scorecardresearch
Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतआर्थिक अव्यवस्था भारत की एक सच्चाई है लेकिन यह एक अवसर भी है

आर्थिक अव्यवस्था भारत की एक सच्चाई है लेकिन यह एक अवसर भी है

चीन की सुपर ग्रोथ की कहानी का उपसंहार मुमकिन है, जिसका फायदा भारत उठा सकता है लेकिन उसे समझना पड़ेगा कि व्यवस्थागत अव्यवस्था एक बड़ी हकीकत है जिसे कबूल करना ही पड़ेगा.

Text Size:

इस साल के शुरू से अल्पकालिक आर्थिक वृद्धि की संभावनाओं के कमजोर पड़ने, ऊर्जा की लागत में वृद्धि, व्यापार संतुलन में अधिक नकारात्मकता, वित्तीय असंतुलन, पोर्टफोलियो पूंजी के बाहर जाने, रुपये की कीमत में गिरावट, कंपनियों की बढ़ती सावधानी, बाजार में घबराहट, और उपभोक्ताओं पर महंगाई की मार के कारण आर्थिक क्षितिज पर काले बादल घिरने लगे थे.

इन सबके पीछे अपने कारण तो हैं ही, कई के स्रोत वैश्विक स्थिति में भी हैं लेकिन केवल उन्हीं के ऊपर ज़ोर देना गलत होगा. दीर्घकालिक प्रवृत्तियों को भी समझने की जरूरत है.

आर्थिक प्रवृत्तियों को समझने के लिए प्रायः ‘एनट्रॉपी’ यानी व्यवस्थागत अव्यवस्था का उपयोग नहीं किया जाता, लेकिन यह माध्यम का निर्धारण करने में अगर घटनाओं की दीर्घकालिक दिशा को नहीं, तो आज कामकाज में अव्यवस्था और ढीलापन को अच्छी तरह रेखांकित करता है. माना जाता है कि ‘एनट्रॉपी’ समय के साथ बढ़ती जाती है जबकि आर्थिक प्रवृत्तियां चक्राकार घूमती हैं; लेकिन चक्र लंबा होता है (मान लीजिए 60 साल का) तो अंतर महत्व नहीं रखता.

बढ़ी हुई आर्थिक ‘एनट्रॉपी’ के जटिल अणुओं में कई तत्व शामिल होते हैं. पहला तत्व है अमीर और गरीब देशों में कमजोर कंधों पर वैश्वीकरण का भारी वजन और इसके साथ देश के अंदर तथा वैश्विक स्तर पर उन कुलीनों का उत्कर्ष जिनके पास अकूत धन होता है. दूसरा तत्व है— वित्तीय पूंजीवाद (2008 के वित्तीय संकट का एक कारण) के वैचारिक वर्चस्व से पैदा हुई आकस्मिक अमीरी का अधिक नाटकीय प्रदर्शन, जिसके बाद ‘वेंचर कैपिटलिज्म’ को प्रमुखता हासिल हुई. तीसरे तत्व, और इसके समानांतर विकास हुआ है ‘बिग टेक’ की ताकत और उसके प्रभाव में वृद्धि का.


यह भी पढ़ें: क्वाड चुनौतियों का सागर है, नौसेना को अंग्रेजों के जहाज डुबोने वाले मराठा सरखेल से सीख लेनी चाहिए


‘ग्रेट गैट्सबी’ युग के पुनरागमन के साथ उन व्यवसायों और उनके नकली स्टार्ट-अप का उभार हुआ है, जो ‘जो जीता वही सिकंदर’ जुमले में विश्वास करते हैं, सुरक्षित रोजगार की जगह मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था आई है, और हानिकारक मध्यस्थहीनता शुरू हुई है. इसके तीन उदाहरण हैं—पारंपरिक वित्तीय व्यवस्था डिजिटाइजेशन और बिग डाटा से प्रभावित हुई है; मीडिया विषैले, सूत्र मुक्त सामाग्री के बिग टेक के स्पोन्सरशिप से प्रभावित हुआ है; और खुदरा व्यापार ई-कॉमर्स से प्रभावित हुआ है.

