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Monday, 9 December, 2024
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मिडिल क्लास और महिलाओं के लिए स्कीम: क्या BJP को मिल गया है चुनाव जीतने का फॉर्मूला

अगर कोई सरकार जानती है कि अमीरों को कैसे एकजुट किया जाए और उसने यह पता लगा लिया है कि सीधे पैसे भेजने से गरीबों के वोट कैसे जीते जाएं, तो उसे मध्यम वर्ग की कोई ज़रूरत नहीं है.

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हालांकि, इस पर उतना ध्यान नहीं गया जितना जाना चाहिए था, लेकिन महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव एक ऐसा चुनाव था जिसका पत्रकारों ने सही अंदाज़ा लगाया था.

उस चुनाव से पहले और खासतौर पर लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद पारंपरिक धारणा यह थी कि महाराष्ट्र में भाजपा खत्म हो चुकी है. एकनाथ शिंदे की शिवसेना के लिए, इसे एक क्षणिक घटना के रूप में देखा गया जिसे जल्द ही भुला दिया जाएगा.

लेकिन जैसे-जैसे अभियान आगे बढ़ा, मैंने महाराष्ट्र में यात्रा करने वाले लगभग सभी पत्रकारों से बात की और कहा कि पारंपरिक धारणा गलत थी: ऐसा लग रहा था कि शिंदे और उनकी सेना यहीं रहने वाले हैं और भाजपा-शिवसेना गठबंधन महाराष्ट्र जीतेगा.

पत्रकारों ने कहा कि इस बदलाव का कारण महिलाओं का वोट था. शिंदे ने लाडकि बहिण योजना शुरू करके महिला मतदाताओं को सफलतापूर्वक आकर्षित किया था, जो कि एक नकद हस्तांतरण योजना है. इन महिला मतदाताओं ने चुनावों के तरीके को बदल दिया था.

चुनाव के बाद, भाजपा-सेना की महिला मतदाताओं से अपील सभी टीवी कार्यक्रमों और चुनाव विश्लेषण लेखों में परिणामों के लिए मानक व्याख्या बन गई है.

मैं इस विश्लेषण से असहमत नहीं हूं. मुझे बस लगता है कि हम परिणामों के बारे में बहुत संकीर्ण दृष्टिकोण अपना रहे हैं. मुद्दा सिर्फ यह नहीं है कि भाजपा-सेना सरकार ने महिला मतदाताओं से अपील करके चुनाव जीता. बड़ा मुद्दा यह है कि गठबंधन ने मतदाताओं को नकद हस्तांतरण करके अपनी किस्मत बदल दी.

वर्तमान राजनीति कैसे काम करती है इसका एक और उदाहरण है: चुनाव उन पार्टियों द्वारा जीते जाते हैं जो मतदाताओं को वास्तव में नकद हस्तांतरण करती हैं और फिर भी राजनेता कभी-कभी यह स्वीकार करने से हिचकिचाते हैं कि भारतीय राजनीति में प्रचलित प्रवृत्ति विकास के एजेंडे को छोड़कर मतदाताओं को केवल नकद पैसे भेजने की है.


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कुछ के लिए ‘रेवड़ी’, दूसरों के लिए सुधार

बीजेपी का उदाहरण लीजिए. जब कांग्रेस ने 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (नरेगा) पेश किया, तो बीजेपी (नरेंद्र मोदी सहित) ने अन्य ऐसी योजनाओं के साथ-साथ इसका कड़ा विरोध किया. हाल ही में, प्रधानमंत्री ने मतदाताओं को रेवड़ी देने वाली पार्टियों का माखौल उड़ाया और सुझाव दिया कि ऐसा करना बहुत खराब बात है.

दरअसल, बीजेपी की बयानबाजी थोड़ी पाखंडी से अधिक है. नियम यह है: जब दूसरे ऐसा करते हैं, तो यह रेवड़ी है. जब बीजेपी ऐसा करती है, तो यह भारतीय जनता के लिए एक बड़ा कदम है.

चुनाव परिणाम के अगले दिन प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स में एक महत्वपूर्ण लेख में रोशन किशोर ने यह मुद्दा उठाया कि बीजेपी अक्सर नकद हस्तांतरण का सहारा लेती है जब उसे यकीन नहीं होता कि वह अपने रिकॉर्ड के आधार पर जीत सकती है. किशोर का तर्क है कि 2019 के आम चुनाव के नतीजे, जिसका श्रेय हम अक्सर बालाकोट हवाई हमले को देते हैं, नरेंद्र मोदी के पीएम-किसान कार्यक्रम के कारण भी थे, जिसे वे “पूर्वव्यापी- अभी नकद भेजें, बाद में पात्रता सत्यापित करें-योजना” के रूप में वर्णित करते हैं. किशोर यह भी तर्क देते हैं कि जब भाजपा मतदाताओं को पैसा नहीं भेजती है (2024 का अंतरिम बजट उनका उदाहरण है), तो उसके बाद के चुनावों में उसका प्रदर्शन अपेक्षाकृत खराब होता है.

बेशक, यह सिर्फ भाजपा की ही प्रथा नहीं है. अन्य पार्टियां भी ऐसा करती हैं. झारखंड में हेमंत सोरेन की जीत का एक कारण उनकी मंईया सम्मान योजना थी. गरीबों को नकद हस्तांतरण में विश्वास रखने वाले मुख्यमंत्रियों ने यह समझ लिया है कि जब तक आप चुनाव से पहले के महीनों में नकद पैसे भेजते हैं, तब तक आप अपने प्रदर्शन से किसी भी तरह के गुस्से और निराशा को बेअसर कर सकते हैं.

जीत के लिए कल्याण

यह कि भारतीय राजनीति में बदलाव एक ऐसी वास्तविकता बन गई है, जिसकी किसी ने 2005 में उम्मीद नहीं की थी, जब कांग्रेस ने नरेगा योजना शुरू की थी. सोनिया गांधी ने तर्क दिया कि आर्थिक उदारीकरण ने भारत को बदल दिया है, लेकिन यह गरीबों को लाभ पहुंचाने में विफल रहा है. उन्होंने कहा कि जब भी वे भारत के गांवों में जाती हैं, तो उन्हें लगता है कि गरीबों के लिए सच में कुछ भी नहीं बदला है.

यह मनमोहन सिंह का विचार नहीं था, जो वित्त मंत्री के रूप में 1991 में उदारीकरण के वास्तुकार थे. सिंह औपचारिक अर्थव्यवस्था और सभी भारतीयों को परिवर्तन और लाभ पहुंचाने की इसकी क्षमता में यकीन करते थे. सोनिया ने तर्क दिया कि हालांकि, यह लंबे समय में सच हो सकता है, लेकिन गरीबों को कोई लाभ देखने में बहुत समय लग रहा है.

यूपीए के कार्यकाल के दौरान ये दो वैचारिक धाराएं समानांतर चल रहीं थीं. सोनिया और उनकी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (जिसे कई समर्पित उदारवादियों ने झोलावालों के समूह के रूप में निंदा की) ने अधिक प्रत्यक्ष स्थानान्तरण और ऋण माफी की वकालत की, जबकि मनमोहन सिंह और उनके अर्थशास्त्री सहयोगियों को चिंता थी कि ऐसे उपाय अर्थव्यवस्था को विकृत कर सकते हैं.

यूपीए-1 की सफलता सोनिया और मनमोहन द्वारा साझा उद्देश्य खोजने और कल्याणकारी योजनाएं शुरू करने में निहित थी. यह विरासत यूपीए से भी अधिक समय तक कायम रही है.

यही कारण है कि मौजूदा सरकारें चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करती हैं: उनके पास मतदाताओं को नकद हस्तांतरित करने की क्षमता होती है और हर पार्टी, चाहे वह सार्वजनिक रूप से कुछ भी कहे, इस सिद्धांत के कुछ भिन्न रूपों का पालन करती है.

भारतीय राजनीति के लिए परिणाम सोनिया या मनमोहन की कल्पना से कहीं अधिक मौलिक हैं.


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मध्यम वर्ग : जी आप कौन?

आज कोई भी इस बात पर विवाद नहीं करता कि सभी राजनीतिक दल अपने चुनाव अभियानों के लिए कॉरपोरेट धनकुबेरों पर निर्भर हैं. भाजपा और गौतम अडाणी के बारे में आरोप वर्तमान सुर्खियों का विषय हैं और पिछले लोकसभा अभियान के दौरान, प्रधानमंत्री ने वास्तव में अडाणी और मुकेश अंबानी को उद्योगपति के रूप में नामित किया, जिन्होंने कांग्रेस को पैसे से भरे टेम्पो भेजे थे.

इसलिए, कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन चुना जाता है, धनकुबेर और अरबपति हमेशा ठीक रहते हैं.

गरीबों के लिए यह प्रत्यक्ष हस्तांतरण, कल्याणकारी योजनाएं और लाभों का वितरण है जो तेजी से निर्धारित करते हैं कि वह किसके लिए वोट करेंगे. वह तभी वोट करते हैं जब उन्हें कुछ तत्काल लाभ मिलता है.

अब मध्यम वर्ग बचता है. मध्यम वर्ग के कई सदस्य, जो कभी नरेंद्र मोदी के कट्टर समर्थक थे, ने शिकायत की है, खासकर पिछले बजट के बाद, कि उनके हितों की अनदेखी की जा रही है. शेयर बाज़ार के खराब प्रदर्शन के साथ — शायद पिछले बजट में पेश किए गए पूंजीगत लाभ कर परिवर्तनों के कारण — और मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए कर दरों में बदलाव नहीं किए जाने से गुस्सा और बढ़ गया है.

और फिर भी सरकार मध्यम वर्ग की शिकायतों या मध्यम वर्ग के हितों पर कोई ध्यान नहीं देती है.

अगर आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है, तो यहां आपका जवाब है: अगर सरकार जानती है कि अमीरों को कैसे एकजुट किया जाए और उसने यह पता लगा लिया है कि सीधे हस्तांतरण के ज़रिए गरीबों के वोट कैसे जीते जाएं, तो उसे मध्यम वर्ग की कोई ज़रूरत नहीं है.

हां, शुरुआत में ही उसका समर्थन पाकर अच्छा लगा, लेकिन, रुकिए ज़रा, चीज़ें बदलती रहती हैं!

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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