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Thursday, 18 April, 2024
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तेजस्वी यादव को उनकी डिग्री से नहीं, उनके काम से पहचानिए

यह कबीर का देश है, विधिवत ढंग से पढ़े-लिखे व्यक्ति में भी अपेक्षित विवेक का अभाव हो सकता है, और एक गांव के अनपढ़ किसान में भी आपको कृषि की समझ के साथ-साथ प्रज्ञा का दर्शन हो सकता है.

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भारत कबीर का देश है, जहां जीवन के अनुभवों की सदाक़त की अपनी अहमियत है. यहां औपचारिक रूप से विद्यालय-महाविद्यालय-विश्वविद्यालय में शिक्षित-दीक्षित लोग ही दर्शन और चिंतन में पारंगत नहीं होते, बल्कि वे अलग-अलग क्षेत्रों में अपने पुरुषार्थ, अध्यवसाय व हुनर से अपनी विशिष्ट जगह बनाते रहे हैं. जेएनयू में राजनीति विज्ञान के अध्यापक प्रो. मणीन्द्र नाथ ठाकुर ने अपनी हालिया किताब ज्ञान की राजनीति, समाज अध्ययन और भारतीय चिंतन में बड़ी समग्रता में आदमी के मानस व उसकी पूरी निर्मिति को उसकी संपूर्णता में देखने की कोशिश की है.

विधिवत ढंग से पढ़े-लिखे व्यक्ति में भी अपेक्षित विवेक का अभाव हो सकता है, और एक गांव के अनपढ़ किसान में भी आपको कृषि की समझ के साथ-साथ प्रज्ञा का दर्शन हो सकता है. मानव सभ्यता इसी ख़ूबसूरती के साथ आगे बढ़ी है. मार्टिन लूथर कहते थे, ‘कोई भी जाति तब तक तरक्की नहीं कर सकती जब तक वह इस बात को न मान ले कि खेत खोदने के काम में भी उतनी ही प्रतिष्ठा है जितनी एक कविता लिखने में.’

पर, कई बार लोग भूल जाते हैं कि कबीर की रिवायत के इस मुल्क में लोक ज्ञान, लोक बुद्धि, लोक रीति व लोक नीति राजनीति में बहुत मायने रखती है. वह कहते थे, ‘तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन की देखी.’ 9 साल तक तमिलनाडु के मुख्यमंत्री व 1963 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने कुमारस्वामी कामराज बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, पर उन्होंने अपने सूबे व राष्ट्रीय पार्टी को बहुत शानदार तरीके से चलाया. सांगठनिक मज़बूती के लिहाज से उनके ‘कामराज प्लान’ को आज भी याद किया जाता है.

1962 में चीन से युद्ध के बाद अलोकप्रियता की शिकार हो रही कांग्रेस को ऑक्सीजन देने के लिए उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़कर प्रदेश में संगठन संभालने की पेशकश की. 6 मुख्यमंत्री और 6 कैबिनेट मंत्रियों का इस्तीफ़ा हुआ. उनके अलावा बीजू पटनायक, जगजीवनराम, लालबहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई, आदि ने त्यागपत्र दिया था. कामराज द्वारा सुझाये फॉर्मूले के तहत बुज़ुर्गों को संगठन व युवाओं को सरकार में तरजीह के साथ एक समन्वय पर चलने के मशवरे को नेहरू ने स्वीकृति दी. शास्त्री व इंदिरा के वक़्त कामराज किंगमेकर रहे.

यह वाक़या इसलिए याद कर रहा हूं कि पिछले दिनों एक राजनीतिक प्रबंधक ने बिहार की राजनीति को पिछले 7 वर्षों से प्रभावित करने वाले व देश की राजनीति में एक नई उम्मीद की तरह उभरे तेजस्वी यादव की शिक्षा पर सवाल खड़ा किया, एवं अमर्यादित टिप्पणी की. 2017 में वरिष्ठ समाजवादी नेता शरद यादव से जब एक पत्रकार ने पूछा कि आप इतने सीनियर लीडर हैं, तो बेहद कम उम्र के तेजस्वी यादव के नेतृत्व में काम करने में असहज महसूस नहीं करेंगे? तो शरद यादव ने हाजिर जवाबी से कहा, ‘विवेकानंद की कित्ती उमर थी?’

