पूर्व लोकसभा सदस्य सुष्मिता देव की कांग्रेस से विदाई पर शायद ही किसी को आश्चर्य हुआ होगा. पार्टी छोड़कर जाने वाले युवा नेताओं की बढ़ती सूची में यह जो नया नाम जुड़ा है वह इस स्वीकृत सच्चाई का एक और प्रमाण है कि भारत की ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ तूफान के आगे ताश के पत्तों के महल की तरह ढह और बिखर रही है.
प्रियंका चतुर्वेदी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, प्रद्योत माणिक्य देववर्मा, जितिन प्रसाद के बाद पार्टी छोड़ने वालों में नया नाम सुष्मिता देव का जुड़ गया है. वे ‘बिना कोई सैद्धांतिक समझौता किए’ तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गई हैं. उधर, चिर असंतुष्ट सचिन पाइलट, अनिश्चित दीपेंदर हुड्डा, और रहस्यमय मिलिंद देवड़ा भी हैं, और ये सब इसी धारणा को मजबूत कर रहे हैं कि कांग्रेस भारी संकट में है. इनका कथित असंतोष एक गहरे ढर्रे को उजागर करता है.
ये सब उस नयी टीम के तेज-तर्रार, सुलझे हुए नेता माने जाते थे, जिसे राहुल गांधी तैयार कर रहे थे. लेकिन पार्टी से उनका मोहभंग कांग्रेस के भविष्य के बारे में अलग ही कहानी कहता है, एक युवा कांग्रेस के सपने के टूटने की कहानी.
सब्र और वफादारी जैसे गुणों को राजनीति में बेशक बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व इन महत्वाकांक्षी युवाओं की उम्मीदों और अपेक्षाओं को संतुष्ट करने में जिस तरह अक्षम साबित हो रहा है उसके बारे में भी कुछ कहना पड़ेगा. ये युवा नेता सत्ता से दूर रहकर थक चुके हैं और अपनी उंगलियां चटखाते हुए यही इंतजार कर रहे हैं कि राहुल कब कमान संभालते हैं.
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मुख्य चिंता
असम के लोकप्रिय नेता रहे संतोष मोहन देव की बेटी और राज्य की प्रखर आवाज़ मानी गईं सुष्मिता देव ने उस पार्टी से, जिसके प्रति उनका परिवार काफी वफादार रहा, संबंध क्यों तोड़ा इसको लेकर कई अटकलें लगाई जा रही हैं.
दूसरे कई नेताओं की तरह सुष्मिता भी इंतजार करते-करते सब्र खो चुकी थीं, जबकि उनके राज्य और देश में पार्टी एक के बाद एक चुनाव में बुरा प्रदर्शन कर रही थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में वे नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पर कांग्रेस के रुख के कारण अपने पारिवारिक गढ़ और चुनाव क्षेत्र से हार गईं. बराक घाटी में उनके क्षेत्र में बंगालियों का बहुमत है. इस साल के शुरू में विधानसभा चुनाव में अपने क्षेत्र में उम्मीदवारों के चयन में उनसे सलाह-मशविरा नहीं किया गया, जिससे भी वे नाराज थीं. इसके अलावा, महिला कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल भी समाप्त हो रहा था. इसलिए, कांग्रेस छोड़ने वाले दूसरे नेताओं की तरह उनके सामने भी यही सवाल मुंह बाये खड़ा था कि ‘अब मेरे लिए क्या है?’
यह सवाल उन वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को ज्यादा परेशान नहीं कर सकता है, जो पार्टी के अंदर कथित ‘बागी गुट’ जी-23 के सदस्य माने जाते हैं, क्योंकि सक्रिय राजनीति में उनका समय लगभग पूरा हो चला है.
