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Sunday, 22 December, 2024
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ऋषि सुनक का प्रधानमंत्री बनना ब्रिटेन में बसने की तमन्ना रखने वाले भारतीयों के लिए बुरी खबर है

ऋषि सुनक, सुएला ब्रेवरमैन, प्रीति पटेल जैसे लोग ज्यादा ब्रिटिश दिखने के चक्कर में मुमकिन है कि भारत से नए आप्रवासियों के आने में रुकावट पैदा करें.

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ऋषि सुनक ने ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने के बाद अपना मंत्रिमंडल बनाया तो उसमें पिछली सरकार की गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन को इसी मंत्रालय में बनाए रखा. सुएला ब्रेवरमैन भारतीय प्रवासियों के ब्रिटेन आकर बसने के खिलाफ बयान देने के कारण चर्चा में रहीं हैं. उन्होंने हाल ही में कहा था कि – ‘ब्रिटेन में विदेशों से आकर बसने वालों को देखिए. जो लोग आकर यहां नियम से ज्यादा टिक जाते हैं, उनमें भारतीय सबसे ज्यादा हैं.’

तो क्या माना जाए कि ऋषि सुनक सरकार प्रवासियों के लिए उसी नीति पर चलेगी जिस नीति का समर्थन करती सुएला ब्रेवरमैन नजर आती हैं. हालांकि इस बारे में अभी और बातें स्पष्ट होनी हैं. लेकिन ब्रिटिश मीडिया को ऐसा लगता है कि ऋषि सुनक आप्रवासियों की आमद में कटौती करने वाले हैं.

ये भारतीय लोगों के लिए बुरी खबर होगी क्योंकि हाल के वर्षों में ब्रिटेन में सबसे ज्यादा दक्षिण एशिया और खासकर भारत के लोग जाकर बस रहे हैं. ब्रिटेन में वीजा नियम सख्त होते हैं तो इसका सबसे ज्यादा असर भारतीय लोगों पर ही पड़ेगा.

इससे पहले ब्रिटेन की गृहमंत्री रहीं प्रीति पटेल भी आप्रवासियों के आने पर सख्ती करने के लिए जानी जाती हैं. उन्होंने फ्रांस से समुद्र के रास्ते नावों से आने वाले प्रवासियों और रिफ्यूजी लोगों को वापस धकेल देने की नीति भी बना ली थी. इसे पुशबैक पॉलिसी नाम से जाना जाता है. हालांकि तब के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने इस नीति पर कभी अमल होने नहीं दिया और समुद्र से आने वाले प्रवासियों का मामला गृह मंत्रालय से लेकर रक्षा मंत्रालय को सौंप दिया.

दरअसल, ये मामला कोर्ट में चला गया था और इस बात का खतरा था कि कोर्ट सरकार की खिंचाई कर देगा. सुनक, ब्रेवरमैन और पटेल तीनों यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन के बाहर आने (ब्रेक्जिट) के समर्थक हैं. इसकी एक वजह ये है कि यूरोपियन यूनियन में देशों के बीच आने-जाने पर पाबंदी नहीं है. ब्रेक्जिट समर्थकों को लगता है कि यूरोपियन यूनियन में रहने से तमाम तरह के प्रवासी ब्रिटेन आकर बस जाएंगे.


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सुनक, ब्रेवरमैन और पटेल में एक और दिलचस्प समानता है, तीनों के ही माता और पिता भारतीय मूल के हैं.

– ऋषि सुनक के दादा और दादी गुजरांवाला (अविभाजित भारत और अब पाकिस्तान) के थे. वहां से दोनों केन्या गए और फिर 60 के दशक में ब्रिटेन आ गए.

– सुएला ब्रेवरमैन के पिता गोवा में जन्मे और केन्या के रास्ते ब्रिटेन पहुंचे. उनकी मां भी भारतीय थीं. वे एक अन्य अफ्रीकी देश मॉरिसस के रास्ते ब्रिटेन आईं. इनका ब्रिटेन आना भी 60 के दशक में ही हुआ.

– प्रीति पटेल के भारतीय मूल के माता और पिता युगांडा से ब्रिटेन आए. ये भी उसी दौर में हुआ.