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लालू प्रसाद, राबड़ी देवी व नीतीश कुमार के शासनकाल के बाद बदले हालात में बिहार में समाजवादी परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए एक संयत स्वभाव के प्रखर व समदर्शी नेतृत्व की ज़रूरत थी जिसमें भविष्य की चुनौतियों का धैर्यपूर्वक सामना करने की सम्यक दृष्टि के साथ-साथ विपुल ऊर्जा, उमंग व स्वेच्छा से सियासत करने की सलाहियत भी हो. कुछेक वर्षों के लोक जीवन में तेजस्वी के समझदारी से भरे गरिमापूर्ण आचरण को देखते हुए लालू प्रसाद व दल के बाक़ी नेताओं ने उनमें बड़ी संभावना देखी व 2015 में उन्हें उपमुख्यमंत्री पद, पीडब्ल्यूडी और पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग कल्याण जैसे अहम विभाग की ज़िम्मेदारी गठबंधन सरकार में सौंपी गई. और, अक्टूबर 2022 में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में हुए पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में दल से संबंधित नीतिगत फ़ैसले के लिए संविधान संशोधन कर लालू प्रसाद के साथ उन्हें अधिकृत कर दिया गया.

बिहार की 11 करोड़ जनता ने तेजस्वी को एक संभावनाशील व सहज स्वीकार्य नेता के रूप में स्वीकार कर लिया है जिन्होंने बिना किसी लकीर को मिटाये हुए एक स्पष्ट बड़ी लकीर खींची है. उनकी कार्यशैली में लेकिन-हालांकि-किंतु-परंतु-यद्यपि-तथापि जैसी गाभिन बातों के लिए कोई जगह नहीं दिखती. और, शायद इसी प्रखरता व स्पष्टवादिता, साथ ही शालीनता व सौम्यता के चलते उनकी स्वीकार्यता 10 साल के लड़के से लेकर 18 साल के किशोर तक, 18 साल से लेकर 40 साल के नौजवान तक, 40-60 साल के प्रौढ़ से लेकर बुज़ुर्ग तक तेजी से बढ़ी है.

तेजस्वी प्रसाद के इस व्यक्तित्व का निर्माण अचानक नहीं हुआ. अगर हम उनके शुरुआती जीवन से अब तक के सफ़र पर गौर करें तो एक तारतम्यता दिखाई पड़ती है. उनमें एक क़िस्म की विकासशीलता है. वे एक शानदार और समर्पित लर्नर हैं. क्रिकेट को पहली मोहब्बत बना लेने के बाद दिल्ली के डीपीएस, आरकेपुरम व वसंत विहार से 9वीं के बाद माध्यमिक पढ़ाई को बीच में ही उन्हें छोड़ना पड़ा. कई बार लोग उन्हें इस ग्राउंड पर घेरते हैं कि उन्होंने शिक्षा पूरी नहीं की.

गौरतलब है कि हार्दिक पांड्या और जसप्रीत बुमराह, दोनों केवल 9वीं तक पढ़े हैं. अगर क्रिकेट खेलने की वजह से ये अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए हों, तो कोई बात नहीं, मगर तेजस्वी यादव क्रिकेट खेले और उस प्राथमिकता की वजह से अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ें तो मीडिया से लेकर अकैडमिया के लोग अलबल बोलना शुरू कर देते हैं. यही तो रूढ़िवाद है. सचिन, युवराज, विराट, आदि जैसे बड़े खिलाड़ी ने बमुश्किल 12वीं तक की पढ़ाई की. खेलने के लिए पीएचडी की ज़रूरत तो होती नहीं, न ही राजनीति के लिए उसकी कोई अनिवार्यता है.

