आइए, एक सवाल से बात शुरू करें. मुल्ला नसरुद्दीन को जानते हैं आप? नहीं जानते? कभी नाम भी नहीं सुना उनका? याद करने की कोशिश कीजिए. हां, वहीं मुल्ला, जिनके पास एक गधा भी हुआ करता था, जिसे गाहे-ब-गाहे उनके पड़ोसी मांगकर ले जाते और काम निकल जाने के बाद भूखा-प्यासा छोड़ जाते थे. इससे आजिज मुल्ला ने एक दिन गधे को अपने घर के पीछे बंधवा दिया ताकि कोई पड़ोसी मांगने आए तो गधा उसको नजर ही नहीं आए और वे उसे इस बहाने टरका दें कि गधे को तो पहले ही कोई और मांग ले गया.
लेकिन गधा तो गधा! एक पड़ोसी जैसे ही उसे मांगने आया और मुल्ला ने उससे किसी और के मांग ले जाने का बहाना बनाया, गधा रेंक उठा. पड़ोसी समझ गया कि मुल्ला उसे गधा देना नहीं चाहते और टालने के लिए झूठ बोल रहे है. मगर चुपचाप लौट जाने के बजाय उसने बात साफ कर लेना ठीक समझा. बोला ‘तुम भी गजब के आदमी हो मुल्ला! गधा पिछवाड़े रेंक रहा है और कहते हो कि उसे कोई और मांग ले गया है.’
मगर मुल्ला तनिक भी ‘कमजोर‘ नहीं पड़े. न हकलाए, न झुंझलाए. उन्होंने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया, ‘तुम भी यार, गजब के इंसान हो! इंसान होकर इंसान की बात नहीं मानते और गधे के रेंकने पर एतबार करते हो.‘
इस किस्से से कुछ याद आया आपको? हां, मुल्ला नसरुद्दीन 1208 में तुर्की में पैदा हुए और 1284 में वहीं दफन भी हुए. लेकिन इस बीच उन्होंने ऐसा जीवन जिया कि आज की तारीख में वे व्यक्ति से ज्यादा ऐसे ‘चतुर व हाजिरजवाब’ चरित्र बन गये हैं, सूफी संत और दरवेश जिसका ‘बेवकूफी में भी समझदारी’ के उपाय के रूप इस्तेमाल करते आये हैं. उनको लेकर प्रायः दुनिया भर में जो कहानियां या चुटुकुले कहे-सुने जाते हैं, वे सिर्फ हंसाते नहीं, जिंदगी की गहरी समझ भी देते हैं और इस कारण दुनिया के बडे हिस्से में लोकप्रिय हैं.
सूफी मत क्या है
हमारे देश में भी, जहां वे तो उन चरित्रों की श्रृंखला की सबसे मजबूत कड़ी हैं, इस देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को गढ़ने व विकसित करने की अपनी कवायदों के क्रम में जिन्हें सूफी मत के अनुयायियों, संतों व दरवेशों ने जन्म दिया. मुल्ला के बहाने बहुत से लोगों को यह जिज्ञासा सताती रहती है कि सूफी मत क्या है, सूफी कौन हैं और कैसे कोई इस संज्ञा को धारण करता है?
इस सिलसिले में जानने की सबसे अहम बात यह है कि सूफी मत अपने आप में कोई स्वतंत्र धर्म या मत नहीं है. इसकी प्रायः सारी मान्यताएं इस्लामी हैं और इसके अनुयायी व संत उन्हीं के अधीन कार्य करते हैं. अलबत्ता, इन मान्यताओं को लेकर उनका नजरिया पूरी तरह मौलिक है और अपने खास तरह के नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आचरण में वे कट्टरता के लिए कोई जगह नहीं रखते. इसलिए कई लोगों की निगाह में वे हमारे देश में सांप्रदायिक व धार्मिक एकता के अपनी तरह के अकेले यानी बेमिसाल प्रतीक हैं.
