कुछ राज्यों में विधानसभा के चुनाव बस होने ही वाले हैं और अब इनको लेकर चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों की पहली खेप सामने आ रही हैं. यों लोगों का मिजाज भांपने के लिहाज़ से चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों का पिछला रिकॉर्ड कुछ खास भरोसा नहीं जगाता तो भी मेरी नज़र इन सर्वेक्षणों पर जमी रहती है- पुरानी आदत जो ठहरी, पिंड छुड़ाये नहीं छूटता! एक वजह और भी है जो मैं इन सर्वेक्षणों पर नज़र दौड़ाता हूं.
मुझे लगता है जनमत सर्वेक्षण चाहे कच्चा (लेकिन फर्ज़ी नहीं) ही क्यों ना हो, वो चौपाल की गप्प-गोष्ठी और न्यूज़रूम में चलने वाली चिल्ल-पों या कयासबाज़ी से बेहतर होता है. कुल मिलाकर रुझान ये दिख रहा है कि: राजस्थान में कांग्रेस बढ़त पर है जबकि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा तेलंगाना में मुकाबला कांटे का रहेगा.
सरसरी तौर पर देखें तो बीजेपी के लिए यह कोई बुरी खबर नहीं. मुझे साफ दिख रहा है कि खबर को फिरकी देकर उसे मनमाफिक टप्पा खिलाने वाले बीजेपी के स्पिन-डॉक्टर्स इसकी व्याख्या में क्या कहेंगे.
वो आपसे कहेंगे: राजस्थान का तो चलन ही यही रहा है कि एक बार इस पार्टी की सरकार बनती है तो अगली बार दूसरी पार्टी की और जहां तक मध्यप्रदेश या फिर छत्तीसगढ़ का सवाल है तो 15 सालों के शासन के बाद पार्टी हार जाय तो इसमें शर्म की कोई बात नहीं. लेकिन बीजेपी के रणनीतिकार जानते हैं कि मामला इतना सीधा-सादा नहीं. बीजेपी के लिए हिंदीपट्टी के इन तीन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करना ज़रूरी है.
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फिलहाल बीजेपी को राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में 65 में 62 सीट हासिल है. यहां 25-30 सीट गंवाना बीजेपी को बहुत महंगा पड़ेगा. राजस्थान के चुनावी अखाड़े में बीजेपी को हारकर धूल चाटनी पड़े और मध्यप्रदेश में हार का फीका स्वाद चखना पड़े या फिर जीत का अंतर बहुत मामूली रहे तो फिर सीटों की संख्याओं का गणित कहता है कि ये खबर बीजेपी के लिए कत्तई अच्छी नहीं.
एक बात यह भी है कि इन राज्यों में हुई हार से इशारा मिलेगा कि हिंदीपट्टी में हवा का रुख किस ओर रहेगा और इसे देखा भी इसी तरह जायेगा. लोकसभा चुनावों के लिए कमर कस रहे पार्टी के कार्यकर्ताओं के मनोबल के ऐतबार से भी यह बुरी खबर कही जायेगी. और जैसे कहते हैं ना कि आफत कभी अकेले नहीं आती उसके सगे-संबंधी भी साथ चले आते हैं उसी तरह बीजेपी के लिए यह बुरी खबर अपने साथ कई और बुरी खबरों को लेकर आयेगी.
फर्ज़ करें कि चुनाव के नतीजे वैसे ही रहते हैं जैसा कि ऊपर ज़िक्र आया है तो फिर होगा ये कि मीडिया पर अभी जो बीजेपी की मज़बूत पकड़ बनी हुई है वो ढीली पड़ जायेगी. एक बार मीडिया के मालिकान नुकसान बचाने के गरज से पलटी मारकर चुनावी मुकाबले का दूसरा पहलू भी सामने लाने लगे तो फिर यकीन जानिए, मौजूदा सरकार ने जो ढेर सारी बुरी खबरें मीडिया की आंखों से बचा रखी हैं वो सब की सब लोगों तक पहुंचने लगेंगी. ठीक इसी कारण हिंदीपट्टी के इन तीन राज्यों के चुनाव अपनी परिणति में व्यापक होने से गहरी छान-बीन के मुस्तहक हैं.
