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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतगुजरात को मिले हिंदुत्व के दो चेहरे लेकिन उसके राजनीतिक विरोध का एकमात्र चेहरा हैं राहुल गांधी

गुजरात को मिले हिंदुत्व के दो चेहरे लेकिन उसके राजनीतिक विरोध का एकमात्र चेहरा हैं राहुल गांधी

प्रशांत भूषण के साथ पदयात्रा करते हुए राहुल गांधी ने हिंदुत्व की दासियों को काफी आसानी से और निश्चित ही समय से काफी पहले माफ कर दिया होगा.

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सिविल सोसाइटी के महान एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण ने राहुल गांधी के साथ भारत जोड़ो पदयात्रा करते हुए जिस दिन तेलंगाना में कदम रखा, उसी दिन उपचुनाव के नतीजे घोषित हुए और कांग्रेस पार्टी वहां तीसरे नंबर पर आई. इस राज्य का गठन कांग्रेस ने ही पूर्व यूपीए सरकार के दौर में किया था. लोकप्रिय क्षेत्रीय पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति, जिसे अब भारत राष्ट्र समिति के नाम से जाना जाता है, भाजपा के राष्ट्रीय वर्चस्व पर हावी हो गई है.

उस दिन की यात्रा में उभरी एकजुटता की तस्वीर में जो चीज गायब थी वह थी ऊर्जावान भूषण और उनके सहयोगियों द्वारा पैदा की गई गति, जिसके कारण कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए में चुनावी भरोसा खत्म हो गया था. हम सब जानते हैं कि राहुल क्षमा करने में विश्वास करते हैं और भूषण शायद प्रायश्चित ही कर रहे होंगे. ‘राजनीतिक प्रायश्चित या माफी पर यकीन न करने वाली एक प्रेक्षक के रूप में मैं इस नाकाबिले यकीन तस्वीर को देखकर परेशान ही हो सकती हूं.


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कांग्रेस, भाजपा और अन्य

उधर, तेलंगाना से पश्चिम में स्थित गुजरात में एक कहीं अधिक महत्वपूर्ण संघर्ष बदनीयती के साथ चलाया जा रहा है. वहां अभी-अभी विधानसभा चुनाव के तारीखों की घोषणा की गई है. गुजरात वह पहला राज्य है जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हिंदुत्ववादी एजेंडा को एक ब्रांड में ढाला. वह सत्ताधारी पार्टी के लिए इज्जत का सबसे बड़ा मामला बन गया है.

2017 में कांग्रेस वहां पूरा ज़ोर लगाकर लड़ी थी और अपनी सरकार बनाने के कगार तक पहुंच गई थी. आज वहां, भूषण के कभी आश्रित रहे अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी (‘आप’) ने बेलगाम महत्वाकांक्षा और बेमानी दावों के साथ एक नये दावेदार के रूप में कदम रख दिया है.

मतदाताओं के बीच किए गए पहले सर्वेक्षणों ने तिकोने मुकाबले की भविष्यवाणी की है. शुरुआती जनमत सर्वेक्षणों का अनुमान है कि केजरीवाल और ‘आप’ को कांग्रेस के बराबर करीब 21 फीसदी वोट मिलेंगे. अब तक गुजरात में दो घोड़ों की घुड़दौड़ हुआ करती थी मगर इस बार के जाड़े में वह तिकोने संघर्ष में बदल जाएगी. ऐसे ब्योरे मिलते हैं कि हरेक राज्य या क्षेत्र में तीसरा गुट नतीजे को पलट देता है. इसलिए भाजपा, कांग्रेस और अन्य की तिकड़ी जैसी चीज पूरे देश में दोहराई जा सकती है. यह ‘आप’ ही है जो खुद को अपने क्षेत्र या दिल्ली नामक नगर-राज्य से आगे पैर फैलाने की कोशिश कर रही है, जहां से वह सबसे पहले उभरी थी.