सचिन राज्यसभा के लिए मनोनीत किये गये. कहीं उनकी औपचारिक शिक्षा पर मीडिया में बहस नहीं हुई. बिहार क्रिकेट एसोसिएशन को मान्यता नहीं थी, जिसके चलते तेजस्वी को बार-बार झारखंड व दिल्ली का चक्कर लगाना पड़ता था. इसलिए भी उनकी पढ़ाई में बाधा पहुंची. तेजस्वी कहते हैं, ‘मेरे अभिभावक ने कभी मुझे कोई चीज़ करने के लिए मजबूर नहीं किया, चाहे वो पढ़ाई हो या क्रिकेट. उन्होंने मुझे हमेशा सलाह दी है, जो करो मन से करो, दिल लगा के करो. मैं अंडर 15 टीम का दिल्ली का और अंडर 17 नेशनल टीम का कप्तान रहा हूं. मैं अंडर 19 में भी उस टीम का हिस्सा रहा हूं, जिसके कप्तान विराट कोहली हुआ करते थे’.

न्यूज़ 24 के साथ एक बातचीत में 2018 में तेजस्वी यादव ने बताया कि वे विराट कोहली व ईशांत शर्मा के साथ प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेले हैं, और ये लोग उनकी कप्तानी में भी खेले हैं. जो टूर्नामेंट 35 साल में दिल्ली नहीं जीती, उसे तेजस्वी ने अपनी कप्तानी में जिताया. 2018 की भारतीय क्रिकेट टीम में 15 में से 12 क्रिकेटर तेजस्वी के बैचमेट रहे. वे आईपीएल के पहले 4 संस्करणों में दिल्ली डेयरडेविल टीम के सदस्य रहे हैं, लेकिन उन्हें एक भी मैच खेलने का मौक़ा नहीं मिला. उन्हेंने दो रणजी मैच भी खेले हैं, लेकिन दोनों पैरों के टखने का लिगामेंट टूटने की वजह से उन्हें क्रिकेट जीवन को अलविदा कहना पड़ा.

मार्क ट्वेन ने ठीक ही कहा था, ‘I never let my colleges and universities interfere with my education.’ अर्थात्, मैंने कभी अपने महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों को अपनी शिक्षा के साथ दखलंदाज़ी करने नहीं दी.

अब सवाल है कि तेजस्वी ने कब, कैसे और कहां से सियासत में पहला क़दम रखा कि किसी को ख़बर भी नहीं हुई और वे धीरे-धीरे लोगों के बीच मक़बूल व मशहूर होते चले गए. वह वक़्त है 2010 का है. वे रांची से रणजी खेल कर आए थे. सितम्बर में लालू प्रसाद की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस थी. तेजस्वी बिना किसी सुनियोजित कार्यक्रम के यूं ही साथ में थे. लालू प्रसाद ने बस इतना कहा, मेरा बेटा है. बस अगले दिन अख़बारात की सुर्खियां थीं – तेजस्वी हुए लॉन्च.

लेकिन बात आई-गई हो गई. बिना किसी शोर-शराबे के, बिना कोई पद ग्रहण किए तेजस्वी युवाओं के बीच काम करते रहे. अक्टूबर में उन्होंने 40 के आसपास छोटी-छोटी सभाएं कीं. 2012 में पटना में ‘इंटरेक्शन विद यूथ’ नामक एक कार्यक्रम में तेजस्वी ने शिरकत की. धीरे-धीरे वे लोगों से मिलने लगे. राजनीतिक माहौल में वे पले-बढ़े थे, पिता को साज़िशन जेल भेजे जाने के तिकड़म से कच्ची उम्र में दो-चार हुए. तो कुल मिला कर वक़्त ने उन्हें समय से पहले पका दिया.


