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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाब वाजिद अली शाह को ‘खलनायक’ बनाकर ऐसे हड़पा था अवध का राज!

ईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाब वाजिद अली शाह को ‘खलनायक’ बनाकर ऐसे हड़पा था अवध का राज!

13 फरवरी, 1847 को हुई नवाब वाजिद अली शाह की ताजपोशी की एक और वर्षगांठ से सिर्फ एक दिन पहले अंग्रेजों ने उनके राज्य को हड़प लिया और उन्हें निष्काषित करके मटियाबुर्ज (कलकत्ता) भेज दिया.

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सन् 1856 में यही तारीख थी, जब समूचे भारत पर कब्जे का सपना देख रही गोरी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवध को अपनी बेदर्द हड़प-नीति का शिकार बना लिया था-13 फरवरी, 1847 को हुई नवाब वाजिद अली शाह की ताजपोशी की एक और वर्षगांठ से सिर्फ एक दिन पहले. हालांकि कम्पनी द्वारा राज्य हड़पने की यह कार्रवाई एक उद्घोषणा के जरिये पांच दिन पहले ही शुरू कर दी गई थी, जो नवाब के मटियाबुर्ज {कलकत्ता} निर्वासन के साथ अपने अंजाम तक पहुंची. दरअसल, हुआ यह कि 1848 में कम्पनी ने अपने साम्राज्यवादी मंसूबे के तहत लार्ड डलहौजी को गवर्नरजनरल बनाया तो उसने भारत पहुंचते ही इस दिशा में दिन-रात एक करने शुरू कर दिये. फिर भी उसे अपना सिक्का जमाने और निर्णायक कदम उठाने में आठ साल लग गये.

1856 में पहले उसने लखनऊ स्थित ब्रिटिश रेजीडेंट डब्ल्यू एच स्लीमन द्वारा अपनी रिपोर्ट में दिये तथ्यों {जो जुटाये ही इसलिए गये थे कि उन्हें अवध को हड़पने का बहाना बनाया जा सके} के हवाले से नवाब वाजिद अली शाह पर गम्भीर कुशासन के आरोप लगाये. फिर स्लीमन की जगह आये नये रेजीडेंट आउट्रम से भी उन आरोपों पर मुहर लगवा दी और वाजिद पर दबाव बढ़ा दिया कि वे अपनी मर्जी से बारह लाख रुपये सालाना पेंशन के बदले अपना सूबा कंपनी के हवाले कर दें और वाजिद इस पर राजी नहीं हुए तो सैन्य कार्रवाई के रास्ते बलपूर्वक उसे हथिया लिया.

इससे पहले वह सतारा, नागपुर, झांसी, संभलपुर, जैतपुर, बघाट ,उदयपुर और बरार आदि कई छोटे-बडे देसी राज्यों/ रियासतों को निःसंतान देशी राजाओं द्वारा किसी को गोद लेकर अपना वारिस बनाने की मनाही और राज्यों के हड़प की नीति के तहत कम्पनी के राज्य में मिला लिया और पंजाब व सिक्किम आदि को छल-छद्म भरे युद्धों की मार्फत जीत लिया था.

‘विलासिता में डूबा था लखनऊ’

इतिहासकारों के अनुसार उस वक्त लखनऊ विलासिता में इस कदर डूबा था कि वाजिद को अपदस्थ व गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेज सेना को एक बूंद खून भी नहीं गिराना पड़ा, क्योंकि उसका कोई प्रतिरोध नहीं हुआ. लेकिन साल बीतते-बीतते उसे लेकर ऐसा आक्रोश फैला, जिसने देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को अवध की सीमाओं में दिल्ली के पतन के बाद भी धधकाए रखा. कम्पनी द्वारा ‘खलनायक’ करार दिये गये वाजिद का अवयस्क बेटा बिरजिस कादिर गद्दी पर बैठा और उनकी मां बेगम हजरतमहल को ‘आफत की परकाला’ बनकर अंग्रेजों पर टूट पड़ी और नाकों चने चबवा दिए.