गौरतलब है कि सूफी मत के केन्द्र सिर्फ हमारे ही देश में नहीं हैं. भारतीय उपमहाद्वीप के किसी भी छोर पर चले जाइए, आपको किसी न किसी सूफी संत या बुजुर्ग के आस्ताने और दरगाह मिल जाएंगी. वहां श्रद्धापूर्वक सिर नवाने वालों की जातियों व धर्मों की पड़ताल करें तो पाएंगे कि उनमें बड़ी संख्या में इस्लामेतर धर्मों के लोग हैं. इससे साफ होता है कि सूफियों ने भारत के जनमानस को खासी गहराई तक जाकर छुआ है. विडम्बना यह कि फिर भी कुछ लोग हमारे देश में इस्लाम के प्रसार का श्रेय कुछ अत्याचारी व आतताई हमलावरों व बादशाहों वगैरह की करतूतों और तलवारों को ही देते हैं, सूफियों द्वारा उसका उदात्त रूप गढ़ने में की गई मेहनत को नहीं.
यह तब है जब जानकारों के मुताबिक अतीत में सूफी आम लोगों को राज्याश्रय का लालच देकर या राजदंड का भय दिखाकर इस्लाम में लाने के बजाय उसका ऐसा लुभावना रूप लेकर उन तक गए, जो डराता नहीं था बल्कि पास बुलाता था.
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सूफियों का प्रभाव
आज भी बसंत आया नहीं कि देश के कोने-कोने में सूफी-संतों की दरगाहों व आस्तानों पर उर्स समारोहों का सिलसिला शुरू हो जाता है, जो बरसात के पूर्व तक जारी रहता हैं. दूसरे मौसम भी इन उर्स समारोह के अपवाद नहीं हैं और इनमें कम से कम तीन-किछौछा शरीफ, देवा शरीफ और अजमेर शरीफ की बाबत तो बच्चा-बच्चा जानता है. ‘बिगड़ी मेरी बना दे अजमेर वाले ख्वाजा……’ भला किसने नहीं सुना?
मानव सेवा, प्यार-मुहब्बत और भाईचारे की मिसाल कायम करने वाले सूफी संतों, कवियों और विचारकों की हमारे देश के इतिहास में एक लंबी श्रृंखला है. इनमें से कुछ के नाम हैं-ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, हजरत निजामुद्दीन औलिया, शेख सलीम चिश्ती, बाबा फरीदउद्दीन, बाबा सदन शाह, अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी, शेख निसार, मौलाना जलालउद्दीन और शेख हबीबउल्लाह आदि.
शायरी पर तो सूफियों का इतना प्रभाव पड़ा कि सूफियाना रंग के बिना वह बेरंग ही मानी जाने लगी. सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने ‘पद्मावत’ में पद्मावती और महाराजा रत्नसेन की प्रेमगाथा का गान किया तो शेख निसार, शेख रहीम और कवि नसीर ने यूसुफ जुलेखा जैसी दुनिया की प्राचीनतम लोकप्रिय प्रेमगाथा को बहाना बनाकर अपना पैगाम-ए-मुहब्बत जंहां तक पहुंचा सकते थे, पहुंचाया.
जानना दिलचस्प है कि सूफी मत के सिलसिले में एक शब्द प्रायः इस्तेमाल किया जाता है: ‘तसव्वुफ’, जिसे मन को सांसारिक विषयों से परहेजगार बनाकर और प्रेम के तत्व को सर्वोपरि रखकर इबादत करने के तरीके और ब्रह्मवाद, अध्यात्मवाद व वेदांत के रूप में व्याख्यायित किया जाता है. यों, ‘सूफी’ और ‘तसव्वुफ’ दोनों अरबी भाषा के जिस शब्द से बने हैं, वह है ‘सुफ’, जिसका किसी धर्म से कोई वास्ता नहीं है. ‘सुफ’ का अर्थ है: पश्म यानी बहुत अच्छी ऊन, ऐसा कपड़ा जो स्याही को सूखने से बचाने के लिए दावात में रखा जाता था और गोटा बुनने का बाना.
