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Friday, 29 March, 2024
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डोनाल्ड ट्रंप हों या बाइडेन- भारत और अमेरिका के सामरिक संबंध मतभेद रहित नहीं होंगे

राष्ट्रपति ट्रंप और पूर्व उपराष्ट्रपति बाइडेन के बीच अब तक हुई एकमात्र राष्ट्रपतीय बहस में भारत का उल्लेख महज प्रसंगवश हुआ लेकिन दोनों ही उम्मीदवार बीते दिनों में मज़बूत भारत-अमेरिका संबंधों का समर्थन कर चुके हैं.

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चीन या कोरोनावायरस महामारी के विपरीत, अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव अभियान में भारत का बमुश्किल उल्लेख हो रहा है. लेकिन इस चुनाव के नतीजे का भारत-अमेरिका संबंधों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है जिसे पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ’21वीं सदी को परिभाषित करने वाली साझेदारी’ बताया था.

यदि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दोबारा चुने जाते हैं तो दोनों देशों के संबंध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके परस्पर प्रशंसा वाले निजी रिश्ते से निर्देशित होते रहेंगे, हालांकि ट्रंप का लेनदेन वाला रवैया भी जारी रहेगा जिसमें व्यापार और बाजार में पहुंच संबंधी मतभेदों को सामरिक उद्देश्यों के आड़े आने दिया जाता है.

वहीं यदि जो बाइडेन राष्ट्रपति बने तो शायद वह भारत को चीन के समानांतर खड़ा करने के खातिर हार्ले-डेविडसन मोटरसाइकिल की बिक्री के आंकड़ों और उस पर भारत में लगाए गए शुल्क को शायद उतना महत्व नहीं देना चाहेंगे.

भले ही अमेरिकी राजनीति बेहद ध्रुवीकृत हो लेकिन भारत से करीबी संबंधों को दोनों ही दल महत्व देते हैं. दोनों देशों के रिश्ते जहां रिपब्लिकन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में मज़बूत हुए थे, वहीं डेमोक्रेट राष्ट्रपतियों बिल क्लिंटन और बराक ओबामा के अधीन भी दोनों देशों के बीच घनिष्ठता बढ़ी थी. ऐसा भू-राजनीतिक परिस्थितियों और एक ताकतवर भारत के अमेरिका के हित में होने के एहसास के कारण हुआ है. आखिरकार, चीन के अलावा पूरी दुनिया में एकमात्र देश भारत ही है जहां की आबादी एक अरब से अधिक है.


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वर्तमान में भारत-अमेरिका संबंध

राष्ट्रपति ट्रंप और पूर्व उपराष्ट्रपति बाइडेन के बीच अब तक हुई एकमात्र राष्ट्रपतीय बहस में भारत का उल्लेख महज प्रसंगवश हुआ. लेकिन दोनों ही उम्मीदवार बीते दिनों में मज़बूत भारत-अमेरिका संबंधों का समर्थन कर चुके हैं और दोनों ही दलों में भारत की अच्छी समझ रखने वाले विशेषज्ञ मौजूद हैं.

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लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप की विशेषज्ञों की अनसुनी करने की आदत रही है और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रति उनका दृष्टिकोण आमतौर पर लेन-देन वाला रहा है. ट्रंप विदेशी नेताओं से ऐसे मिलते हैं मानो वे अपनी जायदादों के किसी संभावित ग्राहक से मिल रहे हों. वह खुशामद करके उन्हें गदगद कर देते हैं.

ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ ऐसा ही किया था लेकिन ह्यूस्टन के ‘हाउडी मोदी’ और गुजरात के ‘नमस्ते ट्रंप’ जैसे सफल ‘मनभावन’ कार्यक्रमों के बावजूद दोनों देशों की सामरिक साझेदारी में कोई खास प्रगति नहीं हुई. दोनों देश एक समग्र व्यापार समझौता करने में नाकाम रहे और भारत अपनी वायुसेना के लिए अमेरिकी लड़ाकू विमान हासिल करने की संभावना के करीब तक नहीं पहुंच पाया है.


