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Wednesday, 18 December, 2024
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उत्तर प्रदेश में भाजपा को टक्कर समाजवादी पार्टी से मिलेगी या बसपा से

सपा और बसपा की इस समय की प्राथमिक चिंता उत्तर प्रदेश में प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप में खुद को स्थापित करने की है. क्या हमीरपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में इसके कोई संकेत हैं?

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2019 के लोकसभा चुनावों के जब परिणाम आए और यूपी में बहुजन समाज पार्टी अपनी सहयोगी समाजवादी पार्टी से दुगुनी यानी दस सीटें जीतने में सफल हुई तो एक बार ऐसा लगा था कि अब उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी पार्टी की भूमिका में बीएसपी आ गई है. लेकिन राजनीति में कोई चीज़ स्थायी नहीं होती. देखते ही देखते बीएसपी ने सपा के मुकाबले अपनी बढ़त न सिर्फ गंवा दी है, बल्कि यूपी में प्रमुख विपक्षी दल बनने की लड़ाई में सपा से पिछड़ भी गई है. इसका सबसे ताज़ा प्रमाण हमीरपुर विधानसभा सीट के लिए हुआ उपचुनाव है.

क्या कहते हैं हमीरपुर उपचुनाव के नतीजे

हमीरपुर विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में सत्ताधारी बीजेपी उम्मीदवार युवराज सिंह को 74,409 वोट मिले और वे विजयी घोषित किए गए. समाजवादी पार्टी के डॉक्टर मनोज कुमार प्रजापति 56,542 वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे. बहुजन समाज पार्टी के नौशाद अली को केवल 28,798 वोट मिले, और वे तीसरे स्थान पर रहे. कांग्रेस के उम्मीदवार हर दीपक निषाद को यहां 16,000 वोट मिल गए जो बीएसपी के वोट से कुछ ही कम है.

इस सीट पर ज्यादातर बीएसपी ही नंबर एक या नंबर दो रहती आई थी. बुंदेलखंड का ये इलाका कभी बीएसपी का गढ़ हुआ करता था, लेकिन पिछले कई चुनावों से बीएसपी यहां अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही है.

हमीरपुर में समाजवादी पार्टी अब तक केवल दो बार, 2007 में और 2014 के उपचुनाव में जीती थी, जबकि बहुजन समाज पार्टी इस विधानसभा सीट पर 1991,1996, 2002 में जीत हासिल कर चुकी है. 2012 और 2017 में इस सीट पर बीजेपी को जीत मिली थी. दोनों ही बार दूसरे नंबर पर बीएसपी थी. इस इलाके में बीएसपी के असर को देखते हुए ही 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा ने ये सीट बीएसपी के लिए छोड़ी थी.

हमीरपुर के चुनाव परिणाम इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्रदेश में बीजेपी की मज़बूती कायम है. साथ ही इस बात के भी संकेत मिले कि यूपी में प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ही है. लेकिन क्या केवल एक विधानसभा उपचुनाव के परिणाम के आधार पर ही ये मान लिया जाए कि सपा अब बीएसपी और कांग्रेस से आगे चल रही है?


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बीएसपी ने अति आत्मविश्वास में तोड़ दिया था गठबंधन

इसमें कोई शक नहीं कि 2014 में लोकसभा में शून्य सीट से आगे बढ़कर वर्तमान लोकसभा में 10 सांसदों तक पहुंच जाना बहुजन समाज पार्टी की बड़ी उपलब्धि थी. इस बात का महत्व इसलिए भी ज्यादा था क्योंकि 2017 तक राज्य में भारी बहुमत की सरकार चला रही समाजवादी पार्टी 2019 में केवल 5 सीटें जीत पाई थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में केंद्रीय तत्व बेशक बीजेपी की जीत है, लेकिन उसने अन्य दलों के संतुलन को भी बदल दिया. बीएसपी अचानक आत्मविश्वास से लबरेज़ नजर आने लगी.

बीएसपी के इसी आत्मविश्वास का नतीजा था कि मायावती ने समाजवादी पार्टी से न केवल गठबंधन खत्म करने का एकतरफा ऐलान कर दिया, बल्कि अखिलेश यादव को अपनी पार्टी सुधारने की नसीहत भी दे डाली थी. परोक्ष रूप से उन्होंने सपा को केवल यादवों की पार्टी बताते हुए कह दिया था कि अब यादवों ने भी अखिलेश के कहने पर अपना वोट बीएसपी को ट्रांसफर नहीं किया.

इसके बाद मायावती ने उपचुनाव न लड़ने की परंपरा को भी खत्म करने का ऐलान किया था और कहा था कि उनकी पार्टी अपने दम पर उपचुनाव लड़ेगी. ज़ाहिर है, उनकी मंशा समाजवादी पार्टी को तीसरे नंबर पर पिछड़ा दिखाने की थी.

हालांकि, अब बदली परिस्थितियों में समाजवादी पार्टी ही प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर दिख रही है, और बहुजन समाज पार्टी या तो तीसरे स्थान पर फिसलती दिखती है या फिर थोड़े-बहुत मतभेदों के साथ भारतीय जनता पार्टी की कई नीतियों और फैसलों का समर्थन करती दिखती है.

