scorecardresearch
Sunday, 13 October, 2024
होममत-विमत#मीटू आंदोलन भारत में महिलाओं के प्रति हमारा रवैया बदलेगा

#मीटू आंदोलन भारत में महिलाओं के प्रति हमारा रवैया बदलेगा

Text Size:

इस आंदोलन को महानगरों से छोटे कस्बों, मीडिया से बिजनेस और राजनीति तक और सार्वजनिक जीवन से घरेलू यौन उत्पीड़न तक फैलना चाहिए.

सार्वजनिक जीवन में हमने पहली चीज़ सीखी है कि आरोपों को सुनते वक्त उन्हें काफी ठोंक बजा कर देखा जाए. संगीन आरोप हमारे सार्वजनिक और उससे ज्यादा राजनीतिक जीवन का जरूरी हिस्सा हैं. अपने आसपास जरूरी लोगों में भी किसी से किसी के बारे में बात करते हुए आरोपों की झड़ी लग जाती है और आपको सुनना पड़ता है. अगर वह आदमी है तो उसके बारे में कहा जाएगा कि ‘पैसा खा गया’, और अगर वह महिला है तो कहा जाएगा कि ‘चरित्र खराब है’. इसका परिणाम यह हुआ है कि प्रक्रियात्मक रूप से मैं चिढ़चिढ़ा हो गया हूं कि पहले कुछ सबूत लाओ फिर हम इस पर बात करें. इसलिए जब वैश्विक स्तर पर शोषणकारियों का खुलासा होने लगा तो मैं द्वंद्व में फंस गया.

दो नैतिक आदर्श हैं जो एक दूसरे से टकराते हैं. एक तरफ, सार्वजनिक रूप से खुलासे की अतिआवश्यकता है. यह देखना घृणास्पद है कि कैसे हमारे सार्वजनिक जीवन के हर कदम पर यौन उत्पीड़न पसरा हुआ है. यह किसी राष्ट्रीय कलंक की तरह है कि अपराधी पकड़े जाने के बाद भी खुले घूम रहे हैं. कुछ बड़ा, कुछ नाटकीय होने की बहुत जरूरत थी, ताकि यह सब प्रकाश में आ सके और जनता इसकी समीक्षा करे. दूसरी तरफ, प्रक्रियात्मक निष्पक्षता की जरूरत है. किसी घटना के वर्षों बाद किसी के खिलाफ कोई गंभीर आरोप है और कोई ठोस सबूत नहीं है, तो इससे निष्पक्षता और न्याय के मूल सिद्धांत का उल्लंघन होता है. इसका दुरुपयोग किया जा सकता है और होता रहा है. इसलिए जब पिछले साल कुछ अकादमिक आरोपियों के नाम एकत्र करके सार्वजनिक किए गए तो मैं इसके साथ खड़ा नहीं हो पाया. इस उलझन से मैं तब मुक्त हुआ जब कुछ स्त्रीवादी हस्तियों ने सार्वजनिक रूप से नाम जाहिर करके शर्मिंदा करने के मामले में गंभीर जवाबदेही की मांग की.

लेकिन सार्वजनिक रूप से खुलासे करने वाली हालिया लहर इस मामले में थोड़ा अलग है कि कैसे ऊंचे पदों पर बैठे, यहां तक कि मीडिया के सम्मानजनक लोगों ने भी पद का दुरुपयोग करके महिलाओं का उत्पीड़न किया, उन्हें नीचा दिखाया और गरिमा का उल्लंघन किया. भारत में #मीटू गुमनामी के घूंघट के पीछे नहीं छुपा है. महिलाएं खुलकर बाहर आ रही हैं, अपनी पहचान सार्वजनिक कर रही हैं, अपराधियों के नाम बता रही हैं और बोलने की कीमत चुकाने को तैयार हैं. उनके साहस को देखते हुए यह राय बनती है कि वे गंभीर हैं और हमें उन्हें गंभीरता से लेना चाहिए. उनके खाते में सिर्फ संगीन और फौरी आरोप नहीं हैं.

पिछले हफ्ते में हमने इस बारे में ज्यादातर खबरें पढ़ीं जो कि विस्तार से हैं, बेहद गंभीर हैं, आरोपी को पर्याप्त समय दे रही हैं, और आश्चर्यजनक रूप से आरोपी के प्रति निष्पक्ष हैं. महिलाएं जो कुछ कह रही हैं उसके कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं जो आरोप की पुष्टि करते हैं. जैसे- कुछ साक्ष्य जो रिकॉर्ड किए गए, गवाह, बातचीत का हिस्सा आदि. हो सकता है कि यह सब कोर्ट में पक्के सबूत के तौर पर न माना जाए लेकिन यह मानने के लिए कि ये विश्वसनीय और प्रमाणिक नहीं हैं, आपको संज्ञाशून्य होना होगा. जिस तथ्य के साथ ये महिलाएं सशक्त लोगों के खिलाफ खड़ी हैं, अगर वह आपको हिला नहीं सकता तो आपको कोसा जाना चाहिए.