धनतंत्रवादियों और श्रमजीवियों में बंटे समाज के निर्माण की ओर ले जाने वाले इन मौलिक परिवर्तनों को चौथी प्रवृत्ति की ओर से चुनौती मिली है. वह प्रवृत्ति है गरीब देशों से बड़ी संख्या में प्रवासियों का अमीर देशों में जबरन प्रवेश. पांचवां तत्व यह है कि चीन (और भारत जैसी कुछ छोटी अर्थव्यवस्थाओं) के उभार के बाद सत्ता संतुलन बदला है, पुराने सत्ता समीकरण बदले हैं लेकिन उथलपुथल से नया समीकरण अभी नहीं बना है.

इसके साथ, जैविक विज्ञान के तहत गुप्त प्रयोगशालाओं में खतरनाक अनुसंधानोन और जानवरों तथा पक्षियों के औद्योगिक स्तर पर फ़ार्मिंग के चलते एक के बाद एक महामारी/ संक्रमण—मैड काउ रोग, सार्स, बर्ड फ्लू, कोविड-19, और अब मंकी फॉक्स— से पैदा हुए संकट को जोड़ लीजिए. इसका प्रतीकार भी हो रहा है. कार्ल आइलान जैसे फाइनांसर ने गर्भवती सूअरों के साथ प्रयोगों के लिए मैकडोनल्ड को चेताया है.

इसका एक नतीजा यह हुआ है कि सप्लाइ चेन खुले हैं और यात्रा तथा पर्यटन व्यवसाय को धक्का पहुंचा है. सामान और लोगों की आवाजाही में व्यवधान आया है. अंत में, ग्लोबल वार्मिंग के कारण जबरन किए जा रहे तकनीकी परिवर्तन को जोड़ लें, जो खास उद्योगों को ही नहीं बल्कि पूरे के पूरे सेक्टरों (ऊर्जा, परिवहन, मैनुफैक्चरिंग) को अचानक क्रमभंग का सामना करना पड़ा है.

अव्यवस्था के इन विविध, अप्रत्याशित तत्वों के आर्थिक प्रभाव हानिकारक रहे हैं, जियसे 2008 का वित्तीय संकट. अनियंत्रित वित्तीय पूंजीवाद के साथ, अमेरिका में स्थिर आर्थिक आय वाले समूहों को आवास मुहैया कराने की राजनीतिक मांग के खतरनाक मेल के कारण जो ‘समाधान’ किया गया उसके चलते सार्वजनिक कर्ज में भारी इजाफा हुआ.

जब कोविड-19 ने चुनौती दी तो विचित्र किस्म का मौद्रिक नीतियां लागू की गईं. अब उन्हें वापस लेने की कोशिश से न केवल स्थिरता आई लेकिन शायद मुद्रास्फीति के साथ मंदी (एक और घातक कॉकटेल) भी आई और शेयर बाजार में गिरावट भी.

राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर जो कुछ किया जा रहा है, चाहे वह राजनीतिक भाई-भतीजावाद का उभार हो या दूसरी सच्चाइयों के प्रसार के लिए आर्थिक राष्ट्रवाद का उभार हो या ब्रेक्सिट और डोनल्ड ट्रंप को आगे बढ़ाना, वह सब अस्तव्यस्तता को ही प्रतिबिंबित करते हैं. उदार लोकतंत्र के आदर्श को ताकतवर नेता के शासन के जरिए वैचारिक चुनौती मिल रही है, जबकि सत्ता परिवर्तन (ऊपर से लेकर नीचे तक) ने हरेक देश को प्रतिरक्षा पर खर्च बढ़ाने को मजबूर किया है, जो कि आम तौर पर अच्छा संकेत नहीं है.

घटनाक्रम चीन की सुपर ग्रोथ की कहानी का उपसंहार कर सकते हैं. इससे भारत फायदा उठा सकता है लेकिन उसे समझना पड़ेगा कि ‘एनट्रॉपी’ यानी व्यवस्थागत अव्यवस्था एक बड़ी हकीकत है जिसे कबूल करना ही पड़ेगा.

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: जलवायु बिगड़ने के साथ भारत का बिजली सेक्टर संकट में, सरकार को कुछ करना होगा


share & View comments