आइए शुरुआत खबरों की सुर्खियों से करते हैं. सर्वे करने वाली हर एजेंसी (सीएसडीएस, सी-वोटर, सीएनएक्स तथा सी-फोर) एक सुर से कह रही है कि बीजेपी राजस्थान में बहुत पीछे है और बुरी तरह पराजित हो सकती है. अनुमान लगाया गया है कि वोट-शेयर के मामले में कांग्रेस को बीजेपी पर 4 से 8 फीसद की बढ़त हासिल होगी. मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ को लेकर सर्वेक्षणों में अलग-अलग तस्वीर बन रही है लेकिन किसी भी सर्वे ने ये नहीं कहा कि बीजेपी को आसान जीत हासिल होगी.
सी-वोटर के मुताबिक बीजेपी मध्यप्रदेश में कांग्रेस से एक फीसद के अंतर से पिछड़ रही है जबकि सीएसडीएस और सीएनएक्स के सर्वे में बीजेपी को कांग्रेस से थोड़ा ही आगे बताया गया है. खास फर्क सिर्फ छत्तीसगढ़ को लेकर है क्योंकि सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक बीजेपी को छत्तीसगढ़ में आसान बढ़त हासिल है जबकि सी-वोटर के सर्वे में कहा गया है कि कांग्रेस बड़े छोड़े से अंतर से आगे है.
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तेलंगाना को लेकर बेहतर सर्वे ज़्यादा नहीं हैं लेकिन सी-वोटर के हाल के एक सर्वे से पता चलता है कि कांग्रेस-टीडीपी-टीजेएस के गठजोड़ से मंजर बदला है और टीआरएस के लिए अब पहले की तरह मुकाबले का मैदान आसान बढ़त वाला नहीं रहा.
आईए, सीएसडीएस-एबीपी के चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण के आंकड़ों का इस्तेमाल करके तनिक बारीकी से देखें कि हिंदीपट्टी के तीन राज्यों में चुनावी मंजर क्या गुल खिलाने वाला है. और हां, इतना ध्यान रखें कि मैं सीएसडीएस से अपने पुराने जुड़ाव के नाते या फिर उसकी चुनावी पूर्वानुमान को बाकियों से बेहतर मानकर ऐसा नहीं कर रहा. बात बस इतनी भर है कि सीएसडीएस की टीम अपनी मेथ्डॉलॉजी (पद्धति) और निष्कर्षों को सार्वजनिक करने के एतबार से ज़्यादा पारदर्शी है.
आप उनके आंकड़ों का इस्तेमाल करके उनके साथ असहमति भी दर्ज करा सकते हैं. एक वजह यह भी है कि इन तीन राज्यों में सीएसडीएस की टीम ने 2013 के तुंरत पहले ऐसा ही सर्वे किया था. उसमें पूछे गये कई सवाल इस बार के सर्वे से मिलते-जुलते हैं और उस पुराने सर्वे के निष्कर्ष सार्वजनिक जनपद में देखने के लिए मौजूद हैं.
बीजेपी के लिए चिंता की तीन वजहें हैं. जैसा कि नीचे तालिका 1 और 2 में दिखाया गया है, चिंता की पहली वजह ये है कि इन तीनों राज्यों में सत्ता-विरोधी लहर कहीं ज़्यादा तेज़ है जबकि मुमकिन है खबरों से ऐसा ना लगे.
राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार से लोग तकरीबन वैसे ही नाराज़ हैं जैसे कि 2013 में गहलोत सरकार से थे. इसके तुरंत बाद गहलोत सरकार बड़ी बेआबरू होकर सत्ता के गलियारे से बाहर कर दी गई थी. जो लोग मौजूदा सरकार को अगली बार के लिए तख्त पर कायम देखना चाहते हैं उनकी तादाद सरकार को बेदखल करना चाह रहे लोगों के मुकाबिल बहुत ज़्यादा है और यह सत्ता-विरोधी मिजाज के ज़ोर पकड़ने का साफ संकेत है.
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यों चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों में बीजेपी को मध्यप्रदेश में कुल मिलाकर बढ़त लेता दिखाया गया है लेकिन शिवराज सिंह चौहान की सरकार को लेकर लोगों की संतुष्टी का भाव गिरावट पर है. सरकार को बाहर का रास्ता दिखाना चाह रहे लोगों का अनुपात बढ़ा है और उन लोगों की तादाद से अब मेल खाता दिख रहा है जो सरकार को अगली बार के लिए सत्ता में देखना चाहते हैं.