लेकिन जहां तक वाजिद की बात है, वे अंग्रेजों द्वारा कुछ अर्धसत्यों के सहारे गढ़ी गई अपनी ‘राजकाज के प्रति उदासीन, औरतखोर, आरामतलब और अय्याश’ शासक की छवि के ऐसे शिकार हुए कि उससे आज तक मुक्त नहीं हो पाये हैं. यों, उनकी यह छवि पूरी तरह निराधार भी नहीं थी और उसे बनाने में, जैसा कि पहले बता आये हैं, स्लीमन द्वारा नवम्बर, 1849 से फरवरी, 1850 के बीच सूबे का दौरा कर डलहौजी को भेजी गई रिपोर्ट ने बड़ी भूमिका निभाई थी. यह रिपोर्ट अब ‘ए जर्नी थ्रू द किंगडम ऑफ अवध’ नामक पुस्तक की शक्ल में उपलब्ध है.

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इसीलिए अवध में आज भी किसी के सामने वाजिद का नाम भर ले लीजिए, तो वह उन पर कई तोहमतें जड़ देता है. और कहीं आपने कह दिया कि उसका रहन-सहन तो वाजिदअली शाह जैसा है, तो वह ऐसा जतायेगा कि जैसे आपने उसे कोई भद्दी-सी गाली दे दी है. यह इस तथ्य के बावजूद है कि उनके निर्वासन के बाद लखनऊ उनकी याद में जितना तड़पा, उतना शायद ही किसी और शासक के लिए तड़पा हो.

अक्सर गलत समझा गया

लेकिन उनका दुर्भाग्य कि उन्हें बेगानों तो क्या अपनों ने भी ठीक से नहीं समझा. इसीलिए आज भी कोई बताता है कि अंग्रेज सेना उन्हें ‘गिरफ्तार’ करने पहुंची तो वे इसलिए नहीं ‘भाग’ सके, क्योंकि उन्हें जूते पहनाने वाला सेवादार हाजिर ही नहीं था, तो कोई यह कि उन्होंने तीन सौ से ज्यादा शादियां कीं और तलाक देने में भी बेहद ‘दरियादिल’ रहे. निस्संदेह, वे विलासी थे, लेकिन उसके सिलसिले में उनका नाम लिया जाता है तो यह बात भुला दी जाती है कि वे अपने वंश में विलासिता की उस पुरानी परम्परा के नये शिकार भर थे, जो नवाब आसफउद्दौला {26 जनवरी, 1775 से 21 सितम्बर, 1797} ने अपने वक्त में शुरू की थी. जिस बेबसी ने वाजिद को अग्रेजों का मोहताज बनाया, वह भी उन्हें अपने पुरखों से विरासत में प्राप्त हुई थी- ईस्ट इंडिया कम्पनी से उन संधियों के रूप में, जिन्होंने नवाबों का इकबाल खत्म कर डाला था.

इसीलिए कम्पनी के अफसरों ने उनको अवध का ताज सिर पर धरते ही दो पाटों के बीच पीसना शुरू कर दिया था. वैसे भी नवाब के तौर पर उसकी पहली पसंद वाजिद के बड़े भाई मुस्तफा अली थे. कंपनी के अफसर एक ओर तो उन पर राजकाज छोड़कर आमोद-प्रमोद में डूबे रहने के आरोप लगाते थे और दूसरी ओर उन्हें समुचित प्रशासनिक सुधार व सैन्य पुनर्गठन भी नहीं करने देते थे.

पूर्ववर्ती नवाबों द्वारा की गई संधियों के तहत वाजिद के वक्त तक अवध के राजपाट की सुरक्षा कम्पनी की सेना के हवाले हो गई थी और नवाबी सेना की भूमिका नगण्य रह गई थी. वाजिद कंपनी की इसके पीछे की चालाकी समझते थे इसलिए जल्दी ही नवाबी सेना के पुनर्गठन में लग गये थे. उन्होंने महिला सैनिकों की एक टुकड़ी बनाकर उसको पुरुष सैनिकों जैसा प्रशिक्षण दिलवाया था. पुरुष टुकड़ियों की ही तरह इस महिला टुकड़ी की भी रोजाना सुबह पांच बजे परेड हुआ करती थी.