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रिपब्लिकन क्या चाहते हैं

जहां तक भारत के नेताओं की बात है, तो अन्य देशों के साथ बातचीत में भले ही कुछेक उपयोगी लेन-देन भी शामिल रहते हों लेकिन द्विपक्षीय रिश्तों के केंद्र में हमेशा एक सामरिक आयाम होता है. नई दिल्ली को डेमोक्रेटिक पार्टी का लेन-देन रहित रवैया जो कि ट्रंप से पहले रिपब्लिकन की स्थिति भी रही थी, अधिक भा सकता है.

ऐतिहासिक रूप से देखें तो हैरी ट्रूमैन के ज़माने से ही डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों ने इस धारणा को स्वीकार किया है कि भारत का उदय स्वाभाविक तौर पर अमेरिका के लिए अच्छा है. डेमोक्रेटिक प्रशासनों की इच्छा रही है कि भारत का तेज आर्थिक विकास हो और चीन का मुकाबला करने में वह साझेदार बने लेकिन उन्होंने शायद ही कभी किसी खास लेन-देन पर ज़ोर दिया हो.

रणनीतिक परहितवाद की इस नीति के विपरीत अधिकांश रिपब्लिकनों ने भारत के साथ अमेरिकी संबंधों को विशिष्ट शर्तों के तहत देखा है. वे भारत के आर्थिक विकास को इस नज़रिए से देखते हैं कि अमेरिकी कंपनियों को कैसे इसका लाभ मिल सकता है. रिचर्ड निक्सन जैसे रिपब्लिकनों ने सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका के खेमे में आने की भारत की अनिच्छा का बुरा माना था और रिपब्लिकन अब चाहते हैं कि अमेरिका की व्यापक रणनीति के अनुरूप चीन का सामना करने में भारत अधिक जोखिम उठाए.

हालांकि इस बात के अपवाद भी रहे हैं. ड्वाइट आइज़नहावर (1953-61) और जॉर्ज डब्ल्यू. बुश (2000-08) के प्रशासनों ने इस बात को समझा था कि भारत भले ही अमेरिकी कंपनियों की राह आसान नहीं करता हो लेकिन इसके बावजूद उसके उदय से अमेरिका लाभांवित हो सकता है.

आइज़नहावर चाहते थे कि अमेरिका ‘भारत को एक मुक्त और लोकतांत्रिक देश के रूप में विकसित होने का अवसर दे’ और बुश को इस बात का अहसास था कि भारत से निकट संबंध बनाना अमेरिका के व्यापक सामरिक उद्देश्यों के हित में है. उनका नज़रिया ट्रंप की इस राय से अलग था कि भारत-अमेरिका रिश्तों की गहराई का पैमाना ये होना चाहिए कि भारत अमेरिका के लिए अपने बाज़ार को किस हद तक खोलता है तथा अमेरिका से ऊंची कीमत पर और बिना टेक्नोलॉजी हस्तांतरण के कितने सैनिक साजोसामान खरीदता है.

हो सकता है दूसरे कार्यकाल में ट्रंप प्रशासन पहले से अलग हो. हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के खिलाफ एक विस्तृत गठबंधन खड़ा करने की अमेरिका की ज़रूरत शायद उसे लेन-देन पर केंद्रित मौजूदा रवैये पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर सके. ट्रंप को तब आइज़नहावर और बुश जूनियर के नक्शेकदम पर चलना सीखना पड़ेगा. लेकिन इस बात की कम ही संभावना है कि राष्ट्रपति ट्रंप अपने बुनियादी वैश्विक नज़रिए को बदल पाएं.


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डेमोक्रेट्स के लिए भारत

बाइडेन और डेमोक्रेट्स के लिए, भारत के साथ घनिष्ठता एक सहज स्थिति होगी. उदारवादी अमेरिकी 19वीं सदी से ही विश्व मंच पर एक बड़ी भूमिका के लिए भारत का साथ देने की ज़रूरत बताते रहे हैं. अनेक खंडों में प्रकाशित ‘द स्टोरी ऑफ सिविलाइज़ेशन ’ के सह-लेखक और इतिहासकार विल डुरांट ने 1930 में प्रकाशित अपनी किताब ‘द केस फॉर इंडिया ’ में इस संबंध में विस्तृत तर्क प्रस्तुत किए थे.

डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूज़वेल्ट (1933-45) भारत की स्वतंत्रता के हिमायती थे लेकिन वह ब्रितानी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को इसकी तात्कालिक आवश्यकता के बारे में सहमत नहीं कर पाए. रूज़वेल्ट ने 1941 से भारत के लिए विशेष प्रतिनिधियों की नियुक्ति भी शुरू की थी जिसका उद्देश्य था ‘भारतीयों को इस बात का अहसास कराना कि अमेरिका उनके साथ है और दोस्ती के सार्वजनिक आश्वासनों से परे जाने के लिए भी तैयार है.’

भारत के सभ्यतागत अतीत, उसकी आबादी, आर्थिक संभावनाओं और लोकतांत्रिक स्वरूप ने हमेशा ही उदारवादियों को आकर्षित किया है और आज भी कर रहा है. राष्ट्रपति बनने से पहले से ही जॉन एफ केनेडी ‘एक मुक्त और खुशहाल एशिया के स्वतंत्र और संपन्न नेता’ भारत के साथ निकट संबंधों के हिमायती थे, केवल इसलिए नहीं कि ‘पूर्वी जगत के आर्थिक एवं राजनीतिक नेतृत्व’ के लिए भारत को चीन के खिलाफ संघर्ष में जीतना चाहिए.

चार दशक बाद, मार्च 2000 में बिल क्लिंटन ने भारतीय संसद में अपने संबोधन में कहा कि जहां ‘मानवता के समक्ष मौजूद सारी चुनौतियों भारत में देखी जा सकती हैं’, वहीं ‘यहां हर चुनौती का समाधान भी ढूंढा जा सकता है: लोकतंत्र में भरोसा, विविधता के पक्ष में सहिष्णुता, सामाजिक परिवर्तन को अपनाने की इच्छा’.


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कठिन सौदेबाज़ी

भारत-अमेरिका संबंध अब एक बहुआयामी साझेदारी का रूप ले चुका है जो सैन्य एवं आर्थिक सहयोग के पारंपरिक क्षेत्रों से आगे उच्च प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष एवं साइबर जगत और स्वास्थ्य सेवाओं जैसे क्षेत्रों में ज्ञान की साझेदारी तक विस्तृत है. पूरी संभावना है कि ये संबंध अमेरिकी चुनाव तथा खुद भारत के बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद की दिशा में मुड़ने और पहचान की राजनीति पर अत्यधिक ज़ोर देने की स्थिति के परे भी कायम रहेंगे.

कुछेक भारतीय टीकाकारों को लगता है कि डेमोक्रेट प्रशासन में लोकतंत्र और धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़े मुद्दों पर भारत की हालिया आलोचना का स्तर बढ़ सकता है. लेकिन ट्रंप के हारने की स्थिति में भारत के आंतरिक मामलों को नज़रअंदाज़ करने की ट्रंप प्रशासन की प्रवृति भी शायद रिपब्लिकन नीति नहीं रह जाए.

अमेरिका के दोनों राजनीतिक दल लोकतंत्र, आर्थिक आज़ादी और धार्मिक स्वतंत्रता के पक्षधर रहे हैं. ट्रंप प्रशासन की ही तरह बाइडेन प्रशासन भी भारत के साथ साझा मूल्यों और हितों पर ज़ोर देगा. बाइडेन शायद व्यापार के मामलों में भारत के साथ तनाव को कम करें लेकिन वह अनुदारवाद की तरफ भारत के अनुभूत झुकाव पर बोलने के लिए भी तत्पर होंगे. जो भी हो, भारतीयों को स्वीकार करना होगा कि सामरिक साझेदारी पूर्णतया मतभेद रहित नहीं हो सकती.

(लेखिका वाशिंगटन डी.सी. स्थित हडसन इंस्टीट्यूट में रिसर्च फेलो और इंडिया इनिशिएटिव की निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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