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Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतसुनक की ताजपोशी पर खुश हो रहे हैं भारतीय, लेकिन वंश परंपरा और वफादारी दोनों में फर्क है

सुनक की ताजपोशी पर खुश हो रहे हैं भारतीय, लेकिन वंश परंपरा और वफादारी दोनों में फर्क है

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तो अपने अफ्रीकी-अमेरिकी मूल की खूब चर्चा की थी मगर ऋषि सुनक खुद को ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी के बस एक और नेता के रूप में देखा जाना पसंद करते हैं.

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जब यह तय हो गया की ऋषि सुनक ही ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनेंगे तब कई भारतीयों को लगा मानो उनकी ही जीत हुई हो, या कहें उनकी ही पुष्टि हुई हो. विंस्टन चर्चिल के उस चर्चित बयान का बार-बार हवाला दिया गया कि ‘भारतीय नेता कितने बदमाश, लुटेरे, मंदबुद्धि हैं… वे सत्ता के लिए आपस में लड़ेंगे और भारत राजनीतिक झगड़ों में बर्बाद हो जाएगी.’

यह एक दिलचस्प विरोधाभास था क्योंकि चर्चिल की ही पुरानी कंजर्वेटिव पार्टी ने सत्ता के लिए जारी अंतहीन राजनीतिक कलह के बाद छह सप्ताह के भीतर अपना तीसरा नेता चुना, और वह भी उसे जो भारतीय मूल का है, हालांकि न वह ‘बदमाश’ है और न ‘मंदबुद्धि’ है.

चर्चिल ने इसी तरह की कई बातें कही थी. वे भारतीयों से दिल की गहराई से नफरत करते थे, हालांकि वे भारत को तब तक खूब पसंद करते रहे जब तक वह ब्रिटिश जायदाद बना रहा. उनके साथी लिओ एमरी के अनुसार, वे भारतीयों को ‘पाशविक धर्म वाले पाशविक लोग’ कहा करते थे. इसलिए हिंदू ऋषि सुनक जब 10, डाउनिंग स्ट्रीट में आ गए तब हमने सुना चर्चिल अपनी कब्र में बुरी तरह करवट बदल रहे थे.

ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में चर्चिल के विचारों से नफरत करने वाला मैं आज उनके बयानों को खोज-खोज कर खुश हो रहा हूं. लेकिन याद रहे, भारतीयों के बारे में चर्चिल के बयानों का हमारी संस्कृति से कम और हमारी नस्ल से ताल्लुक है. ब्रिटिश साम्राज्य के कई पैरोकारों की तरह उन्हें भी संदेह था अश्वेत लोग अपना राजकाज ठीक से चला भी सकेंगे या नहीं. इस मामले में वे रुडयार्ड किपलिंग जैसे थे, जिन्होंने मशहूर किताब ‘व्हाइट मैन्स बर्डेन’ लिखी और उपनिवेशवाद को ‘धरती पर ईश्वर के साम्राज्य पर एक दैवी बोझ’ देसी लोगों को सभ्य बनाने का साधन है.

इसलिए, सुनक की वंश परंपरा से ज्यादा उनका रंग प्रधानमंत्री पद के लिए उनके चुनाव का सबसे असामान्य पहलू बना. ब्रिटेन जबकि संकट में है, अंततः वे ही भूरे आदमी की तरह बोझ उठाने जा रहे हैं.


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सुनक को गर्व है कि वे ब्रिटिश हैं

लेकिन कुछ शर्तें भी हैं. सबसे पहले, हम यह कबूल कर लें कि सुनक भारतीय नहीं हैं. उन्हें गर्व है कि वे ब्रिटिश हैं. उन्हें ‘भारतीय मूल’ का बताना भी बात को खींचने का मामला है. उनके माता-पिता पूर्वी अफ्रीकी एशियाई हैं. वे हमें भारतीय इसलिए ज्यादा लगते हैं क्योंकि वे नारायण मूर्ति के दामाद हैं. लेकिन हम यह न भूलें कि उनकी पत्नी ने अपना भारतीय पासपोर्ट कायम रखा है जबकि सुनक जन्म से ही ब्रिटिश नागरिक हैं.