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गुजरात में वह जीते, हारे या खेल बिगाड़े, किसी भी सूरत में खुद को वहां दाखिल करके केजरीवाल खुद को मोदी के खिलाफ विपक्ष के चेहरे के रूप में पेश करने की उम्मीद कर रहे हैं. ‘आप’ में क्षमता की जो कमी है उसे केजरीवाल अपने दुस्साहस से पूरा करने की कोशिश करते रहे हैं. यह दुस्साहस हो सकता है लेकिन यह वैचारिक और राजनीतिक रूप से बेईमानी भरा है. जो भी हो, इसने किसी को चुनाव जीतने से नहीं रोका है.


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मोदी लहर के अलावा भी बहुत कुछ

केजरीवाल ने राजनीतिक सत्तातंत्र का मखौल उड़ाकर और उसे खारिज करके अपने उत्कर्ष का रास्ता बनाया था. 2012 की अपनी किताब और चुनाव घोषणापत्र ‘स्वराज’ में मतदाता को असहाय भुक्तभोगी बताने वाले केजरीवाल ने यहां तक कहा कि ‘समस्या की जड़ यह है कि हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था में हमें वोट देने का मौका पांच साल में एक बार मिलता है और इसके बाद पांच साल तक हम उन्हीं लोगों के सामने गिड़गिड़ाते रहते हैं जिन्हें वोट देकर हमने अपना प्रतिनिधि चुना.’

विद्वान लोग जिसे ‘प्रत्यक्ष लोकतंत्र’ कहते हैं उसकी बात करते हुए केजरीवाल ने वोटर और वोट पाने वालों के बीच की कथित खाई को पाटने के लिए सक्रिय भागीदारी की मांग की.

मीडिया केजरीवाल को पसंद करता था और आज भी करता है. जानकार लोग लगातार व्याख्या कर रहे थे कि भारत के लोकतंत्र में किस तरह एक नया और उम्मीद भरा अध्याय शुरू होने वाला है. सिविल सोसाइटी के एक्टिविस्टों और दूसरे शुभचिंतकों ने तथाकथित पतनोन्मुख मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ लोगों को सक्रिय और आंदोलित करने के लिए अपने सद्गुणों की ताकत का प्रयोग किया. राजनीतिक सत्ता और शासन की किसी भी झलक को भ्रष्टाचार के बराबर बताया गया.

2014 की मोदी लहर से ज्यादा ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ ने, जो बाद में ‘आप’ के अवतार में सामने आया, बेहिसाब आंदोलित दिल्ली और भक्त मीडिया के बूते यूपीए-2 को निष्क्रिय कर दिया. नहीं, यह यूपीए के लिए कोई फ्री पास नहीं था लेकिन केजरीवाल ने राजनीति की भाषा और भारतीय लोकतंत्र के कायदे बदल दिए. मैं तो कहूंगी कि मोदी को बहुत ज्यादा श्रेय दे दिया गया.

तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो भाजपा एक परंपरावादी पार्टी है, जो अपनी पहचान और सत्ता की खातिर एक आक्रामक और अलग एजेंडा चलाती है. इसका सबसे पुराना मूल संगठन आरएसएस अब करीब 100 साल का हो रहा है. और 1980 में अपने गठन के बाद से भाजपा को अपने राजनीतिक उत्कर्ष के लिए लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी. इसे एक सदी की जद्दोजहद भी कह सकते हैं. या कह सकते हैं कि उसे भारत की दिशा बदलने के काबिल बनने में 40 साल तो लगे ही हैं. उसके सबसे सख्त आलोचक को भी मानना पड़ेगा कि भाजपा को हाल में जो वर्चस्व हासिल हुआ है उसके लिए उसने लंबी जद्दोजहद की है.

लेकिन केजरीवाल भारतीय राजनीति के नक्शे पर उभरने के केवल 10 साल के अंदर मोदी को चुनौती देने के लिए गुजरात में मोर्चा खोल रहे हैं.