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उन्होंने पार्टी के यूथ विंग के साथ सूबे के अलग-अलग हिस्से की की यात्राएं कीं. 2013 में जाकर ज़िलावार युवा सम्मेलन टाउन हॉल में करना शुरू किया. दिल्ली में उनके कहने पर नौकरी छोड़ कर तेजस्वी यादव के साथ ही बिहार में डेरा डाल चुके संजय यादव उनके कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करते. इस तरह पब्लिक स्फ़ेयर में हौले-हौले तेजस्वी की आहट सुनाई पड़ने लगी. यह एक शालीन, मगर ठोस शुरुआत थी.

जनता के नब्ज़ को पकड़ने व उसकी ज़रूरतों को समझने का इससे बेहतर और कोई असरदार तरीक़ा नहीं हो सकता था. 2014 का आम चुनाव आते-आते रघुवंश प्रसाद समेत पार्टी के कई वरिष्ठ नोताओं ने जनाकांक्षाओं को देखते हुए अपने क्षेत्र में तेजस्वी की सभाओं की मांग करने लगे कि लोग उनको देखना-सुनना चाहते हैं. और फिर 2015 के विधानसभा चुनाव में वे वैशाली ज़िले की राघोपुर सीट से उतरे और जीत कर सरकार का हिस्सा बने.

20 महीने में उन्होंने 5000 किलोमीटर सड़कें बनवाईं. ग़लतफ़हमियों के चलते जब महागठबंधन की सरकार गई, तो 2017 में बतौर नेता प्रतिपक्ष उन्होंने अपनी तक़रीर से पूरे देश का ध्यान खींचा. और, 2020 के चुनाव में जनोन्मुखी एजेंडा पेश कर भाजपा को रोज़गार पर बात करने को विवश कर दिया. पढ़ाई, दवाई, सिंचाई, कमाई, सुनवाई व कार्रवाई जैसे जनसरोकार के मुद्दों को चुनावी विमर्श का हिस्सा बनाने के उनके तेवर को बिहारियों ने जाति-बिरादरी से ऊपर उठकर न सिर्फ़ पसंद किया, बल्कि उन पर मुहर भी लगाई. तब से तेजस्वी यादव का देश की राजनीति में अपना अलग आभामंडल दिखा. उन्होंने हर 10 वर्ष में होने वाली जनगणना को जातिवार कराने की मांग पुरज़ोर तरीक़े से उठाई व हर राजनीतिक दल को इस पर स्टैंड लेने के लिए बाध्य किया.

बीच-बीच में उन्मादी बयान फ्रिंज करार दे दिये जाने वाले तत्व की ओर से आते रहते हैं. जनसंख्या नियंत्रण क़ानून की बात छेड़ कर अल्पसंख्यक समुदाय को चिढ़ाया जाता रहा. इस पर तेजस्वी यादव ने सदन में पिता की तरह ही दहाड़ते हुए कहा, ‘किसी माई के लाल में दम नहीं है जो मुसलमान भाइयों से उनका वोटिंग राइट छीन ले’. ऐसा कोई संसदीय या जनभाषण नहीं होगा, जिसमें लालू प्रसाद ने समाजवाद, सामाजिक न्याय व धर्मनिरपेक्षता के बारे में जनता को न समझाया हो. आज देश में कुछ बिचौलिए क़िस्म के लोग प्रबंधन के ज़रिए लोकतंत्र को साधना चाहते हैं. चंद उद्योगपतियों ने इस देश के अधिकतम संसाधन पर कब्जा जमा कर बैठा है, और साधारण जनता परेशान है.

देश को हर मुसीबत में परिवर्तन के पहिये के लिए जमीन मुहैया कराने वाला बिहार आज फिर से एक संदेश दे रहा है. मौजूदा सरकार के अधिनायकवादी चरित्र व दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रसार में जुटे लोगों की छिछली अवसरवादिता ने सीबीआई-ईडी-इनकम टैक्स डिपार्टमेंट रूपी नये हथियार के ज़रिए ब्लैकमेल की राजनीति को चलन में लाने की कोशिश की है. उसे परास्त करने के लिए संभव एकता के सिद्धांत को स्वीकार करना होगा. जब कोई बुराई संस्थागत रूप धारण कर ले, तो उसे मिटाने के लिए सिस्टम को ठीक करने की आवश्यकता होती है, जिस व्यवस्था परिवर्तन की बात जेपी किया करते थे. आर. जी. इगरसोल कहते थे, ‘स्वतंत्रता सतत सतर्कता की मांग करती है’.