बीएसपी कई मुद्दों पर बीजेपी के साथ

हाल के वर्षों में बहुजन समाज पार्टी आंदोलन के मुद्दों पर तो हमेशा ही पीछे रही है. उसके कार्यकर्ता तभी सड़क पर उतरते हैं जब कोई उनकी नेता मायावती पर अभद्र टिप्पणी कर देता है. बीएसपी अब वह पार्टी नहीं है जो स्कूल के सामने शराब की दुकान बंद कराने जैसे मुद्दों पर आंदोलन चलाया करती थी और खुद मान्यवर कांशीराम ऐसे आंदोलन का नेतृत्व करते थे. शासक पार्टी बन जाने के बाद आम तौर पर हर दल की तेवर में ऐसी कमी आती है. लेकिन बीएसपी ने हर तरह के आंदोलनों से जिस तरह से खुद को अलग कर लिया है, वह अभूतपूर्व है.


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खुद बहुजन समाज पार्टी की तरफ से भी ऐसे संकेत आ रहे हैं कि उसका रवैया बीजेपी की तरफ काफी नर्म हो रहा है. जब केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 खत्म करने और जम्मू-कश्मीर के विभाजन का फैसला किया तो बीएसपी एनडीए के किसी घटक की तरह व्यवहार करती दिखी, और उसने मोदी सरकार के फैसले को तुरंत समर्थन कर दिया. इसके लिए मायावती ने इस बात का भी सहारा लिया कि बाबा साहब भीमराव आंबेडकर भी अनुच्छेद 370 के विरोधी थे. जबकि इसका कोई ऐतिहासिक या दस्तावेजी प्रमाण नहीं है कि बाबा साहब की इस बारे में क्या राय थी. सवाल ये भी उठता है कि अगर बीएसपी की राय अनुच्छेद 370 के खिलाफ थी, तो इसे उसने पहले कभी ज़ाहिर क्यों नहीं किया और इसके लिए कभी कई मांग या आंदोलन क्यों नहीं किया? यह भी दिलचस्प है कि मायावती ने अनुच्छेद 370 के मामले में कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों को ही निशाने पर ले लिया.

अनुच्छेद 370 हटाकर जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने का जिस तरह से मोदी सरकार ने फैसला किया, उसकी आलोचना तमाम विपक्षी दल कर रहे हैं. अनुच्छेद 370 हटाने के बाद से ही कश्मीर पर तमाम प्रतिबंध लगे हुए हैं और लोग घरों में दुबके रहने पर मजबूर हैं. ऐसे में मोदी सरकार का समर्थन करके मायावती ने क्या हासिल किया, ये समझ पाना मुश्किल है. ये ज़रूर है कि बीजेपी के विरोधी दल के रूप में बीएसपी ने अपनी विश्वसनीयता घटाई है.

इसके अलावा भी बीएसपी नेता मायावती यदा-कदा ट्वीट करके मोदी सरकार के कदमों का समर्थन कर देती हैं जिससे उनके समर्थकों में भ्रम पैदा होता है. खासकर आर्थिक पैकेज को लेकर सरकार के कदमों का बीएसपी ने क्यों समर्थन किया, ये एक पहेली ही है.

सोनभद्र गोलीकांड के लिए भी उन्होंने सपा और कांग्रेस को निशाने पर लिया, जबकि ये कानून और व्यवस्था की कमज़ोरी के कारण हुई घटना थी और इसे रोकने का पूरा दायित्व बीजेपी सरकार का था.

सड़कों पर लड़ रही है सपा

जनता के सवालों पर आंदोलन और ज़मीनी संघर्ष के मामले में भी समाजवादी पार्टी ही बीजेपी से लड़ती दिख रही है. चाहे वह प्रदेश में बढ़ते बलात्कार के मामले हों, या सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर मुकदमे दर्ज करने की बात हो, समाजवादी पार्टी ही बीजेपी का मुखर विरोध कर रही है.


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पार्टी के एक बड़े नेता आज़म खान पर जिस तरह से 80 से ज्यादा मुकदमे लगाए गए हैं, उससे भी समाजवादी पार्टी आंदोलनकारी भूमिका में आई है. बीजेपी सरकार जिस तरह से समाजवादी नेता को फंसाने में लगी है, उससे भी जनता में यह धारणा बन रही है कि बीजेपी को खतरा है तो समाजवादी पार्टी से ही है.

बीजेपी के सामने उग्र और मुखर होने का फायदा समाजवादी पार्टी को 2022 के विधानसभा चुनावों में मिल ही सकता है क्योंकि तब अगर जनता में धारणा बन गई कि बीएसपी का झुकाव बीजेपी की तरफ है तो उसके समर्थकों का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी की तरफ आ जाएगा. बीएसपी को चुनाव लड़ने के लिए आर्थिक रूप से दमदार उम्मीदवारों का भी अभाव झेलना पड़ सकता है.

2022 के विधानसभा चुनावों से पहले अभी 11 विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव होने हैं. इन उपचुनावों में भी अगर समाजवादी पार्टी या तो जीत हासिल करती है, या निकटतम प्रतिद्वंद्वी रहते हुए बीएसपी को तीसरे स्थान पर पछाड़ देती है, तो आगे चलकर 2022 में सपा और अधिक बड़ी भूमिका में आ सकती है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनका निजी विचार है.)

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