इन अर्थों में सुनक, ब्रेवरमैन और पटेल तीनों उस कैटेगरी में आते हैं जिन्हें ब्रिटेन में ट्वाइस-माइग्रेंट कहा जाता है. इन्हें ईस्ट अफ्रीकन एशियन भी कहा जाता है. ये समूह है तो आप्रवासी, लेकिन अन्य अप्रवासियों, जो सीधे ब्रिटेन पहुंचे, से खुद को अलग और ज्यादा ब्रिटिश मानता है. चूंकि ब्रिटेन आने से पहले ये ब्रिटिश उपनिवेश में रहते थे, ज्यादातर ब्रिटिश सरकार के लिए या उनके सहयोग से काम करते थे और इनके पास ब्रिटिश पासपोर्ट था, इसलिए ज्यादा ब्रिटिश होने का इनका दावा गलत भी नहीं है.

मैं इस लेख में ये समझने की कोशिश करूंगा इन तीनों प्रमुख नेताओं का ‘नए या संभावित आप्रवासियों’ के प्रति जो रवैया है, जिसमें नफरत के तत्व भी हैं, का सिरा कहां है. मैं इसे इन व्यक्तियों के निजी व्यवहार से नहीं, एक सामाजिक व्यवहार के तौर पर देखना चाहूंगा.

भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों का अफ्रीका जाना

भारत के पश्चिमी हिस्से और पूर्वी अफ्रीका के बीच सिर्फ हिंद महासागर है. व्यापार के लिए इन लोगों के बीच आना-जाना काफी पहले से होता रहा है. लेकिन ये बड़े पैमाने पर जाकर बसने वाली बात नहीं थी. भारत के लोग बड़े पैमाने पर उपनिवेश की जरूरतों के कारण अफ्रीका ले जाए गए. गन्ने की खेती के लिए भारतीय लोगों को फिट माना गया और ब्रिटिश शासन और व्यापारियों ने भारतीय गिरमिटिया मजदूरों को खासकर दक्षिण अफ्रीका के नेटाल प्रांत और मॉरीशस में बसाया. इनमें से काफी लोगों का भारत से रिश्ता टूट गया और वे वहीं के होकर रह गए. दिलचस्प है कि ये लोग बड़ी संख्या में ब्रिटेन जाकर नहीं बसे.

ब्रिटेन में अफ्रीका से भारतीय लोगों का जो झुंड गया, वो मुख्य रूप से केन्या, युगांडा, मालावी और तंजानिया से गए लोगों का था. इन देशों में भारतीय लोग सबसे पहले तो रेल लाइन बिछाने के लिए मजदूरों के तौर पर लाए गए और उनमें से काफी लोग फिर कभी भारत नहीं लौटे. इसके बाद भी खासकर ब्रिटिश उपनिवेशों में भारत के लोग प्रोफेशनल, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, क्लर्क, अकाउंटेंट और बिजनेसमैन के तौर पर जाकर बसते रहे. ये लोग मुख्य रूप से शहरों में बसे और इनके पास ब्रिटेन का पासपोर्ट भी था. ये लोग अफ्रीकी उपनिवेश में ब्रिटिश बनकर गए. इनमें से काफी लोग ब्रिटिश प्रशासन और सरकार में कर्मचारी और अफसर भी रहे.

1950 के दशक से इन देशों में आजादी की लड़ाई शुरू हुई जो 60 का दशक आते आते तेज हो गई. लड़ाई उपनिवेशवादियों के खिलाफ थी, लेकिन उनके सहयोगी या प्रशासनिक कर्मचारी के तौर पर भारतीय लोग भी आंदोलनकारियों के निशाने पर रहे. भारतीय व्यापारियों को भी उन्होंने शोषक के तौर पर देखा. इनकी अमीरी ने भी इन्हें अफ्रीकी आंदोलनकारियों का निशाना बनाया.

इस विषय के अध्येता लियोनार्ड विलियम्स ने अपने शोधपत्र में बताया है कि किस तरह भारतीय लोगों की स्थिति अफ्रीकी मूलवासियों और ब्रिटिश गोरे लोगों के बीच में होती थी. अफ्रीकी लोग सरकार के तौर पर कई बार भारतीय लोगों को ही सामने देखते थे और व्यापारी भी उन्हें भारतीय ही नजर आते थे. इसलिए वे स्वतंत्रता आंदोलन के निशाने पर आ गए.

