सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर निरंतर असंसदीय और अशोभनीय भाषा का इस्तेमाल लंबे समय से विवाद और चिंता का विषय बना हुआ है. इससे पहले, राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद और उच्चतम न्यायालय भी इसके दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त कर चुका है.
इसमे कोई संदेह नहीं है कि सोशल मीडिया मंचों ने उस वर्ग को आवाज प्रदान की जिनकी सुनवाई नहीं होती थी. सोशल मीडिया पर लोगों को विभिन्न मुद्दों और दूसरी समस्याओं के बारे में निर्बाध टीका टिप्पणियां पोस्ट करने की आजादी मिली. लेकिन धीरे धीरे भारत में इसी आजादी का दुरुपयोग होने की घटनाएं बढ़ने लगीं.
फर्जी खबरो को बढ़ावा
सोशल मीडिया पर निरंकुश तरीके से अपलोड होने वाली पोस्ट और वीडियो क्लिप समाज को ही नहीं बल्कि पारिवारिक और व्यक्तिगत रिश्तों में भी दरार पैदा करने लगा है. सोशल मीडिया के माध्यम से दूरदराज के इलाकों तक कोई भी फर्जी खबर प्रसारित करने और इस तरह की निराधार और अपुष्ट खबरों की वजह से सांपद्रयिक तनाव पैदा करने की क्षमता होती है और कई मामलों में ऐसा हुआ भी है.
फर्जी खबरों के प्रसार के मकड़जाल में सबसे ज्वलंत उदाहरण कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान निजामुद्दीन स्थित मरकज में धार्मिक सभा से संबंधित खबरें और इस संबंध में तबलीगियो की गिरफ्तारियों से जुड़ी खबरें रहीं हैं. चैनलों तक ने बढ़ चढ़ कर तबलीगी जमात के लोगों को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया लेकिन बाद में उन्हें शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा.
सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में आपत्तिजनक पोस्ट आने लगे लेकिन इनके प्रति सोशल मीडिया की जवाबदेही नहीं ले रहा था. आपत्तिजनक पोस्ट हटाने के मामले में भी फेसबुक और ट्विटर जैसे मंचों का ही रवैया और इनमें न्यायपालिका का हस्तक्षेप करना पड़ा.
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सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में अनर्गल आरोप लगाने की बढ़ती घटनाओं का ही नतीजा है कि आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय से संबंधित एक प्रकरण की जांच सीबीआई को सौंपी गयी है.
सोशल मीडिया की जनता में व्यापक पहुंच देखते हुए ये मंच अपुष्ट और दुष्प्रचार का माध्यम भी बन गया. बहरहाल, सरकार की सख्ती के बाद इन मंचों ने अपनी कार्यशैली में थोड़ा बहुत बदलाव करने के संकेत दिये हैं.
स्थिति यह है कि इस समय देश की न्यायपालिका में सोशल मीडिया के रवैये लेकर अनेक मामले लंबित हैं. इन मामलों में हालांकि अभी तक सोशल मीडिया कंपनियों के खिलाफ कोई ठोस दंडात्मक कार्रवाई नहीं हुई है लेकिन इस माध्यम का दुरुपयोग करने और अनर्गल पोस्ट डालने वाले कुछ लोगों के खिलाफ कार्रवाई की है.
सोशल मीडिया पर लगातार मनमाने ढंग से काम करने के आरोप लगते रहे हैं और इन पर प्रसारित होने वाले विवरण के लिए इनकी जवाबदेही निर्धारित करने के लिए उचित कानून बनाने की मांग हो रही है. सोशल मीडिया के रवैये की देश में हो रही तीखी आलोचना और न्यायपालिका की सख्त टिप्पणियों के मद्देनजर उनकी निगरानी की जरूरत महसूस हुई.
सरकार ने फरवरी, 2021 सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 में प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों के नियम 2011 में संशोधन करके सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती संस्थाओं के लिए दिशा निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021 तैयार किये. सोशल मीडिया के देश में बढ़ते हस्तक्षेप और मनमाने तरीके से उपयोगकर्ताओं के खाते बंद करने की बढ़ती घटनाओं को लेकर इन मंचों पर अंकुश के संबंध में तरह तरह के तर्क कुतर्क दिये जा रहे हैं.
