scorecardresearch
Wednesday, 8 May, 2024
होममत-विमतलोक कल्याण समिति, वह संगठन जिसने लाल बहादुर शास्त्री को राष्ट्रीय मिशनरी बनाया

लोक कल्याण समिति, वह संगठन जिसने लाल बहादुर शास्त्री को राष्ट्रीय मिशनरी बनाया

शास्त्री को आनंद भवन में 'लिटिल स्पैरो' उपनाम मिला - विजय लक्ष्मी पंडित ने सबसे पहले उन्हें इस नाम से बुलाया क्योंकि उनकी लंबाई काफी कम थी.

Text Size:

सिर्फ दो ऐसे संस्थान हैं जहां भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन – 2 अक्टूबर – संभवतः महात्मा गांधी के समान उत्साह के साथ मनाया जाता है, वह है लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी और लोक कल्याण समिति या एसओपीएस (SoPS): पहला संस्थान इसलिए क्योंकि इसका नाम उनके नाम पर रखा गया है, और बाद वाला संस्थान इसलिए क्योंकि वे उसके आजीवन सदस्य थे और जनवरी 1966 में उनकी मृत्यु के समय वह सोसायटी के अध्यक्ष थे.

लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी के बारे में काफी कुछ लिखा गया है. इस कॉलम को मैं लोक कल्याण समिति और उनके जीवन को आकार देने में इसकी भूमिका के लिए समर्पित करूंगा.

शास्त्री ने हमेशा इस बात का जिक्र किया कि लोक कल्याण समिति में उनका प्रशिक्षण ही था जिसने एक लोक सेवक के रूप में उनके चरित्र को आकार दिया. उनके अपने शब्दों में: ‘सोसायटी की आजीवन सदस्यता के कारण ही मुझे अपने देश की सबसे अधिक सेवा करने का अवसर मिला. सोसायटी ने मुझे ‘लोगों के सेवक’ शब्द का सही अर्थ समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

शास्त्री और उनकी बलिदान की भावना

लोक कल्याण समिति की शुरुआत लाला लाजपत राय द्वारा 1921 में कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के अध्यक्ष के रूप में चुने जाने के एक साल बाद की गई थी. वह गोपाल कृष्ण गोखले के नक्शे-कदम पर चल रहे थे, जिन्होंने 1905 में कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में चुने जाने के बाद सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी (एसआईएस) की स्थापना की थी.

जैसा कि लाला जी ने कहा था, “शुरू से ही विचार एक इस प्रकार की राष्ट्रीय मिशनरी बनाने का था, जिनका एकमात्र उद्देश्य पदोन्नति की लालसा के बिना, या अपने सांसारिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए की इच्छा के बिना, सेवा की भावना से, अपना पूरा समय राष्ट्रीय कार्य में समर्पित करने का हो.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

वे समाज द्वारा उन्हें दिए जाने वाले भत्ते से संतुष्ट हों, और वे तुलनात्मक गरीबी का जीवन जीने को तैयार हों, जो कि अपने आप में एक महान आदर्श है.

वे अपना काम त्याग की भावना से करें और अपने तरीके से वे दूसरों के लिए एक प्रकार का उदाहरण बनें. इस प्रकार, जबकि उनसे राजनीतिक और सामाजिक चेतना बढ़ाने की अपेक्षा की गई थी, सामाजिक उत्थान और स्वयं-सहायता का कार्य भी यदि अधिक नहीं तो राजनीतिक मुक्ति जितना ही महत्वपूर्ण था. (एसओपीएस वार्षिक रिपोर्ट, 1927)

समय के साथ, लाला लाजपत राय की राजनीति गोखले की तुलना में तिलक की राजनीति के करीब हो गई – दोनों क्रमशः कांग्रेस में गरमपंथी और नरमपंथी खेमों के दिग्गज थे.

