scorecardresearch
Tuesday, 24 December, 2024
होममत-विमतएस.एस. राय बंगाल से पंजाब तक सिर्फ संकटमोचक ही नहीं थे बल्कि भारत में बौनों के बीच कद्दावर नेता थे

एस.एस. राय बंगाल से पंजाब तक सिर्फ संकटमोचक ही नहीं थे बल्कि भारत में बौनों के बीच कद्दावर नेता थे

सिद्धार्थ शंकर राय को दोनों बंगाल को देखने का काम सौंपा गया था— पश्चिम बंगाल का शासन संभालने का और पूर्वी बंगाल के शेख मुजीबुर रहमान से राजनयिक संबंध बनाने का.

Text Size:

सिद्धार्थ शंकर राय बौनों के बीच एक कद्दावर नेता थे. 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में चंद गिने-चुने ही राजनेता ऐसे थे, जिन्होंने भारत के भविष्य की दिशा बदलने में राय जितनी निर्णायक भूमिका निभाई. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने वहां नक्सल समस्या का खात्मा किया. पंजाब के राज्यपाल रहते हुए उन्होंने खालिस्तान अलगाववाद की लहर का रुख उलट दिया. और शीतयुद्ध के समाप्त होने के ठीक बाद अमेरिका में राजदूत रहते हुए उन्होंने अमेरिकियों को यह एहसास कराया कि वे लोकतान्त्रिक भारत को अपना स्वाभाविक सहयोगी मान सकते हैं.


यह भी पढ़ें: बंगाल में ममता बनर्जी की दुविधा-हिंदुओं को पूजा की अनुमति दें या Covid को काबू करें, आत्मसंतुष्ट भाजपा की हालात पर नजर


बंगाल पर उनका असर

देश में 1965 से 67 तक आर्थिक गतिरोध की स्थिति पैदा हो गई जिसके बाद 1967 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जब कई राज्यों में झटका लगा तब पश्चिम बंगाल में कुशासन के कारण अराजकता का माहौल बन गया. अजय मुखर्जी (भाकपा के दिग्गज नेता बिश्वनाथ मुखर्जी के भाई) की बांग्ला कांग्रेस ने संयुक्त मोर्चे की कई सरकारों का नेतृत्व किया, जो पर्दे के पीछे से कम्युनिस्टों की सत्ता ही थी. इसने पूंजीपतियों को राज्य छोड़ने पर मजबूर कर दिया और कॉलेज के छात्रों में नक्सलवाद के प्रति आकर्षण बढ़ाया और बंदूक तथा हिंसा को लेकर उन्हें बौद्धिक खुराक पिलाई जिसकी लपेट में पूरा राज्य आ गया, बेजा माल ढुलाई नीति (फ्रेट इक्वलाइजेशन पॉलिशी) के चलते पहले ही झटका खा चुके उद्योग-धंधों की संभावनाएं खत्म ही हो गईं.

उस समय, एस.एस. राय केंद्रीय शिक्षा मंत्री थे और त्रिभाषा फॉर्मूला लागू कर रहे थे ताकि अगले कुछ दशकों में देश की साक्षरता दर में उछाल आए. लेकिन भारत (खासकर पश्चिम बंगाल और असम) पूर्वी पाकिस्तान में उभर रहे संकट के कारण अलग से परेशान हो रहा था. वहां बांग्ला स्वाधीनता की मांग को फौजी तानाशाह सख्ती से कुचलने में लगे थे.

राय के ऊपर दोनों बंगाल की जिम्मेदारियां डाली जा रही थीं— पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया तब उसके प्रशासन की, और उधर शेख मुजिबुर रहमान 1970 में भारी बहुमत से चुनाव जीत कर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में आ गए तब उनसे कूटनीतिक संबंध बनाने की. लेकिन पाकिस्तान के तानाशाह याहया खान ने मुजीब को पूरब में भी सत्ता सौंपने से मना कर दिया, उलटे ‘ऑपरेशान सर्चलाइट’ शुरू करके वहां बर्बर नरसंहार शुरू कर दिया, जिसका लक्ष्य पूर्वी पाकिस्तान में अलगाववाद की लहर को दबाने के लिए 30 लाख हिंदुओं और मुसलमानों का कत्लेआम करना था.
सिद्धार्थ राय ने ताजुद्दीन अहमद के नेतृत्व वाली (याहया खान द्वारा मुजीब की गिरफ्तारी के बाद) मुजीबनगर सरकार को समर्थन देने और पाकिस्तानी फौज के अत्याचारों के कारण भारत आ गए करीब डेढ़ करोड़ शरणार्थियों को राहत पहुंचाने में केंद्रीय भूमिका निभाई.

जनरल सैम मानेकशॉ और जनरल जगजीत सिंह अरोरा तथा जे.एफ.आर. जेकब के नेतृत्व में भारतीय सेना ने जब पाकिस्तान को बिना शर्त आत्मसमर्पण करने को मजबूर कर दिया तो शरणार्थियों को नये राष्ट्र बांग्लादेश में वापस भिजवाने की प्रक्रिया का भी राय ने संचालन किया. यही नहीं, 1972 में उन्होंने कांग्रेस को पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव में प्रचंड बहुमत दिलाकर कम्युनिस्टों की कमर तोड़ दी. इसके बाद अगले पांच वर्ष राय ने नक्सल समस्या का पूरी मजबूती से सामना किया और युवाओं को माओवाद की वैचारिक मूढ़ता से विरक्त करने के अलावा आर्थिक अवसरों को बढ़ाने के उपाय भी किए.

