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Saturday, 16 November, 2024
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आधी सदी तक संघर्षों के ताप में तपा है सोरेन परिवार

हेमंत सोरेन झारखंड में संघर्ष की एक लंबी परंपरा के वारिस हैं, जिनका नेतृत्व उनके पिता और आदिवासियों के दिशोम गुरू कहे जाने वाले शिबू सोरेन ने किया था.

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भारतीय राजनीति में आज दिख रहे बहुत सारे लोगों की तरह, शिबू सोरेन और उनके बेटे हेमंत सोरेन के लिए सत्ता की राजनीति की राह बहुत आसान नहीं रही है. लगभग आधी सदी लग गयी शिबू सोरेन को राजनीति के इस मुकाम पर अपने बेटे के साथ पहुंचने में. इस आधी सदी का एक बड़ा हिस्सा पथरीली राहों पर सतत संघर्ष करते बीता है. ये विषम परिस्थितियों में अदम्य साहस, संघर्ष और बलिदान की कहानी है. मेरी पुस्तक ‘समर शेष है’ का विषय शिबू सोरेन का संघर्ष ही है.

रामगढ़-बोकारो मार्ग पर है एक कस्बा है गोला. गोला से एक सड़क अब नेमरा गांव तक जाती है जो सोरेन परिवार का पैतृक गांव है. यही हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन का जन्म एक साधारण से कृषक संथाली आदिवासी परिवार में हुआ था. पिता सोबरन सोरेन पेशे से गांव के शिक्षक और गांधी से प्रभावित कांग्रेसी विचारधारा के थे. महाजनी शोषण और गांव में शराबबंदी के लिए आंदोलन चलाया, तो महाजनों ने उनकी हत्या करवा दी. शहीदी तिथि थी, 27 नवंबर 1957. इस समय सोबरन सोरेन अपने बेटे शिबू सोरेन के स्कूल हॉस्टल के लिए चावल लेकर जा रहे थे.

उस हत्याकांड के बाद उनकी मां सोनामणि अपने दोनों बेटों का हाथ पकड़ महीनों हजारीबाग कोर्ट में अपने पति के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए चक्कर लगाती रही और एक दिन निराश हो कर इस उद्घोषणा के साथ कोर्ट परिसर से विदा हुई कि बड़ा होने के बाद उनका बेटा ही इस अन्याय का प्रतिकार करेगा.


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बालक शिबू सोरेन को पढाई छोड़ जंगल से लकड़ी काटने जाना पड़ता. संघर्ष के उन्हीं दिनों में उनकी मुलाकात कई कम्युनिस्ट नेताओं से हुई. उनमें से एक मंजूर हसन थे. विधायक बनने के बाद उनकी हत्या बाद में पटना में कर दी गई थी. सोबरन सोरेन कांग्रेसी थे जबकि शिबू सोरेन की राजनीतिक समझ कम्युनिस्टों के संसर्ग में बनी. लेकिन, उन्होंने संघर्ष का तरीका अपना चुना. तरीका ये था- जनता को इकट्ठा करके जबरन उस खेत की फसल को काट लेना जो आदिवासियों का था, लेकिन जिसे महाजनों ने छल-प्रपंच से अपने कब्जे में कर रखा था. उस आंदोलन को धनकटनी आंदोलन के नाम से जाना जाता है.

शिबू सोरेन की पहली पहचान यही धनकटनी आंदोलन बना.

इस आंदोलन के पीछे समझ ये थी कि जंगल और जमीन पर आदिवासियों का सामुदायिक स्वामित्व होता है. आजादी से पूर्व आदिवासियों के सतत संघर्ष के कारण ही अंग्रेजों को छोटानागपुर व संथाल परगना टेनेंसी एक्ट बनाना पड़ा था, जिसमें इस बात की गारंटी की गई थी कि आदिवासी अपनी जमीन का टैक्स नहीं देंगे और उनकी जमीन की गैर-आदिवासीयों द्वारा खरीद नहीं होगी. इस लिहाज से शिबू सोरेन का धनकटनी आंदोलन बिरसा और सिधो कान्हू की संघर्ष की परंपरा से जा मिलता है.

उस आंदोलन के दौरान ही उनकी मुलाकात स्व. विनोद बिहारी महतो और कॉमरेड एके राय से हुई, और उनके बागी जीवन का एक दूसरा दौर शुरु हुआ. तीनों नेताओं के साथ आने से उस समय की तीन प्रमुख सामाजिक शक्तियां – किसान, मजदूर और आदिवासी एकजुट हो गए. इनकी सम्मिलित ताकत से न सिर्फ महाजनी शोषण के खिलाफ संघर्ष तेज हुआ बल्कि कोयलांचल की माफियागिरी के खिलाफ भी झारखंडी जनता संघर्ष कर सकी. झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी झामुमो के गठन में भी इन तीनों नेताओं की बराबर की हिस्सेदारी थी, हालांकि यह दोस्ती बहुत दिनों तक चली नहीं.


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यहीं से शिबू सोरेन संसदीय राजनीति में प्रवेश करते हैं. 1980 में वे पहली बार दुमका से सांसद बने. लेकिन, इंदिरा गांधी की 84 में हुई हत्या के बाद कांग्रेस के प्रति सहानुभूति लहर में हार गये. इस तरह हार जीत का सिलसिला चलता रहा और साथ ही शुरु हुआ नये तेवर के साथ झारखंड अलग राज्य का संघर्ष. इस आंदोलन की सफल परिणति के रूप में बिहार का बंटवारा करके अलग झारखंड राज्य का गठन हुआ.

विडंबना यह कि अलग झारखंड राज्य की सत्ता पर काबिज हो गयी भाजपा, जिसने हमेशा अलग राज्य के आंदोलन का विरोध किया था. झारखंड आंदोलन के समानांतर वनांचल अलग राज्य का आंदोलन चलाने वाले दो नेताओं- समरेश सिंह और इंदर सिंह नामधारी को भाजपा ने पार्टी से निकाल दिया था. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद भी उस समय राज्य के बंटवारे के खिलाफ थे. लेकिन आगे चलकर अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने झारखंड अलग राज्य के गठन का राजनीतिक फैसला ले लिया. 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य के गठन के बाद बीजेपी नेता बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने और झामुमो हाथ मल कर रह गयी.

खैर, इस बार यानी 2019 विधानसभा चुनाव में झामुमो अपने दम पर 30 सीटें जीत कर और कांग्रेस व राजद के साथ चुनाव पूर्व बने गठबंधन के 47 सीटों के साथ सत्ता में आने वाली है. सत्ता की राजनीति से एक तरह से निरपेक्ष हो चुके झारखंड के महानायक शिबू सोरेन को इस बात का जरूर संतोष होगा कि उनका बेटा हेमंत अब इस लायक हो गया है कि बीजेपी जैसी अजेय मान ली गई पार्टी को हरा सकता है.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है, यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

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