सोशल मीडिया पर राजनीति
जहां तक सवाल सोशल मीडिया की पहुंच और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का है तो इसका महत्व पहली बार 2014 के चुनाव में नजर आया जब भाजपा और नरेन्द्र मोदी की टीम ने सोशल मीडिया के माध्यम से दूरदराज तक अपनी बात पहुंचाने की कवायद में दूसरे दलों को काफी पीछे छोड़ दिया था.
फिर अचानक नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में चल रहे आंदोलन और तीन विवादित कृषि कानूनों के विरोध में किसान आंदोलन के दौरान ‘टूल किट’ चर्चा में आ गया. कांग्रेस पर भी सोशल मीडिया पर टूल किट का सहारा लेने के आरोप लगे और पुलिस तक मामला पहुंचा.
लेकिन अचानक ही पांच राज्यों के चुनाव के बाद कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने हाल ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सोशल मीडिया की भूमिका पर लोक सभा में चिंता व्यक्त करके राजनीतिक क्षेत्र में इसके दखल और दुरुपयोग की ओर सभी का ध्यान आकर्षित किया है.
सोनिया गांधी ने देश की राजनीति पर फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया कंपनियों के बढ़ते प्रभाव पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम उठाने की मांग की है. उनका बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहना था कि इन कंपनियों को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर किसी प्रकार का असर डालने से रोकने की जरूरत है.
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सोशल मीडिया के प्रभाव पर कैसे अंकुश लगाया जाए
अब यहां सवाल यह उठता है कि सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव पर कैसे अंकुश लगाया जाए? सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों, नेताओं के साथ ही विभिन्न संस्थाओं के बारे में अनेक तरह की आपत्तिजनक टिप्पणियां की जा रही हैं लेकिन जब इन पर कार्रवाई की जाती है तो एक वर्ग इसे अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा बताने लगता है.
संविधान दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी सोशल मीडिया पर न्यायाधीशों के बारे में होने वाली अनर्गल और अपमानजनक टिप्पणियों पर भी अप्रसन्नता व्यक्त की थी. चिंताजनक बात यह है कि न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में कथित आपत्तिजनक या अपमानजनक टिप्पणियां पोस्ट करने वालों में आम नागरिक ही नहीं बल्कि न्यायपालिका से संबंधित लोग भी शामिल हैं.
राष्ट्रपति ने कहा था, ‘सोशल मीडिया के मंचों ने सूचनाओं को लोकतांत्रिक बनाने के लिए अद्भुत काम किया है, फिर भी उनका एक स्याह पक्ष भी है, इनके द्वारा दी गयी नाम उजागर नहीं करने की सुविधा का कुछ शरारती तत्व फायदा उठाते हैं.’
संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के नाम पर बगैर किसी जवाबदेही के ही उच्चतर न्यायपालिका के सदस्यों पर अनर्गल आरोप लगाना अब फैशन बन गया है. कमोबेश, यही तरीका अब राजनीतिक दलों और विभिन्न सरकारों के कामकाज के संबंध में अपनाया जाने लगा है.
सोशल मीडिया पर न्यायपालिका के संदर्भ में चलने वाले कुत्सित अभियान को अब स्वतंत्र और निर्भीक न्यायपालिका की रक्षा करने के बजाये उसे डराने धमकाने की कवायद के रूप में भी देखा जाने लगा है. न्यायालय ने अपने कई फैसलों में इस प्रवृत्ति का जिक्र किया है.
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चूंकि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इन सोशल मीडिया मंचों के बढ़ते हस्तक्षेप की ओर सदन का ध्यान आकर्षित किया है, इसलिए सरकार से अपेक्षा की जाती है कि इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करेगी और यह सुनिश्चित करेगी कि ये सोशल मीडिया लोकतांत्रिक प्रक्रिया को किसी भी तरह प्रभावित नहीं कर सकें.
इसके लिए जरूरी है कि सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के नियम इस तरह से बनाये जायें कि जिससे संचार क्रांति के माध्यम से से विचार व्यक्त करने के लिए मिल रही स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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