तिलक की मृत्यु के बाद, लाला जी ने सबसे पहले तिलक स्कूल ऑफ़ पॉलिटिक्स की स्थापना की, जो भारत में अपनी तरह का पहला संस्थान था जहां शिक्षा में राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, सामाजिक मनोविज्ञान, पत्रकारिता और सामाजिक कार्य शामिल थे.

किसी भी विश्वविद्यालय की संबद्धता से स्वतंत्र, इसका उद्देश्य राष्ट्रीय मिशनरियों को प्रशिक्षित करना, सामाजिक विज्ञान में उनके शोध को सुविधाजनक बनाना और उन्हें भारत की भाषाओं में इन विषयों पर किताबें, पत्रिकाएं और लोकप्रिय लेख प्रकाशित करने के लिए प्रोत्साहित करना और इस संस्था से संबंधित एक अच्छी तरह से सुसज्जित संस्थान की स्थापना और देखभाल करना था.

इसके बाद तिलक स्कूल, लोक कल्याण समिति में बदल गया, और ‘पूर्णकालिक’ लोगों की भर्ती की, जो निर्वाह भर के वेतन पर जीवन यापन करते थे, एक निश्चित अवधि के लिए सक्रिय राजनीति से दूर रहते थे, और यदि कमाई का नियमित स्रोत हो, तो उनसे समाज में योगदान करने की अपेक्षा की जाती थी.’

इस मॉडल का आरएसएस और कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा सफलतापूर्वक पालन किया गया है, जिनके पास समर्पित कार्यकर्ताओं का एक समूह है और जो अपना सारा समय पार्टी के लिए समर्पित करते हैं.

प्रधानमंत्री मोदी ने अपना करियर आरएसएस के पूर्णकालिक सदस्य के रूप में शुरू किया, ठीक उसी तरह जैसे प्रकाश करात ने दूसरी ओर की राजनीतिक विचारधारा के साथ अपने करियर की शुरुआत की.


यह भी पढ़ेंः दून साहित्य के छात्रों के लिए 6 किताबें- उन्हें क्यों चुना, 1900-1947 के भारत के बारे में वे क्या कहती हैं 


कैसे हुई भर्ती

एसओपीएस की स्थापना के बाद, राय ने ‘सर्वेंट्स ऑफ पीपल’ की भर्ती के लिए काशी विद्यापीठ का दौरा किया. यहां उन्होंने चांसलर डॉ. भगवान दास से मुलाकात की और उनसे प्रथम श्रेणी के ऐसे स्नातकों का नाम सुझाने को कहा जो कि एसओपीएस के लिए अपना जीवन समर्पित करने के इच्छुक हों.

लाल बहादुर का नाम सामने आया, और उन्हें तुरंत लाला जी ने तुरंत नियुक्त करके अपने साथ लाहौर चलने के लिए कहा, जहां उन्होंने एसओपीएस की भूमिका और कार्यों को समझने और अस्पृश्यता उन्मूलन, महिला शिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा और श्रमिक आंदोलन जैसे मुद्दों पर कुछ महीने बिताए.

ये वे मुद्दे थे जिनमें लाला लाजपत राय व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों तरीकों से शामिल थे. जिस पुस्तकालय में उन्होंने प्रशिक्षण लिया था, उसका नाम द्वारका दास के नाम पर रखा गया था, और इसमें पुस्तकों का एक बेहतरीन कलेक्शन था – इसमें कार्ल मार्क्स और बर्ट्रेंड रसेल से लेकर स्वामी विवेकानंद और स्वामी राम तीर्थ तक – अधिकांश समकालीन विचारकों की रचनाएं थीं. किताबें अंग्रेजी, उर्दू, फ़ारसी, हिंदी और गुरुमुखी में थीं. जेल में रहने के दौरान भगत सिंह को द्वारका दास लाइब्रेरी से किताबें मिलती थीं.

कुछ महीनों के लिए लाहौर में प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद, शास्त्री को SoPS के तत्वावधान में अच्युत उद्धार समिति (अस्पृश्यता उन्मूलन कार्यक्रम) की मेरठ और मुजफ्फरनगर शाखाएं सौंपी गईं.

यहां उन्होंने अपने सहकर्मी और मित्र अलगू राय शास्त्री के साथ काम किया, जो उन्हीं की तरह काशी विद्यापीठ से स्नातक थे. दोनों गांवों का दौरा करते थे, स्कूलों और पंचायतों में, पेड़ों के नीचे और जहां संभव हो उन आर्य समाजियों के घरों में बैठकें भी करते थे जो इस अभियान में सबसे आगे थे.

हालांकि, आर्य समाज के साथ निकटता से काम करने के बावजूद, वह कभी भी औपचारिक रूप से उनमें शामिल नहीं हुए. कोई भी इस बात का अंदाजा लगा सकता है कि यह कार्य कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा, भले ही आर्य समाज, कांग्रेस और दोनों एसआईएस और एसओपीएस अस्पृश्यता के अभिशाप को मिटाने की पूरी कोशिश कर रहे थे, कई रूढ़िवादी हिंदू इस तरह के आमूल-चूल परिवर्तन के विरोध में थे.

वास्तव में, जिस समय तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स और एसओपीएस की शुरुआत हुई, उसी समय पंजाब के आर्य समाज नेताओं ने भी जात-पात तोड़क मंडल की स्थापना की, जिसने अंतर्-भोज और अंतर्-विवाह को बढ़ावा दिया.

यह वह संगठन था जिसने सबसे पहले डॉ. अंबेडकर को ‘जाति उन्मूलन’ पर बोलने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन बाद में आंतरिक विरोध के कारण उन्होंने रुखसत ले लिया.

भाग्य ने कुछ ऐसा खेल रचा कि एसओपीएस के काम के सिलसिले में शास्त्री को वापस इलाहाबाद आना पड़ा. 1928 में लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करते समय लाठीचार्ज के कारण घायल होने के कारण लाला जी की मृत्यु के बाद, सर्वसम्मति से पुरुषोत्तम दास टंडन को संगठन का प्रमुख चुना गया.

हालांकि, टंडन ने लाहौर के बजाय अपने गृहनगर इलाहाबाद से काम करना पसंद किया. उन्होंने एसओपीएस में अपने काम में मदद के लिए लाल बहादुर को इलाहाबाद कार्यालय में रखने के लिए कहा.

ड्राफ्टिंग, रिकॉर्ड-कीपिंग में उनके कौशल और कई दृष्टिकोणों को सुनने की क्षमता को देखते हुए, वह जल्द ही टंडन और नेहरू के भी विश्वासपात्र बन गए.

भले ही दोनों अपने वैश्विक विचारों और व्यक्तित्वों में बिल्कुल अलग थे, फिर भी उनका दोनों के साथ बहुत अच्छा तालमेल था.

वह एक महान समाधानकर्ता थे क्योंकि उन्होंने नेहरू और पुरूषोत्तम दास टंडन दोनों के लिए काम किया था – नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते और टंडन को एसओपीएस के मुखिया होने के नाते रिपोर्ट करते थे.

दोनों नेता अधिकांश बातों पर असहमत थे: दो अपवाद थे देश की आजादी, और लाल बहादुर की दक्षता क्योंकि वह इन दोनों के लिए मसौदा तैयार करने में सक्षम थे.

उन्हें आनंद भवन में लिटिल स्पैरो उपनाम मिला – विजय लक्ष्मी पंडित ने सबसे पहले उन्हें इस नाम से बुलाया क्योंकि वह काफी छोटे थे, और कुछ अवसरों पर बिना किसी का ध्यान आकर्षित किए गिरफ्तारी से बच गए!

(संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डायरेक्टर हैं. हाल तक, वह लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः मत भूलिए सावरकर ने ‘हिन्दुस्तान’ कहा था, ‘भारत’ तो टैगोर, कैलेंडर और मंदिरों से लोकप्रिय हुआ 


 

share & View comments