60 के दशक के बाद वाले दौर में ये देश एक एक कर आजाद हो गए. आजादी के बाद इन देशों के नए शासक ‘अफ्रीका अफ्रीकी लोगों के लिए’ नीति पर चले. शासन, प्रशासन और सत्ता व आर्थिक स्रोतों पर अफ्रीकी लोगों को लाने की नीति का बुरा असर भारतीय लोगों पर भी पड़ा. नए जमीन कानून बनाए गए, जो अफ्रीकी लोगों को समर्थ बनाने के मकसद से लाए गए थे.

इस पूरी प्रक्रिया में भारतीय लोगों के सामने इन देशों से चले जाने की नौबत आ गई. केन्या और तंजानिया में ये अपेक्षाकृत धीरे-धीरे हुआ. लेकिन युगांडा के शासक जनरल ईदी अमीन ने तो एक दिन अचानक एक डेडलाइन दे दी कि इस तारीख तक सभी एशियाई लोग युगांडा छोड़कर चले जाएं.

भारत ने अफ्रीका जाकर बसे भारतीय लोगों को नहीं अपनाया

अफ्रीका, खासकर पूर्वी अफ्रीकी देशों में, स्वाधीनता संग्राम के बाद जब वहां बसे भारतीय लोगों पर संकट आया, तो भारत उनके साथ खड़ा नहीं हुआ. उस दौर में भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेता था और दुनिया भर में हो रहे आजादी के आंदोलनों का समर्थन कर रहा था. भारत की घोषित नीति थी कि जो लोग भारत की नागरिकता छोड़कर चले गए हैं, उन्हें अपने नए अपनाए हुए देश का होकर रहना चाहिए.

जवाहरलाल नेहरू ने ऐसे मामलों में दूसरे देशों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई. वैसे भी इन देशों में गए भारतीय उपनिवेशवादियों के समर्थक या सहयोगी थे. भारत की नीति के कारण इन देशों में बसे भारतीय मूल के लोगों के लिए घर-वापसी का विकल्प नहीं था. यही वजह है इन देशों से ज्यादातर लोग ब्रिटेन और कुछ लोग अमेरिका चले गए. ब्रिटिश सरकार के ज्यादातर कर्मचारी ब्रिटेन चले गए.

यही वह परिस्थिति है जिसमें सुनक, पटेल और ब्रेवरमैन परिवार ब्रिटेन आया. ये बात ध्यान देने की है इस तरह भारतीय मूल के जो लोग अफ्रीका से ब्रिटेन आए वे अपेक्षाकृत अमीर और शिक्षित थे. ये दो बार अपने देश बदलने वाले लोग थे और इस क्रम में उनमें स्थितियों से निपटने की बेहतर क्षमता भी थी. शासन प्रशासन के करीब रहने के कारण उनमें आत्मविश्वास भी आ चुका था. जबकि जो लोग भारत से सीधे ब्रिटेन गए थे, उनमें किसान और मजदूर वर्ग के काफी लोग थे.

साथ ही जो लोग सीधे भारत से ब्रिटेन गए थे, वे अक्सर पहली बार में परिवार लेकर नहीं गए थे. उन्होंने अपना परिवार बाद में बसाया या परिवार के कुछ लोगों को बाद में ब्रिटेन ले गए. जबकि अफ्रीका से आए भारतीय मूल के लोग परिवार और कुनबे से साथ आए. इन्हें इस तंत्र का फायदा मिला.

एक और फर्क ये है कि जो लोग भारत से सीधे ब्रिटेन गए, उनका संबंध भारत से बना रहा. उनमें से कई लोगों ने भारत में अपने परिवार पाले और भारत में नए घर बनाए, यहां जमीन जायदाद खरीदी. उन्होंने खुद को पूरी तरह ब्रिटेन में नहीं झोंका. इनके ख्वाबों में भारत हमेशा बना रहा. जबकि अफ्रीका से आए एशियाई लोगों के लिए पीछे कोई देश नहीं था. उनका पूरा ध्यान ब्रिटेन में अपनी तरक्की सुनिश्चित करने में लगा.

इन स्थितियों में अफ्रीका से आए एशियाई, खासकर भारतीय लोग ब्रिटेन में जल्द ही स्थापित हो गए और सबसे समृद्ध और शिक्षित समुदायों में शामिल हो गए. लेकिन भारत से इनका कोई लेना देना नहीं रहा. ज्यादा ब्रिटिश दिखने के चक्कर में मुमकिन है कि ये लोग भारत से नए आप्रवासियों के आने में रुकावट पैदा करें.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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