अपने व्यक्तित्व, उम्र, कार्यक्षेत्र, मौसम और परिस्थितियों के मुताबिक सुफ के दुशालों से शरीर की सुरक्षा करने वाले इन संतों के लिए जाने कब और कैसे यह शब्द इस तरह रूढ़ हो गया कि वे सूफी कहे जाने लगे और यही उनकी पहचान बन गया.
सूफीवाद का पैगाम ही मुहब्बत है
फिर तो सूफी को पारिभाषिक शब्द बनते भी देर नहीं लगी और यह सामान्य-सा शब्द आज अनेक भाषाओं में नए अर्थ के साथ सम्मिलित है. अब ‘सुफ’ का अर्थ है: इल्म-ए-मारफत (ईश्वर से मिलन का ज्ञान), ‘तसव्वुफ’ का अर्थ है इच्छाओं, आकांक्षाओं व कामनाओं से ध्यान हटाकर सिर्फ ईश्वर की तरफ ध्यान लगाना और उनके प्रिय पैगम्बर हजरत मोहम्मद की याद में जीवन गुजारना, जबकि ‘सूफी’ का अर्थ है-ईश्वर से मिलन का ज्ञान रखने, कराने व बताने वाला.
लेकिन ‘तसव्वुफ’ का पूरा तात्पर्य समझने के लिए इतना भर जान लेने से काम नहीं चलता. दरअसल, इस्लाम में अल्लाह और उसके रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम से रिश्तों में जो चार भाव जरूरी हैं, वे हैं-ईमान (विश्वास), इताअत (आज्ञापालन), इत्तिबा (अनुसरण) और मुहब्बत (प्यार). विश्वास किया जाता है कि जब कोई इंसान इन चारों भावों के साथ अल्लाह को समर्पित हो जाता है, तो ‘इस्लाम में दाखिल’ हो जाता है तथा अल्लाह की खुशी पाने के लिए उसके द्वारा किये गये कार्य ‘इबादत’ की संज्ञा पाते हैं. ‘तसव्वुफ’ यानी सूफी मत में इन चारों में चैथे भाव यानी मुहब्बत को सबसे ऊपर रखा जाता है और किसी भी संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी जाती. धर्म और संप्रदाय किसी भी नाम पर नहीं.
निस्संदेह, सूफी मत शांति व सद्भाव के साथ इस्लाम के प्रचार में विश्वास रखता है, जोर-जबरदस्ती से नहीं, अपने आचरण से प्रभावित करके, सहअस्तित्व को स्वीकार करते हुए यानी ‘जिसे भी मुहब्बत हो, वह आए’. सूफी मत के किसी भी अनुयायी से पूछकर देखिए. वह आपको बताएगा कि मुहब्बत सच्ची है तो ईमान, इताअत और इत्तिबा के भाव स्वतः उसमें समाहित हो जाते हैं. इसलिए कि बेईमानी से मुहब्बत नहीं की जा सकती और जिससे मुहब्बत की जाएगी, उसकी आज्ञाओं का पालन (इताअत) और अनुसरण (इत्तिबा) खुद ही होता चलेगा.
आज जब हिंदू और मुस्लिम दोनों सांप्रदायिकताएं हमें नाना रूपों में सता रही हैं, अच्छा होता कि सूफी संतो के दिये जीवनदर्शन से प्रेरणा लेकर उस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की जाती, अहलेदानिश ने जिसे बहुत सोचकर उलझाया है. जहां बड़े-बड़े ग्रंथ फेल हो जाते हैं, वहां कई बार प्रेम के पंथ से बात बन जाती है.
(कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन: आशा शाह)
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