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Tuesday, 5 November, 2024
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2019 का चुनाव सिर्फ मोदी को लेकर है, और भाजपा, संघ या विपक्ष तक चर्चा से बाहर हैं

ऐसा लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए मुख्य मुद्दा नरेंद्र मोदी बनाम अराजकता का है. पार्टी काफी अाक्रामक रूप से इस मुद्दे को आगे बढ़ा रही है.

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बेशक, 2019 का लोकसभा चुनाव सिर्फ नरेंद्र मोदी को लेकर है– ना कि भाजपा, या संघ परिवार, या फिर पांच वर्षों के (कु) शासन के बारे में.

ऐसा लगता है कि भाजपा के लिए मुख्य मुद्दा नरेंद्र मोदी बनाम अराजकता का है. पार्टी अाक्रामक रूप से इस मुद्दे को आगे बढ़ा रही है. गौशाला, अयोध्या, विकास और अर्थव्यवस्था के मुद्दे फिलहाल टाल दिए गए हैं. गौर करें कि कैसे पुलवामा और बालाकोट से संबंधित अतिराष्ट्रवादी बयानबाज़ी मीडिया की बहसों पर हावी हो चुकी है. मोदी ‘विजयी’ रहे हैं और यही अब एकमात्र महत्वपूर्ण मुद्दा है.

देशभर में अपनी अगली 150 रैलियों में प्रधानमंत्री मोदी जवाहरलाल नेहरू को मुख्य खलनायक और कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी को एक महत्वहीन कांग्रेसी के रूप में चित्रित करेंगे. वह ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ की चर्चा जारी रखेंगे. मोदी इन दिनों गांधी जी का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वह 1947 में ही कांग्रेस पार्टी को भंग होते देखना चाहते थे. मोदी उन मुद्दों में से किसी पर भी बात नहीं करते जिन पर कि उन्होंने पांच साल पहले अपना चुनाव अभियान चलाया था. चुनाव
अभियान में किसी अन्य मंत्री या नेता की मोदी जितनी चर्चा नहीं हो रही. एजेंडा अब ‘एक राष्ट्र, एक नेता’ का है और इस बारे में धारणा बनाने की लड़ाई शुरू हो चुकी है.


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शीर्ष एजेंडे में बदलाव

मोदी ने 2014 के अभियान में एक तरह से हर चीज़ का वादा किया था. रुपये को मज़बूत करने और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें कम करने से लेकर, लाखों की संख्या में रोज़गार पैदा करने तक – और खातों में 15 लाख रुपये डालने की बात कैसे भूल सकते – उन्होंने सारे वायदे गिनाए थे. परंतु ये सब हुआ नहीं. यहां तक कि गाय भी सुर्खियों से गायब हो चुकी हैं, और अब सड़कों पर घूम रही हैं या उन्हें सुरक्षित रखने के लिए बनाई गई गौशालाओं में दम तोड़ रही हैं. विदेशी बैंकों में जमा करोड़ों रुपये वापस लाने की कोई चर्चा नहीं हो रही. ना ही काला धन मुद्दा रह गया है.

निर्माण क्षेत्र में मंदी छाई है, निर्यात बढ़ नहीं रहे, लघु और मध्यम उद्योग बंद हो रहे हैं, निवेश कम हो रहा है, विदेशी पूंजी आ नहीं रही, और बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है. हालांकि, मध्य और उच्च मध्य वर्ग फल-फूल रहा है, भले ही देश एक गंभीर कृषि संकट से जूझ रहा हो. पांच साल पहले, हमसे कहा गया था कि मोदी सरकार के दौर में विदेश नीति भारत के पड़ोसी अनुकूल नए दृष्टिकोण से निर्धारित होगी. इसी के तहत प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के उदय का स्वागत करने के लिए पड़ोसी राष्ट्रों के नेता भी एकत्रित हुए थे.

लेकिन वो नई सुबह नहीं आ सकी क्योंकि आपसी रिश्ते ख़त्म हो गए, और युद्ध के बादल (नकली और असली दोनों ही) मंडराने लगे. चीन ने, कथित वुहान भावना विकसित होने के बावजूद, मसूद अज़हर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादियों की सूची में डालने के मुद्दे पर पाकिस्तान का साथ दिया. नेपाल और मालदीव ने भारत से दूरी बना ली. स्पष्ट है कि हमारी विदेश नीति को उपेक्षित छोड़ दिया गया है. हमारे आस-पड़ोस में अव्यवस्था का आलम है.

धारणाओं की लड़ाई

अब, यह चुनाव धारणाओं की बुनियाद पर लड़ा जाएगा. नया बौद्धिक मंत्र है: धारणा ही नई वास्तविकता है. जनता को प्रभावित करने के लिए पार्टियों और नेताओं को कथानक पर नियंत्रण रखना होगा, उसमें अपने हिसाब से जोड़तोड़ करनी होगी. वे उपलब्धियों संबंधी अपने दावों की चर्चा करेंगे, ना कि असल उपलब्धियों की. संभव है यह ज़मीनी स्थिति से बिल्कुल इतर हो, परंतु वास्तविकता को भुलाया जा सकता है.