छत्तीसगढ़ में भी अंसतुष्ट और सरकार को बाहर का रास्ता दिखाना चाह रहे लोगों की संख्या बढ़ी है. दूसरे शब्दों में कहें तो बीजेपी मध्यप्रदेश में जितना लग रहा है उससे ज़्यादा कमज़ोर हालत में हो सकती है और छत्तीसगढ़ में भी उसे दुर्जेय नहीं माना जा सकता.
तालिका 1: राज्य सरकार के कामकाज से आप कितना संतुष्ट हैं?
तालिका 2: क्या राज्य की इस सरकार को एक और मौका मिलना चाहिए?
दूसरे, इन राज्यों में हर एक में बीजेपी की हालत शहरों के मुकाबिल ग्रामीण इलाकों कहीं ज़्यादा पतली है. मध्यप्रदेश में यह निर्णायक साबित हो सकता है. सीएसडीएस के सर्वेक्षण से पता चलता है कि बीजेपी कुल मिलाकर बढ़त पर है लेकिन ग्रामीण इलाकों में वो पिछड़ रही है. इसका एक मतलब निकलता है कि बीजेपी थोड़े तादाद वाली शहरी सीटों पर बड़े अंतर से जीत सकती है लेकिन बड़े कम अंतर से ज़्यादा तादाद में सीटें गंवा भी सकती है.
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी यही नुक्ता काम करता दिख रहा है. यह हिंदीपट्टी में एक बड़े रुझान का संकेत हो सकता है और ऐसे इशारों का पढ़कर ज़ाहिर है, बीजेपी के नेताओं को चिंता होनी चाहिए.
बीजेपी के नेताओं के लिए चिंता की तीसरी वजह ये है कि मतदाताओं की नज़र में जो मुद्दे बड़े बनकर उभरे हैं वो पार्टी को देश भर में धक्का पहुंचा सकते हैं. राष्ट्रीय स्तर के हर चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण में बेरोज़गारी का मुद्दा बीते एक साल से शीर्ष पर चल रहा है. तीनों ही राज्य में बरोज़गारी का सवाल इस बार मतदाताओं की जबान पर सबसे आगे है जबकि आमतौर पर सबसे पहले गिनाये जाने वाले मुद्दे मसलन महंगाई, गरीबी और भ्रष्टाचार इस बार बेरोज़गारी के मुकाबिल कुछ पीछे छूट गये हैं.
यह भी एक बड़े रुझान का संकेत हो सकता है, इसका दायरा इन तीन राज्यों से कहीं ज़्यादा बड़ा हो सकता है. केंद्र सरकार को लोग बेशक भ्रष्ट नहीं कह रहे लेकिन नीरव मोदी तथा राफेल घोटाले को लेकर सूचनाओं की पैठ अब एक तिहाई से भी ज़्यादा मतदाताओं तक जा पहुंची है. तीन राज्यों के जनादेश के बाद मीडिया ने अगर कुछ और साहस दिखाया तो ये सूचनाएं और ज़्यादा लोगों तक पहुंचेंगी.
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कांग्रेस को ये बातें मीठी लोरी जैसी जान पड़ रही होंगी. लेकिन चंद सेकेंड के लिए ठहरकर सोचें तो लगेगा यह बीजेपी के प्रति नकार का वोट है, कांग्रेस को स्वीकार करता वोट नहीं. कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद का कोई भी दावेदार इन तीन राज्यों में बीजेपी के मुख्यमंत्रियों से ज़्यादा लोकप्रिय नहीं.
केंद्र सरकार को लेकर संतुष्टी का स्तर लोगों में ज़्यादा है, 2013 में यूपीए की सरकार से संतुष्ट लोगों की तुलना में कहीं ज़्यादा. ज़्यादा अहम बात ये कि प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी लोगों के मन में बदस्तूर पहली पसंद बने हुए हैं, यहां तक कि राजस्थान में भी मतदाताओं का यही ख्याल है.
बेशक राज्यों में जो पार्टी विधानसभा के चुनाव जीतती है वही तुरंत बाद होने वाले लोकसभा के चुनाव में भी बाजी मारती है लेकिन कांग्रेस के लिए फिक्र करने की बात है क्योंकि राहुल गांधी राजस्थान में लोगों की कोई खास पसंद नहीं. बीजेपी का रुतबा तो गिरावट की ओर है लेकिन विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी अपने पक्ष में कोई खास माहौल नहीं पैदा कर पा रही और ना ही लोगों में उम्मीद जगा पा रही है. और, याद रहे कि ये बात सिर्फ इन तीन राज्यों तक ही सीमित नहीं.
(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)
(इस लेख का अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है. मूल लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)