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Thursday, 25 April, 2024
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संवाद कीजिए ताकि पब्लिक हमारे रिपब्लिक को चोट न पहुंचाए

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साधारण, आस्थावान भारतीय आलोचना और सुधार से अछूते नहीं हैं मगर जब यह विदेशी और उग्र भाषा में सामने आता है तब वे प्रतिकार करते हैं.

आइए अब हम इस सच्चाई को कबूल ही कर लें- कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था सबरीमला में परास्त हो गई; कि भारतीय राज्यतंत्र ने उच्चतम अदालत के एक स्पष्ट निर्देश को लागू करने कि कोशिश तो की मगर वह विफल रहा.

हम आसान बहानों का सहारा लेने की कोशिश न करें. हां, यह सच है कि कट्टरपंथी हिंदुत्ववादियों ने वहां एक बड़ा जन विरोध खड़ा कर दिया, जिसे भाजपा का खुला समर्थन हासिल था. हां, कांग्रेस ने नरम हिंदुत्ववाद का कार्ड खेला, मगर यह कोई पहली बार नहीं था. बेशक, शासक पार्टी माकपा भी जन भावना के उभार को देखकर डगमग होती दिखी. लेकिन जो हुआ, उन सबका गुस्सा इन सबके ऊपर उतारना बेमानी होगा. चुनाव लड़ने वाली पार्टियां हमेशा उधर ही रुख करती हैं जिधर मतदाता उन्हें मोड़ देते हैं. असली सवाल तो यह है कि जनमत का रुख उस तरफ क्यों मुड़ा?

बेहतर होगा कि हम इस भुलावे में न रहें कि ‘आस्था विरोधी’ कोई अदालती आदेश केरल जैसे राज्य में, जो दुनिया में बचे चंद स्तालिनवादी कम्यूनिस्ट शासनों में शुमार है, नहीं लागू किया जा सका तो शायद और कहीं भी लागू नहीं किया जा सकता. सच है, हाजी अली मस्जिद के मामले में इसी तरह के एक फैसले को संबंधित समुदाय की भावना का ख्याल न करते हुए लागू कर दिया था. लेकिन क्या समाजवादी पार्टी के राज में ऐसा हो सकता है? क्या हम शाहबानो मामले को भूल गए? क्या एसजीपीसी ने सिख आस्था के नाम पर खुल्लमखुल्ला अवैध कामों को अंजाम नहीं दिया?


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इन सब पर नैतिकतावादी भाषण देने में हम अपनी ऊर्जा न बरबाद करें. उपरोक्त विफलताओं की भर्त्सना तो बेशक की जानी चाहिए. अगर उच्चतम अदालत के आदेशों का सरासर उल्लंघन होता है तो संवैधानिक लोकतंत्र काम नहीं कर सकता. लेकिन विलाप तथा निंदा मनन-चिंतन की जगह नहीं ले सकती. यह स्थिति भर्त्सना से ज्यादा, गहन चिंतन की मांग करती है कि हम संवैधानिक नैतिकता और जनमत के बीच के टकराव का समाधान कैसे करेंगे. अदालतों पर दोष थोप कर हम इस कठिन सवाल की अनदेखी न करें.

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न्यायपालिका के महत्वाकांक्षी फैसले बेशक हमारी एक व्यवस्थागत समस्या के रूप हैं, लेकिन इस मामले में बात यह नहीं है. अगर कोई नागरिक सार्वजनिक पूजास्थल में समान अधिकार की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो न्यायाधीश अपनी बेबसी नहीं जता सकते. हमारा जो संविधान है उसके अंतर्गत तो ऐसा नहीं ही कर सकते, क्योंकि यह मंदिर में प्रवेश के नियम साफ-साफ बता चुका है. भारत की धर्मनिरपेक्षता धर्म के मामले में दखल न देने के फ्रांस के सख्त सिद्धान्त पर नहीं चलती. हमारे संविधान में ‘सिद्धांतसम्मत दूरी’ बनाए रखने की व्यवस्था की गई है, जो धार्मिक मामलों में सिद्धांतसम्मत हस्तक्षेप की इजाजत देती है और उसकी मांग भी करती है.

सो, हम लकीर न पीटते रहें. दुखद तथा अप्रिय सच यह है कि उदार संवैधानिक व्यवस्था और जनमत के बीच तालमेल नहीं होता. सुप्रीम कोर्ट के जजों के नैतिक भावबोध, उदारवादी टीकाकारों और भगवान अयप्पा के साधारण भक्त के नैतिक भावबोध के बीच कोई मेल नहीं है. एक साधारण भारतीय हमारे संविधान के प्रति सम्पूर्ण सम्मान भाव रखता है. लेकिन जब किसी विशेष संदर्भ में संवैधानिक सिद्धांतों की व्याख्या की जाती है तब वह खुद को उससे जोड़ नहीं पाता.


