जाए. राजनीति और जनता के बीच चाहे जितनी नारेबाजी होती हो, सेना का इस्तेमाल अनिश्चितता से भरा है. पाकिस्तान ने किसी सीमित किस्म की लड़ाई में, जिसमें परमाणु हथियारों का इस्तेमाल न होता हो, हार से बचने की पर्याप्त क्षमता हासिल कर ली है. उसने अपनी सेना को टेक्नोलॉजी के स्तर पर इतना सक्षम कर लिया है कि किसी घोषित जवाबी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ से बचाव कर सके और उसका जस का तस जवाब भी दे सके. टेक्नोलॉजी आधारित गुप्त और मानव मुक्त ऑपरेशन एक प्रभावी उपाय है, लेकिन बेहतर यह होगा कि ऐसे ऑपरेशनों को लेकर अपनी छाती ठोकने की आदतों से बचा जाए, जो कि हमारे राजनीतिक नेताओं का स्वभाव है. तेहरान में हमास के नेता इस्माइल हानिएह की हत्या से भारत सबक ले सकता है.

दूसरा आयाम यह है कि अलगाववाद को सेना की मदद से काबू में लाया जाए. सरकार और सेना ने अतिरिक्त सुरक्षा बलों को शामिल करके अलगाववाद विरोधी ढांचा बनाकर सही कदम उठाया है. पीर पंजाल के दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिण में स्थित घने जंगल और पहाड़ों को भी इस ढांचे के दायरे में लाना महत्वपूर्ण कदम हो सकता है. स्पेशल फोर्सेस का व्यापक इस्तेमाल किया जाना चाहिए. मानव आधारित खुफिया तंत्र को और मजबूत करने की ज़रूरत है. ग्रामीण रक्षा समितियों को ताकतवर और आधुनिक बनाने की भी ज़रूरत है. अब तक जो होता रहा है उससे अलग हट कर सेना, सीएपीएफ, और जेके पुलिस के बीच बेहतर तालमेल के लिए एक वास्तविक तथा विश्वसनीय एकीकृत ऑपरेशनल कमांड की स्थापना एक व्यावहारिक कदम होगा. लगातार सामरिक चूकों के कारण सैनिक तथा आतंकवादी की मौत के अनुपात का सबसे बुरे स्तर पर पहुंचना मनोबल को कुप्रभावित करता है. इसलिए सेना, सीएपीएफ और जेके पुलिस को बुनियादी बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. भारत को घुसपैठ रोकने और आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में टेक्नोलॉजी का पूरा इस्तेमाल करना चाहिए, खासकर ड्रोनों का.

तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण आयाम है राजनीतिक रणनीति. लोगों के दिल और दिमाग को जीतने की सच्ची कोशिश की जानी चाहिए. जम्मू-कश्मीर को वापस पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए और वहां जल्द-से-जल्द चुनाव करवाए जाएं. जब 1996, 2002 और 2008 में अलगाववाद जब अपने चरम पर था तब चुनाव करवाए गए थे तो आज भी करवाए जा सकते हैं. जब कोई विकल्प नहीं खोजा जा सका है तब काफी निंदित प्रमुख राजनीतिक दलों को साथ लेने की जरूरत है, वरना राजनीतिक दायरे पर कट्टरपंथियों का कब्जा हो सकता है. कोई सेवारत डीजीपी कश्मीर में मुख्यधारा के राजनीतिक नेताओं को “आतंकवादी नेटवर्क के नेता” कहे तो इससे बेढंगी बात दूसरी कोई हो नहीं सकती.

मुझे इस बात में संदेह नहीं है कि अगले छह महीने में अलगावाद पर लगाम लगाया जा सकेगा और इसके बाद भी उसे सीमित स्तर से बढ़ने नहीं दिया जाएगा, लेकिन कोई राष्ट्र केवल ज़मीन-जायदाद पर नियंत्रण रखकर नहीं बनता, वो उसकी जनता की सामूहिक भावना से बनता है. राजनीतिक समाधान ही स्थायी समाधान हो सकता है.

(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर) ने भारतीय सेना में 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और मध्य कमान के जीओसी इन सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य रहे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ें: विकसित सेना के बिना विकसित भारत की कल्पना बेमानी, भाजपा-कांग्रेस के घोषणापत्र इस पर खामोश


 

share & View comments