जिस बुनियादी चीज़ की सबसे ज्यादा जरूरत है वह है सैन्य उपकरणों में अधिक आत्मनिर्भरता की. हालांकि, अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों ने यूक्रेन को भारी सैन्य और कूटनीतिक समर्थन प्रदान किया है, लेकिन कीव ने वास्तव में जो उम्मीद की थी, वह उससे कम हो गया है. यूक्रेनी राष्ट्रपति वलोडिमिर ज़ेलेंस्की अभी भी ज्यादा से ज्यादा और बड़ी सहायता की गुहार लगा रहे हैं.
भले ही यूक्रेन और पश्चिम दोनों के साझा हित इसी में हैं कि रूस की हार हो फिर भी दोनों में काफी मतभेद है. पश्चिम युद्ध के बढ़ने की संभावना से चिंतित है और इसका मतलब है कि वे कीव को जो सहायता देना चाहते हैं उसको लेकर काफी सावधानी बरत रहे हैं. आपूर्ति किए जाने वाले उपकरणों के बारे में लंबी बहस हुई है, जिसमें लंबी दूरी की तोपें, युद्धक टैंक और अब लड़ाकू जेट शामिल हैं.
सैन्य उपकरणों पर निर्भरता
युद्ध के बढ़ने की जो आशंकाएं हैं वह काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई हैं, लेकिन यहां एक बड़ी बात है. एक देश जो विदेशी सैन्य आपूर्ति पर निर्भर करता है, वह हमेशा दूसरों की दया पर रहेगा, भले ही वे कई सामान्य हितों को साझा करते हों.
इसी तरह देर से मिलने वाला सैन्य समर्थन भी काफी नहीं है. यूक्रेन के मामले में, वह सैन्य समर्थन और नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) की सदस्यता भी जल्दी चाहता था. यह उस सबक को पुष्ट करता है जिसे भारत को चीन के साथ 1962 के युद्ध में अपने अनुभव से सीखना चाहिए था. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी अमेरिकी सैन्य समर्थन मांगा था लेकिन कोई मदद आने से पहले ही युद्ध समाप्त हो गया था. 62 का युद्ध छोटा था. लेकिन एक लंबे युद्ध के लिए में भी यह सच है. आप जो चाहते हैं उसके बजाय आपको जो उपलब्ध है और जो पेशकश की जा रही है, उसे लेने की संभावना होगी.
यूक्रेन के को अलग-अलग आपूर्तिकर्ताओं ने छोटी मात्रा के उपकरणों की सप्लाई की जिसकी वजह से स्थित और ज्यादा खराब हो गई खासकर तब जब आपको विभिन्न उपकरणों की छोटी संख्या की की बार-बार मरम्मत करनी पड़ रही हो. उदाहरण के लिए, जर्मन निर्मित लेपर्ड -2 टैंक यूक्रेन के लिए यूएस अब्राम्स की तुलना में बेहतर हो सकता है, इसका एक कारण यह है कि लेपर्ड इस क्षेत्र के कई और देशों के साथ उपलब्ध है. मध्य यूरोप में यूक्रेन के कई दोस्त न केवल खुद टैंकों की बल्कि कल-पुर्जों की भी आपूर्ति कर सकते हैं. एक तरह का मॉडल होने से तमाम लॉजिस्टिक समस्याएं खत्म हो जाती हैं.
भारत पहले से ही कई देशों से सैन्य उपकरण प्राप्त करने में समस्या का सामना कर रहा है. क्या वे सभी युद्ध में रिप्लेसमेंट और पुर्जों की आपूर्ति करने के लिए तैयार होंगे, यह देखा जाना बाकी है, खासकर चीन के साथ संघर्ष में. कई लोगों के बीजिंग के साथ गहरे आर्थिक संबंध हैं और वे परमाणु युद्ध के खतरे के बारे में चिंतित हो सकते हैं. रूस, विशेष रूप से, उनकी ‘नो लिमिट पार्टरनरशिप’ में ‘जूनियर पार्टनर‘ बन गया है जिसके कि निकट भविष्य में बदलने की संभावना भी नहीं है. युद्ध के दौरान भारत को सैन्य उपकरणों की आपूर्ति करने वाले मास्को पर बीजिंग शायद मेहरबान न दिखे.
हालांकि सैन्य उपकरणों का स्वदेशीकरण भारत में वर्षों का लंबा लक्ष्य रहा है, लेकिन यह संभावना नहीं है कि भारत कम से कम एक दशक तक इस श्रृंखला से मुक्त हो सकता है. चीन की तुलना में अंतर स्पष्ट है: चीन अब अपने अधिकांश सैन्य उपकरणों का निर्माण करता है और वे ज्यादातर तकनीकी रूप से उन्नत भी हैं. ये अंतर विशेष रूप से बता सकते हैं कि युद्ध कुछ हफ्तों से अधिक समय तक चलेगा या नहीं.
यह एक और मुद्दा उठाता है: युद्ध की अवधि.