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हिंदुत्व के दो चेहरे

शुरू से मैं यह मानती रही हूं कि ‘आप’ न केवल लोकलुभावनवादी थी बल्कि भारत के लिए अपने राजनीतिक सपने को लेकर बदनीयत भी थी. अब इसका सबूत अंततः सामने आ गया है. भारतीय रुपये के नोटों पर महात्मा गांधी की जगह लक्ष्मी और गणेश की तस्वीर लगाने की मांग करके ‘आप’ ने साबित कर दिया है कि वह हिंदुत्ववाद का हल्का संस्करण नहीं है. यह केवल रणनीतिक मामला है और यह आपसे ज्यादा भावुकता और वफादारी की मांग नहीं करता.

आखिर, कम-से-कम 1990 के बाद से, भाजपा हिंदुओं से अपना ‘हिंदूपन’ साबित करने के लिए कहती रही है, शुरू में राम मंदिर के नाम पर. और इसके बाद से निष्ठा की परीक्षाएं अंतहीन और थकाऊ होती रही हैं. केजरीवाल ऐसा कुछ नहीं करते. वे जानते हैं कि मतदाताओं को अपने रोज़मर्रा के काम करने हैं, अपने खर्चे जुटाने के लिए काम करने हैं और घरेलू जिम्मेदारियां पूरी करनी हैं इसलिए उन पर बहुत दबाव नहीं डालना चाहिए.

आखिर, वे सच्चे मन से कह सकते हैं कि एक समय वे भी उनके जैसे थे, साधारण या ‘आम’. एक साधारण पारिवारिक आदमी, जिसे न तो अपना घरेलू जीवन छोड़ना पड़ा है और न ही किसी शाखा में जाकर वर्जिश करनी पड़ी है, केजरीवाल ने अपनी छवि अजेय मोदी की छवि के विपरीत बनाई है.

हिंदुत्व और उसके मूल राजनीतिक विरोधी गांधी के बीच जो द्वंद्व है उसे फिलहाल भारत जोड़ो यात्रा के विस्तार और उसकी बढ़ती लोकप्रियता के साथ दिशा मिल रही है. राहुल गांधी भारत के ‘पहले हिंदू’ वाले ‘विजन’ का जवाब देने में जिस तरह नयी और बेहद जरूरी जमीन तोड़ रहे हैं, उसी तरह ‘आप’ और केजरीवाल उस राजनीतिक जमीन में गड्ढे बना रहे हैं.

इसकी वजह यह है कि आज हिंदुत्व को एक नहीं दो राजनीतिक दल हासिल हो गए हैं. सबसे ऊपर, उसे आज एक नहीं बल्कि दो चेहरे मिल गए हैं. गुजरात का चुनाव इस सबको काफी साफ कर देगा. यह हिंदुत्व के विरोधियों को शायद ही या बिल्कुल भी राहत नहीं देगा.

केजरीवाल और उनकी पार्टी इस जाड़े में गुजरात में शायद ही सरकार बनाए. फिर भी, ‘आप’ का प्रवेश यह साबित करता है कि इसकी मौजूदगी हिंदुत्ववाद और भाजपा के खिलाफ वास्तविक विपक्ष को उभरने से रोकने के लिए काफी है. इसकी वजह यह है कि इसने भारत में हिंदुत्ववादी राजनीति का बहुसंख्यकीकरण किया है. लगभग इसी तरह, ‘आप’ ने राजनीति को दिल्ली में सिविक उपभोक्तावाद में सीमित कर दिया है.

भारत के लोगों को अब गुजरात से शुरू करके हिंदुत्व के कई रंग पेश किए जाएंगे. यह हिंदुत्ववाद के वास्तविक राजनीतिक विरोध को और मुश्किल बनाएगा. यह चेहरों की प्रस्तुति को और निर्णायक बना देगा. भारत जोड़ो यात्रा की बढ़ती लोकप्रियता यही साबित करती है कि केवल राहुल गांधी ही हिंदुत्ववाद के विरोध का राजनीतिक चेहरा हैं. फिर भी, कल प्रशांत भूषण के साथ पदयात्रा करते हुए राहुल ने हिंदुत्ववाद की दासियों को शायद काफी आसानी से और निश्चित ही समय से काफी पहले माफ कर दिया होगा.

(श्रुति कपिला कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में इंडियन हिस्ट्री और ग्लोबल पॉलिटिकल थॉट की प्रोफेसर हैं. वह @shrutikapila पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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