आंतरिक व बाह्य संकट से जूझने व निपटने के लिए आपको हमेशा सजग व चौकस रहना पड़ता है. राजनीति युग धर्म, काल धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म, मानवता धर्म को एक साथ समेटे चलती है. इतिहासकार प्रो. राकेश बटबयाल अपने आलेख ‘नेहरू: द होम मेकर’ में कहते हैं, ‘घर जटिल रिश्तों की बुनावट है जो दोस्त, परिवार व परिजन को साथ बांधे रखता है. यह एक ऐसी जगह है जहां इंसान सामान्यत: बाहरी ख़तरे व आंतरिक अनिश्चितताओं से सुरक्षित रहता है. फिर भी, घर बनाना और कभी-कभी उसे ख़ुद घर से बचाना एक कठिन व संतापी कार्य है’. हम सबको इस देश रूपी घर को बचाने एवं संवारने के काम में लगना होगा.

यह बिल्कुल सच है कि प्रचार तंत्र की ताक़त से लोगों को बहुत दिन तक बहलाकर उनके असली मुद्दे से ध्यान नहीं भटकाया जा सकता. उन्हें रैली नहीं, रोटी चाहिए. इसीलिए उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव दवाई-पढ़ाई-लिखाई-सिंचाई-सुनवाई-कार्रवाई का आह्वान करते हैं, और उस पर काम करना शुरू कर दिया है. जैसे जननायक कर्पूरी ठाकुर ने इंजीनियरिंग किये युवाओं को बुला कर एक साथ नियुक्ति पत्र बांटा, वैसे ही तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार के साथ एकमुश्त 9,476 स्वास्थ्यकर्मियों को नियुक्ति पत्र थमाया. सरकार में आते ही बेगूसराय व बक्सर को मेडिकल कॉलेज दिया है.

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अंतिम व्यक्ति व अन्त्योदय की प्रेरणा, संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव आंबेडडकर के जातिविहीन समाज की स्थापना के संकल्प, डॉ. लोहिया की सप्तक्रांति व विशेष अवसर के सिद्धांत एवं लोकनायक जयप्रकाश नारायण की व्यवस्था परिवर्तन के सूत्र को राष्ट्रीय जनता दल लेकर चल रहा है.

अपने जन्मदिन पर भी पंचायतीराज और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के कर्मियों को नियुक्ति पत्र बांटा है. वे लोहिया के इस सूत्र को पकड़े हैं, ‘प्रकृति का नियम जो भी हो, मनुष्य का नियम होना चाहिए समता’. आगे भी तेजस्वी यादव इसी संज़ीदगी व कुशलता से ग़रीबों, ज़रूरतमंदों व मजलूमों की राह के कांटे चुनते जाएं, अतीत से सीख लेते हुए वर्तमान के संघर्ष से उजालों के सफ़र की ओर नवऊर्जा के साथ सामाजिक न्याय व सांप्रदायिक सद्भाव के स्पष्ट दर्शन में ठोस आर्थिक एजेंडे की रूपरेखा तय करते हुए लैंगिक न्याय व जलवायु न्याय (क्लाइमेट जस्टिस) को केंद्र में रख कर आगे बढ़ें, और आने वाली पीढ़ी के मार्ग को सुगम बनाएं, ऐसी जनता की अपेक्षा है.

(संपादन: इन्द्रजीत)

(लेखक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, दिल्ली में शोधार्थी हैं, और इस समय राष्ट्रीय जनता दल की बिहार इकाई की प्रदेश कार्यकारिणी के सदस्य हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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