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युद्ध का ‘लंबा’ और ‘छोटा’ होना
ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की योजना हमेशा कुछ हफ़्ते तक चलने वाले एक छोटे, तेज़ युद्ध पर केंद्रित है. जहां तक पाकिस्तान से निपटने का संबंध था, यह शायद समझ में आता था क्योंकि विरोधी अधिक लंबा युद्ध कर भी नहीं सकता था. लेकिन चीन अलग है. हालांकि, चीन की स्थिति इससे अलग है. भारत-चीन संघर्ष का एक पहलू क्षेत्रीय है, जो कि इस बात की गारंटी नहीं है कि युद्ध छोटा होगा.
बीजिंग युद्ध को इसलिए भी सटीक तरह से लंबा खींच सकता है क्योंकि वह युद्ध का भार वहन कर सकता है जबकि भारत इस स्थिति में नहीं है. एक लंबा युद्ध, जो कुछ हफ्तों से अधिक समय तक चलता है, भारत की कड़ी परीक्षा लेगा क्योंकि भारत महत्वपूर्ण वस्तुओं के आयात पर बहुत अधिक निर्भर है. यहां तक कि कारगिल युद्ध में भी, जो पूर्ण पैमाने पर युद्ध भी नहीं था, उसके बारे में भारतीय सेना प्रमुख जनरल वी.पी. मलिक ने संकेत दिया था कि भारत के वॉर वेस्टेज रिजर्व (जो हथियार भीषण युद्ध होने की स्थिति में सेना रिजर्व रखती है) अपर्याप्त साबित हुए. यह स्पष्ट नहीं है कि आज स्थिति काफी बेहतर है या नहीं, लेकिन 2016 में उरी हमले के बाद भी भारत को आपूर्ति के लिए संघर्ष करना पड़ा था. हो सकता है कि पंद्रह दिनों की गहन लड़ाई के लिए, या तीस दिन के लिए भी, युद्ध भंडार पर्याप्त न हों. भारत की स्थिति को देखते हुए, यह स्पष्ट नहीं है कि इस समस्या को कैसे ठीक किया जा सकता है क्योंकि स्ट्रैटीजिक ऑटोनॉमी से संबंधित सारी बातें अभी तक रूसी हथियारों पर भारत की अत्यधिक निर्भरता को कम करने में सक्षम नहीं हुई हैं.
एक और सबक जो मिलता है, खासकर रूसी पक्ष से वह यह है कि निरंकुश शासन के अपने खतरे हैं. उदार लोकतंत्रों के शोर, भ्रम और अत्यधिक पारदर्शिता दूर, निरंकुश व्यवस्थाओं की अक्सर उनके केंद्रीकृत निर्णय लेने और स्पष्ट उद्देश्य व दिशा के लिए प्रशंसा की जाती है. यह हमेशा से एक मिथक रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह बात और ज्यादा स्पष्ट हो गई है. न केवल रूसी आक्रमण बल्कि चीन का मूर्खतापूर्ण रणनीतिक व्यवहार भी निरंकुशता की अक्षमता खोजने और उसमें सुधार करने के गलत कदमों को और ज्यादा मजबूती देने की उनकी प्रवृत्ति को दर्शाता है. ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र में गलतियां नहीं होतीं, लेकिन लोकतंत्र उनसे निपटने में बेहतर दिखाई देता है क्योंकि गलतियों को एक पोलिटिकल सिस्टम में कागज पर उतारना अधिक कठिन होता है जो कि घरेलू राजनीतिक और नीतिगत विरोध का सम्मान करता है.
अंत में – यूरोपियन पावर्स और ग्लोबल साउथ – का रूसी आक्रमण के प्रति प्रतिक्रिया दिखाता है कि अच्छे समय में मित्रों की क्या सीमाएं हैं. जाहिर है, जैसा कि भारत ने किया, कई लोगों ने क्षेत्रीय संप्रभुता के नारों के बजाय अपने भौतिक हितों को देखा. यदि भारत और चीन कभी भी आमने-सामने आ जाते हैं तो यह कोई अलग नहीं होगा. यूरोप और ग्लोबल साउथ के साथ खुशी-खुशी हाथ मिलाने से न तो चीन डरेगा और न ही भारत को मदद मिलेगी जब स्थिति कठिन होगी.
उनके हित उन आर्थिक लाभों में निहित हैं जो चीन से व्यापार के जरिए उन्हें मिलती है और वे चीन को नाराज नहीं करना चाहेंगे.
उनके हित चीन-भारत युद्ध के भाग्य से सीधे प्रभावित नहीं होते हैं. इसलिए वे तटस्थ रहेंगे, समझौता करने का आग्रह करेंगे और परमाणु युद्ध के खतरों के बारे में बात करेंगे. भारतीय हित हिंद-प्रशांत और अन्य जगहों पर उन लोगों के साथ हैं जो चीन से डरते हैं और जिनके हित भारत के समानांतर हैं.
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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(संपादनः शिव पाण्डेय)
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