दरअसल, बालाकोट में भारतीय वायुसेना के हमले के कुछ दिन पहले ही आर्थिक विशेषज्ञ स्वामीनाथ एस. अंकलेसरिया अय्यर ने अपने कॉलम में लिखा था कि मोदी को ‘राजनीतिक रंगमंच पर ही केंद्रित रहना चाहिए, यह पाकिस्तान से युद्ध के ज़ोखिम के मुकाबले कहीं अधिक सुरक्षित है.’ अय्यर ने यह भी टिप्पणी की थी कि 2016 का सर्जिकल स्ट्राइक असल से ज़्यादा मीडिया और सोशल मीडिया में सफल रहा था. ऐसा लगता है कि मोदी ने अय्यर की सलाह का अक्षरश: पालन किया और हवाई हमले को राष्ट्रवाद के लिए एक निर्णायक क्षण बना दिया.

इस तरह बाकी मुद्दों को पीछे छोड़ते हुए राष्ट्रवाद इस चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बन गया. राष्ट्रवाद को लेकर मीडिया का उन्माद हमें यकीन दिलाने की कोशिश करेगा कि किसान और बेरोज़गार युवा भी अब कर्ज़माफी और रोज़गार से ज़्यादा पाकिस्तान के विनाश को लेकर चिंतित हैं. टीवी की बहसों की मानें तो मोदी में जीतने का दृढ़भाव (किलर इंस्टिंक्ट) है, जो कि मनमोहन सिंह में नदारद था. स्मार्टफोन पर खेले जाने वाले गेम की तरह, आप मानसिक संतुष्टि और उन्माद के खातिर पाकिस्तान को तबाह कर दिए जाने की आभासी वास्तविकता निर्मित कर सकते हैं.

गायब ‘अहम’ मुद्दे

तो क्या विपक्ष ने असल मुद्दों को उठाने की पहल की है?

जलवायु परिवर्तन का संकट चुनावी घोषणा पत्रों का हिस्सा नहीं बनता. देश में सूखे की स्थिति बदतर हो चुकी है और उस पर गर्मियों का मौसम सिर पर है. पंजाब, कर्नाटक और पंजाब में किसानों की आत्महत्याएं बढ़ी हैं. जानकारों की मानें तो कृषि का संकट जलवायु परिवर्तन से सीधे जुड़ा हुआ है. ग्रामीण क्षेत्रों का संकट उसी का नतीजा है. चुनावों से पहले शिक्षा की भी बात नहीं हो रही है. जहां हर कोई बेरोज़गारी और कौशल विकास की चर्चा करता है, शिक्षा किसी के चुनाव अभियान का हिस्सा नहीं बनता. संभव है कुछेक घोषणा पत्रों में इसका ज़िक्र हो जाए. देशभर में सैंकड़ों मेडिकल कॉलेज और आईआईटी खोले जाने के वादे का क्या हुआ?

प्राथमिक शिक्षा की स्थिति भी डांवाडोल बनी हुई है क्योंकि ग्रामीण भारत में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों का अनुपात अब भी ऊंचा है. अब चुनाव अभियानों में विदेश नीति के मुद्दों को उठाने का चलन नहीं रहा. नेहरू- कृष्णा मेनन दौर में, जब कांग्रेस नेतृत्व के समक्ष राजनीतिक चुनौतियां लगभग नदारद थीं, राजनीतिक बहसों में विदेश नीति पर चर्चाएं हुआ करती थीं. अब मोदी के अनुसार भारत दुनिया के सर्वाधिक प्रभावशाली देशों में से है. पर, न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता पर अब भी विवाद बना हुआ है. चीन हर उस मुद्दे पर अड़ंगा लगा सकता है जिन्हें कि भारत उठाने की सोचे – डोकलाम से लेकर मसूद अज़हर तक.


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चुनावी बिगुल

कुछ ही दिनों के भीतर चुनाव का उन्माद सिर चढ़कर बोल रहा होगा और टीवी मीडिया काबू से बाहर हो जाएगा. नरेंद्र मोदी सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान दिखेंगे. राहुल गांधी मुकाबला तो करेंगे, पर मीडिया की मदद और समर्थन के बिना. इस कोलाहलपूर्ण चुनाव अभियान में प्रियंका गांधी उनके साथ होंगी. लेकिन अंतत:, एकमात्र मुद्दा नरेंद्र मोदी ही होंगे. संघ खुद को अलग-थलग और हाशिये पर महसूस कर रहा है. मोदी चतुराई से हिंदुत्व और गाय जैसे मुद्दों को दूर रख रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि इन मुद्दों को उठाने पर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की उनसे सहानुभूति नहीं रह जाएगी.

अंतर्राष्ट्रीय प्रेस ने तो पाकिस्तान पर हवाई हमले तक की उपेक्षा की है. मोदी जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया को उनके समर्थक नेटवर्क में नहीं लाया जा सकता. 1971 के ‘इंदिरा हटाओ’ वाले दौर में भी मीडिया का ऐसा उन्माद देखने को नहीं मिलता था. शायद इसकी वज़ह थी उन दिनों मीडिया का इस कदर विस्तार नहीं होना. जो भी हो, 2019 के चुनाव के लिए मोदी का अभियान वास्तविक मुद्दों के बजाय धारणाओं के प्रबंधन के इर्द-गिर्द बुना जा रहा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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