बराक ओबामा से तुलना को भी भूल जाइए. ओबामा ने इस बात को काफी प्रचारित किया था कि वे अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के हैं, नस्लवाद पर काफी बातें की, और नस्लवादी मसलों पर अक्सर ज़ोर देते रहे हैं. दूसरी ओर सुनक चाहते हैं कि उन्हें एक और टॉरी नेता (पारंपरिक) के रूप में ही देखा जाए. ऐसा लगता है कि वे यह सोचते (और मानते भी) हैं कि नस्ल से बहुत फर्क नहीं पड़ता.

कई अश्वेत टॉरी नेता उसी तरह नस्लवादी एजेंडा पर चलते हैं जिस तरह श्वेत टॉरी नेता और दक्षिणपंथी नेता चलते हैं. लेखक-पत्रकार संथानम संघेरा ने लंदन के ‘द टाइम्स’ में सारगर्भित लेख लिखा है कि जब सुनक को अपनी पार्टी के सदस्यों से (जिनमें से कई दक्षिणपंथी और संभवतः नस्लवादी हैं) वोट मांगने के लिए प्रांतों में गए तो उन्होंने उन्हीं मुहावरों का प्रयोग किया, जिसे पारंपरिक दक्षिणपंथी टॉरी नेता इस्तेमाल करते हैं.

उन्होंने ‘वामपंथी आंदोलनकारियों’ पर इसलिए हमला किया कि वे हमारे इतिहास, हमारी परंपराओं, और हमारे बुनियादी मूल्यों पर बुलडोजर चलाने’ की कोशिश कर रहे हैं. ब्रिटेन में जब कई लोग अपने देश के साम्राज्यवादी अतीत पर आलोचनात्मक नज़र डाल रहे हैं, तब उन्होंने कहा कि ‘ब्रिटेन को बदनाम करना’ अपराध माना जाए. संघेरा ने एक इंटरव्यू में कंजर्वेटिव पार्टी की महिला अध्यक्ष सईदा वारसी को उदधृत किया: ‘टॉरी पार्टी में जो जातीय अल्पसंख्यक हैं उन्हें सबसे उग्र दक्षिणपंथियों से भी ज्यादा दक्षिणपंथी बनना ही था.’

आतंकित करने वाली गृह मंत्री सुएल्ला ब्रेवरमैन, जो भारत पर हमले करती रहती हैं और पूर्वी अफ्रीकी एशियाई मूल की हैं उनके बयानों पर ध्यान देने वालों को मालूम होगा कि वारसी कहना क्या चाहती थीं. ब्रेवरमैन ने अपने माता-पिता को ‘साम्राज्य की गौरवपूर्ण संतानें’ कहा और उसका बचाव किया और अपने इस ‘सपने’ का जिक्र किया कि वे संभावित शरणार्थियों को क्रिसमस तक रवांडा रवाना कर देना चाहती हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि ब्रेवरमैन को लिज़ ट्रस ने सुरक्षा में चूक के मामले में बर्खास्त कर दिया और सुनक ने पदभार संभालने के पहले दिन ही उन्हें तुरंत बहाल कर लिया.

वंश परंपरा से तय नहीं होती वफादारी

लेकिन सुनक के बचाव में दो बातें कहना जरूरी है. पहली यह कि वे ब्रेवरमैन या अपने पूर्ववर्ती गृह मंत्री प्रीति पटेल जितनी कायर नहीं हैं. दूसरे, वे अपनी राजनीति को अपने जातीय मूल या रंग से परिभाषित क्यों होने देंगे? वे खुद को ब्रिटिश मानते हैं. तो उन्हें ब्रिटिश राजनीतिक नेता की तरह काम करने दीजिए. हां, उनके कुछ पूर्वज भारत में पैदा हुए थे. पाकिस्तान के नेताओं के भी पूर्वज भारत में पैदा हुए थे. मूल वंश से यह नहीं तय होता कि आप कितने भारत समर्थक हैं.