क्या इन कहानियों को सार्वजनिक मंच पर रख देने, प्रतिष्ठित लोगों का नाम लेकर शर्मिंदा करने का बचाव किया जा सकता है? मेरा जवाब है हां. इनमें से ज्यादातर महिलाएं पेशेवर जूनियर थीं और जब उन्होंने अपने पुरुष सहकर्मी का उत्पीड़न झेला तो उन्हें दोहरा नुकसान उठाना पड़ा. सार्वजनिक मंच पर ट्रायल के लिए कोई स्थापित प्रोटोकॉल और सबूत का कोई स्थापित मानक नहीं है जो उनके सच को वैधता दे सके. यह परिस्थिति नये तरीके की मांग करती है.

हां, यह खतरा है कि ये माहौल कीचड़ उछालने का लाइसेंस हो सकता है. हर प्रेम प्रसंग, हर विकृत हो चुका रिश्ता, हर असावधानी, मूर्खता, यहां तक कि भ्रांति को भी आपराधिक प्रताड़ना के रूप में पेश किया जा सकता है. हां, इस सामूहिक और सार्वजनिक ‘सत्योद्घाटन’ को अपना मानक और प्रोटोकॉल विकसित करना पड़ेगा ताकि इसका दुरुपयोग न हो सके. लेकिन किसी को इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती कि भारत में #मीटू ने जो अवसर का दुर्लभ दरीचा खोला है, उसे बंद कर दे.

यह अवसर सिर्फ इतने भर के लिए नहीं है कि यहां पर कार्यस्थल महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं हैं. यह क्षण सुप्रीम कोर्ट के धारा 377 और व्याभिचार संबंधी कानूनों को लेकर दिए गए निर्णय के परिणामस्वरूप आया है. साथ-साथ यह भी हो रहा है कि तमाम विश्वविद्यालयों में छात्राएं परिसर में स्वेच्छाचारी नियमों से आजादी मांग रही हैं. इस संदर्भ में देखें तो #मीटू आंदोलन हमारे देश में लैंगिकता से जुड़े लोक व्यवहार अथवा जन संस्कृति को बदलने का वादा करता है. इस दिशा में पहले से भी बहुत कुछ सकारात्मक है. मुख्य धारा का मीडिया इस विषय पर चुप्पी तोड़ने को मजबूर हुआ है. शायद पहली बार इस तरह के खुलासे के बाद माफी मांगी जा रही है, इस्तीफे हो रहे हैं और जांच की जा रही है. आने वाले दिनों में इससे ज्यादा भी हो सकता है और इसकी आशा की जानी चाहिए.

क्या यह क्षण हमारी जन संस्कृति को बदल पाने का आंदोलन बन सकता है? यह इस पर निर्भर करता है कि इस क्षण को और प्रोत्साहित प्रसारित किया जाएगा या इसे दबा दिया जाएगा. यह क्षण लोगों की निगाह में रहने वाले व्यवसायों और अभिजात्यों की दुनिया (जिसे मध्यवर्ग कहना ज्यादा पसंद किया जाता है) से उभरा है. इसमें कुछ भी गलत नहीं है. अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ इस तरह के सभी आंदोलन ऐसे ही लोग शुरू करते हैं जो उसे झेलने वालों में से विशेषाधिकार प्राप्त/संपन्न होते हैं. अन्यथा तो ये कभी प्रकाश में ही न आएं.

लेकिन मसला यह है कि इस व्यापक और अश्लील दुनिया में हर रोज भीषण किस्म के यौन उत्पीड़न होते हैं और उनका कोई संज्ञान नहीं लिया जाता. इस आंदोलन को महानगरों से छोटे कस्बों और गांवों की तरफ बढ़ना चाहिए. इसकी संभावनाओं को मीडिया से परे बिजनेस और राजनीति तक, संगठित क्षेत्र से असंगठित क्षेत्र तक और सार्वजनिक जीवन से अलग घरेलू यौन उत्पीड़न तक फैलना चाहिए. भारत में #मीटू हमारी लैंगिक संवेदनशीलता के सामाजिक दायरे को पुनर्निमित करेगा.

जब मैं भारत में #मीटू के बारे में पढ़ रहा था, तभी दो खबरों पर ध्यान गया. बिहार में कुछ स्कूली छात्राओं ने यौन उत्पीड़न का विरोध करने की हिम्मत की और उनपर हमला किया गया. भारत के राष्ट्रपति ने टैगोर के सपनों के विश्वविद्यालय विश्व भारती में ऐसे अकादमिक शख्स को उपकुलपति नियुक्त किया जो दिल्ली विश्वविद्यालय में यौन उत्पीड़न के दोषी पाए गए थे और दंडित हुए थे.

यह दो उदाहरण उन काले धब्बों की ओर इशारा करते हैं जहां पर #मीटू की निगाह जरूर जानी चाहिए. तब तक आइए हम सब उन महिलाओं को सलाम करें जिन्होंने सार्वजनिक रूप से आवाज उठाई और उनको भी जो आवाज उठाने के लिए #मीटू अभियान में शामिल होना चाहती हैं.

(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

share & View comments