इससे खफा तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग ने रेजीडेंट कर्नल रिचमंड की मार्फत उन्हें निर्देश दिया था कि वे अपनी पुलिस व्यवस्था में जो भी सुधार करें, सेना के पुनर्गठन से परहेज रखें. लेकिन ‘विलासी’ वाजिद ने गवर्नर जनरल का यह निर्देश नहीं माना था.

वाजिद अली ने बनाई थी महिला सैन्य टुकड़ी

1857 में स्वतंत्रता का पहला संग्राम शुरू हुआ तो हालांकि वाजिद की बनाई महिला टुकड़ी बिखर चुकी थी, लेकिन उसका अनुभव बेगम हजरतमहल के बहुत काम आया. उन्होंने उसे पुनर्गठित कर महलों की बांदियों और हब्शी महिलाओं तक को सैनिक बना दिया. कई मोर्चों पर इन महिला सैनिकों की टुकड़ियां पुरुष वेश में संग्राम में शामिल हुईं और उनमें से अनेक ने वीरगति भी पाई.

बहरहाल, इतिहास गवाह है कि कम्पनी ने जितना वाजिद को तंग किया, शायद ही किसी और नवाब को किया हो. उसके अफसरों ने पहले उन्हें मनोनुकूल वजीर की सेवाओं से वंचित किया, फिर चकलेदारों की नियुक्ति के अधिकार से भी. वे जिसे दंड देना चाहते, अंग्रेज रेजीडेंट उसे आश्रय दे देता और जिसे वे नौकरी से निकालते, उसे नौकरी. कोई जमींदार या तालुकेदार उनसे नाखुश होता, तो रेजीडेंट उसका सगा बन जाता. वाजिद के वफादारों की वह सरेआम बेइज्जती करता और जो अहलकार उनकी हुक्मउदूली करते, उनको हाथों हाथ लेता और सिर आंखों पर बिठाता. उन दिनों रेजीडेंट ने समानांतर सत्ता संचालित कर सूबे को आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से पंगु बना देने की शायद ही कोई कोशिश छोड़ी हो.

वाजिद की गिरफ्तारी के वक्त जूते पहनाने वाले सेवादार के हाजिर न होने की जो बात कही जाती है, उसमें भी कम से कम इतनी सच्चाई तो है ही कि तब तक उनके निकट वफादार सेवकों का ही नहीं, बेगमों व दरबारियों का भी अकाल हो चला था. क्योंकि उनमें से ज्यादातर रेजीडेंट की समानांतर सत्ता के मोहताज हो चले थे.

सत्ता से बेदखली और निर्वासन के बाद 21 सितम्बर, 1887 को मटियाबुर्ज {कलकत्ता} में अंतिम सांस लेने तक लखनऊ उनसे छूटा ही रहा, लेकिन उसमें अभी भी गाहे-बगाहे निर्वासन के वक्त कहीं उनकी ये पंक्तियां गूंज ही जाती हैं: दर-ओ-दीवार पे हसरत की नजर करते हैं, खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं. इसके अलावा वह अगर परीखाने और नृत्य का आनंद लेते थे तो उन्हें सुई पकड़कर चिकन का बारीक काम भी आता था और वह रदीफ-काफिया जोड़कर शायरी भी किया करते थे.

अलबत्ता, उन्हें सूबे का लियोनार्डों दा विंची बताने वाले भी कम नहीं हैं. यह कहने वाले भी कि वे नवाबों की परम्परागत पहचान के ही बन्दी बने रहते, तो न लखनऊ को नजाकत व नफासत नसीब होती, न ही उसके अदब, तहजीब व कलाओं को बुलन्दी हासिल होती.


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