हम विदेश में राजनीति में सफल होने वाले गेहुंआ चमड़ी वालों पर गर्व करें, यह तो समझा जा सकता है लेकिन हमें यह मानना होगा कि प्रवासी भारतीयों का भारत के साथ मजबूत सांस्कृतिक (और कहीं धार्मिक भी) रिश्ता है लेकिन उनकी वफादारी उनके पूर्वजों की धरती के प्रति नहीं बल्कि उन देशों के प्रति होगी जिसे वे अपना घर मानते हैं.

एक स्तर पर हम इसे कबूल करते हैं. हम जानते हैं कि भारतीय मूल के लोग मॉरिशस जैसे देशों के राजनीतिक तंत्र के शिखर तक पहुंचे हैं. लेकिन भारत नहीं बल्कि मॉरिशस के प्रति उनकी वफादारी पर हम कभी शक नहीं करते. यही स्थिति कैरीबियाई देशों के मामले में है. क्या हम गुयाना या त्रिनिदाद में बसे भारतीय मूल के लोगों को भारतीय मानते हैं या उनसे भारत का समर्थन करने की उम्मीद करते हैं?

बात जब पश्चिमी देशों की आती है तभी हमारी अपेक्षाएं बदल जाती हैं. कमला हैरिस अपनी मां की वजह से भारत से सांस्कृतिक रूप से जुड़ी हैं. लेकिन वे पूर्णतः अमेरिकी हैं. हम उनसे यह क्यों अपेक्षा करें कि उनका झुकाव भारत की ओर होगा? यही बात सुनक और ब्रिटेन की वर्तमान पीढ़ी के नेताओं पर लागू होती है. वे ब्रिटिश हैं. सांस्कृतिक और जातीय पहचान उन्हें भारतीय नहीं बना देती. फिर भी, ट्विटर पर ऐसे लोग नज़र आए जो यह उम्मीद जाहिर कर रहे थे कि सुनक कोहिनूर हीरा भारत को लौटा देंगे.

हमें यह कबूल करने में इतना कष्ट क्यों होता है कि पश्चिम में भारतीय मूल के नेताओं की वफादारी भारत के प्रति नहीं बल्कि उस देश के प्रति होनी चाहिए जहां वे रहते हैं? इसकी वजह शायद यह है कि पश्चिम में भारतीय मूल के नेताओं का उत्कर्ष एक नयी घटना है. और मुख्यतः इसलिए कि विंस्टन चर्चिल जैसों की गालियों और ब्रिटिश राज के संस्थागत नस्लवाद के कारण हम साम्राज्य से इतने डर गए थे कि ब्रिटेन वालों पर गेहुंआ चमड़ी वाले पुरुषों और स्त्रियों को राज करते देखकर काफी उत्साहित हो जाते हैं.

थोड़ी वजह यह भी है कि भारतीय मूल के सभी विदेशी नागरिक, जो पश्चिम में बसे हैं, उस देश के प्रति पूर्ण निष्ठा रखते हैं जिसका पासपोर्ट उनके पास है. उनमें से कई लोग भारतीय राजनीति पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं, और भारतीयों को हिदायत देते रहते हैं कि वे भारत का कामकाज किस तरह चलाएं. जो बहुत ज़हीन नहीं हैं उस देश की राजनीति में दखल देते रहते हैं जिसे वे छोड़ आए हैं. जो सक्षम हैं वे राजनीति में सफल हो जाते हैं, जो सफल नहीं होते वे ट्वीट कर सकते हैं.

इसलिए, मैं खुश हूं कि गेहुंआ चमड़ी वाला शख्स अब ब्रिटेन का नेतृत्व करेगा. लेकिन भारतीय दृष्टि से मुझे उससे कोई अपेक्षा नहीं है. उसने अपना मुल्क चुन लिया है. और अब उसे उस मुल्क के हितों को जरूर आगे बढ़ाना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)

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