राय देश के अग्रणी संविधान विशेषज्ञों में गिने जाते थे. उनकी उस भूमिका के मद्देनजर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनसे सलाह मांगने तब गईं जब इलाहाबाद हाइकोर्ट ने उन्हें 1971 में अपनी रायबरेली सीट से चुनावी धांधली करके चुनाव जीतने का दोषी ठहरा दिया. माना जाता है कि राय ने उन्हें सलाह दी थी कि वे आंतरिक इमरजेंसी लगाने के संवैधानिक प्रावधान का इस्तेमाल कर सकती हैं. लेकिन इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी और उनकी मंडली (कमलनाथ, जगदीश टाइटलर, प्रणब मुखर्जी, रुख़साना सुलताना आदि) द्वारा की जा रही ज़्यादतियों का राय ने कड़ा विरोध किया था. उस समय ऐसे निरंकुशतावाद का विरोध करना उतने ही साहस की बात थी जितना नक्सलवाद का खत्म करना.


यह भी पढ़ें: डोनाल्ड ट्रंप हों या बाइडेन- भारत और अमेरिका के सामरिक संबंध मतभेद रहित नहीं होंगे


पंजाब से अमेरिका तक अपनी छाप

इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए चुनाव में, राय इंदिरा विरोधी लहर में उखड़ गए. इसके बाद वे ब्रह्मानन्द रेड्डी समेत उन नेताओं में शामिल हो गए जो इंदिरा, संजय, और इमरजेंसी की छाया से निकलकर काँग्रेस को फिर से खड़ा करने में जुट गए थे. लेकिन यह प्रयास 1979-80 की अफरातफरी में बेमानी हो गया क्योंकि गतिरोध और चरण सिंह के दौर से परेशान मतदाताओं ने कॉंग्रेस-आइ को फिर सत्ता सौंप दी, और उस सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल में इंदिरा को छोड़कर एक भी ऐसा मंत्री नहीं था जो कभी पहले केंद्रीय मंत्री रहा हो. राय अपनी फलती-फूलती वकालत की ओर लौट गए, और सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील बन गए.

लेकिन कर्तव्य की पुकार पर वे फिर एक राष्ट्रीय संकट से जूझने आगे आए. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें अलगाववादी खालिस्तानी आंदोलन के चरम काल में अप्रैल 1986 में पंजाब का राज्यपाल नियुक्त किया. पुलिस का नेतृत्व कर रहे जूलियो रिबेरो के साथ मिलकर राय ने पंजाब में इस आतंकवादी लहर को उलट दिया और सीमावर्ती राज्य पंजाब में पाकिस्तान के नापाक इरादों को कुचल दिया. पंजाब के राज्यपाल के रूप में उन्होंने दिसंबर 1989 तक अपनी विशिष्ट सेवाएं दी.

1992 में उन्हें राजदूत बनाकर अमेरिका भेजा गया, जब राष्ट्रपति जॉर्ज एच.डब्लू. बुश के कार्यकाल का आखिरी वर्ष चल रहा था और फिर बिल क्लिंटन का कार्यकाल शुरू हुआ था. शीतयुद्ध के दौर में भारत सोवियत संघ की तरफ झुका हुआ था (हालांकि वह गुटनिरपेक्ष था), लेकिन राय ने क्लिंटन दंपती के साथ गहरा तालमेल स्थापित करके भारत-अमेरिका की स्वाभाविक मित्रता की नींव डाल दी थी. उन्होंने पी.वी. नरसिंह राव की अमेरिका यात्रा को बेहद सफल बनाने में अहम भूमिका निभाई, जिसमें राव ने अमेरिकी कॉंग्रेस के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित किया था और इसके बाद उन्हें ‘भारत के डेंगश्योपिंग ’ कहा गया था.

राजदूत राय ने अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस विलियम रेंक्विस्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों की भारत यात्रा की व्यवस्था करके दो महान लोकतान्त्रिक देशों की न्यायिक व्यवस्था में तालमेल बिठाने का भी प्रयास किया. यह उनके कूटनीतिक प्रयासों की महती उपलब्धि ही थी जिसने भारत-अमेरिका संबंध में भारी परिवर्तन ला दिया. एक सुपरपावर के साथ उस समय आकार लेती वह दोस्ती अगले 25 वर्षों तक समय की चुनौतियों के बीच भी कायम रही है. हर भूमिका में ‘मानू दा’ का करिश्मा, संकल्प और सत्यनिष्ठा भारत के भविष्य को दिशा देने में अमूल्य साबित हुई. उनकी जन्मशताब्दी पर देश उनके प्रति आभार ही प्रकट कर सकता है.

प्रसेनजित के. बसु @PrasenjitKBasu पुरस्कार विजेता पुस्तक, एशिया रीबॉर्न के लेखक हैं. वह एस.एस. राय की जीवनी पर भी काम कर रहे हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.

यह लेख एसएस राय फाउंडेशन द्वारा जारी एक स्मारक पुस्तक के संस्करण का हिस्सा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments