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Tuesday, 10 December, 2024
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अग्निपथ योजना को फुटबॉल का खेल बनने से बचाएं, प्रस्तावित सेवा अवधि पर सर्वसम्मति ज़रूरी

‘सीडीएस’ और तीनों सेनाध्यक्ष तत्काल और बड़ा कदम यह उठा सकते हैं कि वह सेवा अवधि की लंबाई के बारे में एक फैसला करें. इसके लिए चार साल की सेवा अवधि खत्म होने का इंतजार करने की ज़रूरत नहीं है.

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अग्निपथ योजना को लेकर संसद और मीडिया में जिस तरह की बहस चल रही उससे साफ है कि यह राजनीतिक फुटबॉल के खेल में तब्दील हो गया है. यह हमने 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी देखा था और आगे भी यह खेल जारी रह सकता है क्योंकि सत्ताधारी एनडीए गठबंधन के सहयोगी नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू) इस योजना के खिलाफ है.

खेल के नज़रिए से इसे एक ऐसी योजना माना जा रहा है जिसमें 75 फीसदी अग्निवीरों को दूसरे सरकारी कर्मचारियों की तरह स्थायी रोज़गार नहीं दिया जाता. इसकी जगह केवल चार साल की सरकारी सेवा की गारंटी है और केवल 25 फीसदी अग्निवीरों को नौकरी में बनाए रखने का प्रावधान है. आगे सेवा विस्तार के लिए नहीं चुना गया तो एकमुश्त 5 लाख रुपये ‘सेवा निधि’ के रूप में दिए जाएंगे और इसके अलावा अनिवार्य मासिक बचत के तहत जमा राशि मिलेगी. केंद्र सरकार की कुछ एजेंसियों में आरक्षण के तहत या विशेष योजना के तहत रोजगार के कुछ विकल्प उपलब्ध कराए गए हैं.

पिछले सप्ताह गृह मंत्रालय ने 2022 में किए गए अपने इस वादे को दोहराया कि अग्निवीरों को केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (सीएपीएफ) और असम राइफल्स में 10 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. गृह मंत्रालय ने यह भी कहा कि इन संगठनों में सिपाही की नौकरी दी जाएगी और इसके लिए कोई शारीरिक परीक्षण नहीं करवाना होगा. यह पेशकश दोहराने की ज़रूरत उन दावों का खंडन करने के लिए आन पड़ी कि अग्निपथ योजना भर्ती के उस मॉडल को कमजोर करती है जिसके तहत स्थायी नौकरी और आजीवन पेंशन का प्रावधान किया गया था. यह इस बात को भी रेखांकित करता है कि घरेलू राजनीति के तहत इस मसले को ‘एक रोजगार योजना’ के रूप में पेश किया जा रहा है जबकि यह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है और न इसे ऐसा होने दिया जा सकता है.

पेश करने की असली वजह

हालांकि, अग्निपथ योजना को राजनीतिक दृष्टि से एक ऐसे मंच के रूप में पेश किया गया था, जो देश के युवाओं को देश की सेवा करने का मौका उपलब्ध कराती, लेकिन यह भर्ती के मॉडल में परिवर्तन करने की और इस योजना को लागू करने वजह कभी नहीं थी. हालांकि, इसे कभी आधिकारिक रूप से कबूल नहीं किया गया, मगर इसे पेश करने की असली और जायज़ वजह यह थी कि पेंशन पर खर्च का आकार भारी हो गया था. यह सेना के आधुनिकीकरण और पुराने पड़ रहे सैन्य साजो-सामान को बदलने में रक्षा बजट की क्षमता को कमजोर कर रहा था. इन ज़रूरतों को रक्षा बजट में वृद्धि करके कुछ हद तक पूरा किया जा सकता था. प्रतिरक्षा मामलों की संसदीय समिति एक दशक से ज्यादा समय से इस मसले को उठा रही थी, लेकिन इस बीच बनी सरकारों ने इसमें वृद्धि नहीं की बल्कि जीडीपी के मुकाबले रक्षा बजट के प्रतिशत का अनुपात लगभग जस का तस बनाए रखा. इसे विस्तार से जानने के लिए ‘दिप्रिंट’ में हाल में प्रकाशित इस लेखक के लेख को देखें.

वक्त आ गया है जब सरकार अग्निपथ योजना को लागू करने की असली वजह को कबूल करे कि पेंशन पर खर्च बढ़ता जा रहा है और यह लोगों की औसत आयु में वृद्धि और ‘वन रैंक, वन पेंशन’ नीति के कारण और बढ़ेगा. सरकार को इस योजना की निरंतर वार्षिक समीक्षा करनी चाहिए और उसमें ज़रूरी बदलावों की पहचान करनी चाहिए. यह ज़िम्मेदारी सेनाओं के नेतृत्व के पेशेगत दायरे में आती है और इसे सेना के दबदबे पर इस योजना के कारण पड़ने वाले प्रभाव की दृष्टि से आंका जाना चाहिए. मानव शक्ति के लिहाज़ से सेना का दबदबा सैनिकों के कुशल सामूहिक कार्यों से बंधा है. इसमें सैन्य साजो-सामान का इस्तेमाल करने की क्षमता और यूनिट/सब-यूनिट कमांडर के अधीन पूरे तालमेल से काम करना शामिल है.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देने के लिए सेना का दबदबा बढ़ाने में मानव पूंजी सबसे ज्यादा अहमियत रखती है. चूंकि, इस बारे में फैसला पूरी तरह सेना के पेशेवरों के जिम्मे होना चाहिए इसलिए अग्निपथ योजना का भविष्य चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और तीनों सेनाओं के अध्यक्षों के हाथ में है और इसका मुख्य ताल्लुक सेना में अग्निवीरों की सेवा अवधि बढ़ाने से है, जहां तक सेनाध्यक्षों की बात है, उनके लिए यह मसला इसलिए जटिल है क्योंकि हर एक सेना को अपने सैनिकों से अलग-अलग स्तर के सैन्य कौशल की अपेक्षा होती है. सामान्य नियम के मुताबिक, अपने पेशे से जुड़े कामों के लिए अग्निवीरों को जितने ज्यादा तकनीकी हुनर की ज़रूरत होगी उतनी ही उनकी सेवा अवधि वर्तमान चार साल से आगे बढ़ाने की ज़रूरत पड़ेगी. यह सेना के एक अंग के आंतरिक कामों के लिए अलग होगी और सेना के अंगों के बीच के काम के लिए अलग होगी.


यह भी पढ़ें: अग्निपथ खत्म भी कर दी जाती, तो भी सेना के पेंशन बिल में कमी लाने वाले सुधार करने ही होंगे


तालमेल की संभावना

योजना के वर्तमान ढांचे को ही बनाए रखा गया तो तरह-तरह की मांगों के बीच तालमेल बनाना चुनौतीपूर्ण हो जाएगा. मूलतः, मांगों में अंतर सेवा अवधि और सेना के दबदबे पर उसके असर से जुड़ा होगा. अलग-अलग कामों के लिए अलग-अलग सेवा अवधि तय करना प्रशासनिक दृष्टि से शायद अव्यावहारिक होगा. चूंकि, थिएटर कमांड व्यवस्था लागू की जाने वाली है, जिसमें एकीकरण और संयुक्तिकरण निर्णायक महत्व रखते हैं, इसलिए अलग-अलग अंगों के लिए अलग-अलग सेवा अवधि की गुंजाइश नहीं होगी.

समस्या यह पैदा होगी कि सेना का हरेक अंग सेवा अवधि के बारे में अलग राय रखेगा, लेकिन तालमेल तब मुमकिन हो सकता है जब सभी तीनों अंगों के लिए न्यूनतम लंबी सेवा अवधि स्वीकार की जाए. इसलिए, नौसेना अगर छह साल की सेवा अवधि पर ज़ोर देती है और थल तथा वायु सेना का काम पांच साल की सेवा अवधि से चलता हो, तब हर पक्ष नौसेना के नज़रिए को कबूल करेगा. शुद्ध पेशेगत नज़रिए से, सेवा अवधि तो सेना के दबदबे में को बनाए रखने के लिए ज़रूरी पेशेगत मानदंडों को हासिल करने में जवान की योग्यता और क्षमता के आधार पर तय की जानी चाहिए.

हर एक बैच से फिलहाल 25 फीसदी को ही आगे सेवा विस्तार देने का फैसला किया गया है और यह भी सेना के दबदबे को प्रभावित कर सकता है, लेकिन इसका महत्व सेवा अवधि की दृष्टि से ही ज्यादा है. चयन किए जाने वालों के अनुपात में कोई भी बदलाव शुरू के कुछ बैचों की सेवा अवधि पूरी होने के बाद ही किया जा सकता है.

अगला बड़ा कदम

‘सीडीएस’ और तीनों सेनाध्यक्ष तत्काल और बड़ा कदम यह उठा सकते हैं कि वह सेवा अवधि की लंबाई के बारे में एक फैसला करें. इसके लिए चार साल की सेवा अवधि खत्म होने का इंतजार करने की ज़रूरत नहीं है. सेना के सभी स्तर पर नेतृत्व को ट्रेनिंग और अपने सैनिकों का नेतृत्व करने का इतना अनुभव तो है ही कि वे सेवा अवधि के बारे में फैसला कर सकें. ज़ाहिर है, चार साल बहुत छोटी अवधि है, क्योंकि तकनीकी हुनर और अनुभव की जरूरत और बढ़ी ही है.

अब सवाल उठाया जा सकता है कि जब सेना के नेतृत्व वर्ग को पता था कि चार साल बहुत छोटी अवधि है, तो उसने इसे कबूल क्यों किया? इसका जवाब भारत के सिविल-मिलिटरी रिश्ते के समीकरण में छिपा है, जिसमें मूलभूत नहीं, तो काफी सुधार की ज़रूरत है.

अग्निपथ योजना में मौजूदा चार साल की सेवा अवधि के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव के मद्देनज़र इसमें संशोधन की ज़रूरत को सीडीएस तथा सेनाध्यक्षों द्वारा प्राथमिकता दी जानी चाहिए. उन्हें सेवा अवधि में संशोधन को लेकर सर्वसम्मत राय बनानी चाहिए. इसके बाद मसले को प्रधानमंत्री के सामने पेश करना चाहिए. इसका जो नतीजा निकलेगा वह राष्ट्रीय हित के मामलों से सामना होने पर संकीर्ण घरेलू राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठने की राजनीतिक नेतृत्व की इच्छाशक्ति का खुलासा कर देगा. सैन्य नेतृत्व को त्वरित कदम उठाना चाहिए ताकि घरेलू राजनीति के दबाव-खिंचाव सेना की खासियत, उसके दबदबे को किसी तरह से कमजोर न कर पाएं.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (सेवानिवृत्त) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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