लेकिन युवा तुर्कों— जिनमें से अधिकतर ‘कांग्रेस परिवार’ से हैं— का पार्टी छोड़ना बड़े संकट का संकेत है. यह पीढ़ी पार्टी का वर्तमान भी है और भविष्य भी. जबकि इस पीढ़ी के प्रमुख चेहरे बाहर निकल चुके हैं, पहले से ही भविष्य को लेकर अनिश्चित कांग्रेस की हालत और बुरी नज़र आती है.
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मोहभंग
इस मोहभंग और पलायन की जड़ में है कांग्रेस के धूमिल भविष्य और पार्टी के कई नेताओं में उपेक्षित किए जाने के एहसास के मद्देनजर अपने भविष्य को लेकर गहरी चिंता.
सिंधिया, सुष्मिता, प्रसाद और दूसरे नेताओं को वरदान के रूप में मिली विरासत के चलते राजनीति में सीढ़ियां चढ़ने में बेशक आसानी हुई; लेकिन राजनीति जितना जनसेवा का काम है उतना चुनाव जीतने और सत्ता हासिल करने का भी है. इन तमाम नेताओं को लगता है कि अगर विपक्ष में ही बने रहना है और अपनी पार्टी में भी कोई सत्ता नहीं मिलनी है तो राजनीति में होने का मतलब क्या है. ‘पलायन’ करने वालों में से कोई भी बोझ नहीं है. वे सब चुनाव में दिलचस्पी रखने वाले स्पष्टवादी नेता हैं और संकट में पड़ी पार्टी के प्रभावशाली तथा महत्वपूर्ण चेहरे हैं.
कांग्रेस के लिए बड़ी समस्या यह नहीं है कि आज वह सत्ता से बाहर है, बल्कि यह है कि वह गहरे से गहरे गर्त में फिसलती जा रही है और उबरने के कोई संकेत नहीं हैं. यह तथ्य पार्टी के युवा, तेज-तर्रार, महत्वाकांक्षी नेताओं को अच्छी तरह पता है.
फिर भी, सुष्मिता का दलबदल अपने कुनबे को संभालने और प्रतिभाओं को अपने साथ बनाए रखने की पार्टी नेतृत्व की अक्षमता को ही उजागर करता है. गांधी परिवार अपनी आत्ममुग्धता के चलते इन पलायनों को अपनी इस धारणा की पुष्टि मानता है कि उन लोगों में नैतिकता की कमी है. इसी वजह से यह परिवार अपने भीतर नहीं झांक पाता और यह विचार नहीं कर पाता कि आखिर गलत क्या हो रहा है.
इन अहम पलायनों के साथ, राहुल की कांग्रेस बनने से पहले ही बिखर रही है. कांग्रेस के पुनर्निर्माण की इस प्रक्रिया में उसके कुछ अहम खंभे लापता हैं. बचे रह गए हैं ‘ओल्ड गार्ड’, जो नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राजनीति का मुक़ाबला करने की क्षमता या रणनीति से वंचित नज़र आते हैं.
जुलाई 2018 में राहुल गांधी ने दिल्ली के हैबीटैट सेंटर में महिला पत्रकारों से विशेष बातचीत की थी. इस बातचीत का संयोजन और संचालन पार्टी की अगली पीढ़ी की तीन महिला सदस्यों— प्रियंका चतुर्वेदी, सुष्मिता देव और दिव्या स्पंदन— ने किया था. आज हकीकत यह है कि तीन साल बाद ये तीनों पार्टी में नहीं हैं, और यह बहुत कुछ कहता है.
फिर भी, कांग्रेस आलाकमान ऐसे काम कर रहा है मानो असली चीज सिर्फ यह है कि पार्टी में हर कोई परिवार के प्रति वफादारी की कसम खा रहा है. कपिल सिब्बल कहते हैं कि पार्टी ने ‘अपनी आंखें पूरी तरह बंद’ कर रखी हैं. दुर्भाग्य से, हालत इससे भी बुरी है. कांग्रेस ‘सोचना क्या, जो भी होगा देखा जाएगा’ वाले खतरनाक और फिसलन भरे सोच की गिरफ्त में फंसी हुई है.
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