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हम इस कड़वे सच से आंख न चुराएं. इस सच से मैं 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान अवगत हुआ था. मैं तब चंडीगढ़ में पंजाब विश्वविद्यालय में पढ़ाता था और कामकाजी तबके की कॉलोनी दादूमाजरा में रहता था. अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के शर्मनाक उल्लंघन को लेकर मैंने जब घोर नैतिक आपत्ति जाहिर की, तो मेरे एक पड़ोसी ने सवाल कर दिया, “रामजी का मंदिर अयोध्या में नहीं बनेगा तो क्या इंग्लैंड में बनेगा?” मैंने तो तब सबक सीख लिया था मगर उदार, प्रगतिशील भारतीय लोगों ने नहीं सीखा है.

हमें आईने में देखने की हिम्मत जुटानी चाहिए: अपनी जड़ों से उखड़े, अंग्रेज़ीभाषी भारतीय कुलीनों के बारे में प्रचलित धारणा में सच्चाई का सिर्फ एक अंश ही नहीं है. शब्दशः कहें तो, उदार भारतीय विदेशी भाषा बोलते हैं. भारत के किसी भी अग्रणी बुद्धिजीवी से जरा यह तो पूछिए कि उन्होंने अंग्रेज़ी से इतर भाषा की कोई पूरी किताब कब पढ़ी या ए4 साइज के पन्ने के दोनों तरफ अंग्रेज़ी से इतर भाषा में कब लिखा था. उनमें से अधिकतर तो ऐसे मिलेंगे, जो हमारी धार्मिक परम्पराओं के प्रति निंदा भाव रखते होंगे या नहीं तो उनके बारे में एकदम सिफर जानकारी रखते होंगे.


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ऐसे कितने पढे-लिखे भारतीय होंगे, जो उपनिषद और पुराण या शरीअत और हदीस में अंतर बता सकेंगे? इसलिए यह कोई अचरज की बात नहीं है कि साधारण, आस्थावान भारतीय उनसे कोई नैतिकतावादी उपदेश सुनने से मना कर देते हैं. वे आलोचना और सुधार से अछूते नहीं हैं मगर जब यह विदेशी और उग्र भाषा में सामने आता है तब वे प्रतिकार करते हैं. लातिनी अमेरिका में मुक्ति का धर्मशास्त्र चलता है. लेकिन हमारे पास ऐसे उदारवादी लोग क्यों नहीं हैं, जो नैतिकता कि नई सीमाएं तय करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम को समझने का प्रयास करते हों?

हम इस पर बहुत मीनमेख न निकालें, भारत में उदारवाद का कोई राजनीतिक वोट बैंक नहीं है, महानगरीय भारत का प्रतीक माने जाने वाले द्वीप तक में नहीं है. उदार, संवैधानिक व्यवस्था केवल अदालतों के बूते नहीं टिकी रह सकती. क्रूर सच यह है कि लोकतन्त्र में अदालतें यदाकदा जनमत की अवज्ञा कर सकती हैं और अपनी चला सकती हैं. लेकिन संभावना यही है कि वे कुल मिलाकर लोकप्रिय जनमत में विचलन के साथ जा सकती हैं. अगर ऐसा चलता रहा तो खतरा यह है कि हमारी पब्लिक हमारे रिपब्लिक (गणतंत्र) को चोट पहुंचा सकती है.

हम अपने विकल्पों को समझ लें. पहला विकल्प जनमत के साथ जाने का है, चाहे वह हमें कहीं भी ले जाए और चाहे वह जनमत कैसे भी तैयार हुआ हो. वह एक खतरनाक ढलान साबित होगी. एकमात्र दूसरा विकल्प यह है कि जनमत को बदलने के लिए जनता से संवाद कीजिए. यह संवाद एकतरफा नहीं हो सकता. हमें नई भाषा सीखने, नए भावबोध का अनुभव करने, ज्ञान के दूसरे पहलुओं का सम्मान करने के लिए तैयार रहना होगा. यही गांधी का रास्ता है, अपने अंदर के विवेकपूर्ण विवेचक का रास्ता. बशर्ते कि हम नए लोगों को चुनने का तीसरा विकल्प आजमाने का फैसला नहीं करते!

(इस लेख का अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है. मूल लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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