scorecardresearch
Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमत‘ज़मीन की ज़ीनत’, दरबारी से प्रशंसक तक- अमीर खुसरो की नज़रो से ऐसी है राम की नगरी अयोध्या

‘ज़मीन की ज़ीनत’, दरबारी से प्रशंसक तक- अमीर खुसरो की नज़रो से ऐसी है राम की नगरी अयोध्या

दो साल बाद खुसरो को दिल्ली की याद सताने लगी तो इस कामना के साथ अयोध्या छोड़ी कि राम की नगरी की खूबसूरती अपने दिल में बसाकर अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के कदमों में आखिरी सांस लें.

Text Size:

‘अगर फिरदौस बर-रू-ए जमीं अस्त. हमीं अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त.’ धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है. कहते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी में कश्मीर के दौरे पर गये मुगल बादशाह जहांगीर ने उसकी अनुपम प्राकृतिक छटा से निहाल होकर यह बात कही थी और आज, उनके कहने के चार शताब्दियों बाद भी इसकी कुछ कम चर्चा नहीं होती.

लेकिन दुर्भाग्य से अमीर खुसरो इतने खुशनसीब नहीं हैं. भले ही वे अपने वक्त के अपनी तरह के अनूठे राजदरबारी, साहित्यकार, कलाकार व संगीतज्ञ रहे हों और उन्हें हिन्दी खड़ी बोली का पहला कवि भी माना जाता है, आज की तारीख में यह बात शायद ही किसी को याद आती हो कि जहांगीर से चार शताब्दियों पहले सन् 1286 में वे दो साल के प्रवास पर अयोध्या आये तो, अयोध्यावासियों की लोचदार तहजीब और तर्ज-ए-इबादत पर न्यौछावर होकर रह गये थे और खुद को उसे ‘जमीन की जीनत’ बताने से नहीं रोक पाये थे.

जीनत यानी नाना आभूषणों व श्रृंगारों से सम्पन्न शोभा का भंडार. खुसरो के ही शब्दों में कहें तो ‘अयोध्या जीनत अस्त, किश्वर-ए-बर जमीन’. इतना ही नहीं, उन्होंने भगवान राम के किरदार को ‘अमल पैहम’ (सबके अपनाने योग्य) और उनकी राजधानी के निवासियों को ‘सुशील, शिष्ट, उदार, दानी, अतिथि सत्कार में कुछ भी उठा न रखने और मीठी व रंगीन तबियत वाले’ बताकर उनकी तारीफ के पुल बांधे थे.

उनकी इस तारीफ के इस कदर अचर्चित रह जाने कि बहुत से अयोध्यावासी भी उससे अन्जान रह जायें, मोटे तौर पर दो ही कारण समझ में आते है. पहला यह कि जिस तुर्कवंशी सत्ताधीश के दरबारी बनकर वे अयोध्या आये थे, आगे चलकर उसका या उसके वंशजों का इकबाल बहुत बुलन्द नहीं हुआ. दूसरा कारण यह कि भगवान राम और उनकी अयोध्या पर बेझिझक दिल लुटाने को लेकर जल्दी ही वे हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गये थेे. इन कट्टरपंथियों में कोई उन्हें मूर्तिपूजक कहने लगा था तो कोई उनके जनेऊ धारण करने या न करने को लेकर चिन्तित हो उठा था.

इश्क में काफिर

फिर तो कट्टरपंथियों को झिड़कते हुए खुसरो को कहना पड़ा था कि वे अपनी महबूबा के इश्क में इस तरह काफिर हो गये हैं कि न उन्हें जनेऊ की जरूरत रह गई है और न मुसलमानी की. उन्हीं के शब्दों में: काफिर-ए-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त, हर रगे मन तारगश्ता, हाजते जुन्नार नीस्त. अज सरे बालीने मन बर खेज ऐ नादां तबीब, दर्दमन्द इश्क रा दारो बखैर दीदार नीस्त. मा व इश्क यार अगर पर किब्ला, गर दर बुतकदा, आशिकान दोस्त रा ब क्रुफ्र-व-ईमां कार नीस्त. खुल्क मी गोयद के खुसरो बुतपरस्ती मी कुनद, आरे आरे मी कुनम बा खल्क-व-दुनिया कार नीस्त.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

भावार्थ यह कि मैं इश्क में काफिर हो गया हूं और न मुझे मुसलमानी की जरूरत रह गई है, न जनेऊ की. मेरी तो हर रग तार यानी जनेऊ में बदल गई है. इसलिए ऐ नादान हकीम! मेरे सिरहाने से उठ जा. जिस मरीज को मोहब्बत का दर्द लगा हो, महबूब के दर्शन के सिवा उसका कोई और इलाज नहीं. अब मैं हूं और मेरी महबूबा का इश्क है. चाहे काबा हो या बुतखाना, महबूबा के आशिक को कुफ्र और ईमान से कोई् काम नहीं. दुनिया कहती है कि खुसरो मूर्तिपूजा करता है तो मैं कहता हूं कि हां-हां, मैं करता हूं, मेरा दुनिया से कोई सरोकार नहीं.

इसकी तफसील में उन्होंने आगे अपनी ‘मसनवी अस्पनामा’ में लिखा: मैं बुतपरस्ती करता नहीं हूं, परंतु एक बेजान पत्थर पर अटूट विश्वास और उसमें एकाग्रता पैदाकर पूजने का हिन्दुओं का तरीका मुझे अच्छा लगता है. भारत के सांवले-सलोने लोगों का श्याम वर्ण, जो पृथ्वी पर सबसे खूबसूरत रंग है, बेमिसाल है. यह रंग भारतीय देवी देवताओं को भी भाता है और उनका सौन्दर्य इसी में है.

खुसरो यहीं नहीं ठहरते. अपनी एक मुकरी में उन्होंने राम के आदर्शों को अपने जीवन में न उतारने और उन्हें तोतारटंत की तर्ज पर भजने वालों पर भी करारा तंज किया है: अति सुरंग है रंग-रंगीलो, है गुणवंत बहुत चमकीलो, रामभजन बिन कभी न सोता, क्यों सखि साजन? ना सखि तोता!


यह भी पढ़ें: हिन्दू शायर जगन्नाथ आजाद ने रचा था पाकिस्तान का पहला कौमी तराना, कैसे उसने इसे हटा दिया


कौन थे कैकुबाद? 

प्रसंगवश, सन् 1286 में दिल्ली के तुर्कवंश के सुल्तान गयासुद्दीन बलबन की मौत हुई तो कोई और उत्तराधिकारी न होने के कारण उसके सरदारों द्वारा उसके पोते कैकुबाद को सुल्तान बनाकर गद्दी पर बैठाया गया. उस वक्त कैकुबाद की कुल उम्र महज 18 साल थी.

गद्दी पर बैठने के फौरन बाद उसने बलबन के चचेरे भाई खान-ए-जहों अमीर अली सरजामदार उर्फ हातिम खान को अवध का हाकिम नियुक्त किया तो हातिम खान ने अपना पद बाद में ग्रहण किया, खुसरो को दरबारी बनाकर सूबे की राजधानी अयोध्या पहले भेज दिया. बाद में अपनी नियुक्ति का आदेशपत्र लेकर हातिम अयोध्या आया तो खुसरो उसके साथ अगले दो साल तक अवध दरबार की शोभा बढ़ाते रहे.

सावन की झड़ी में अपने यार दिल्ली को छोड़ आए

भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘आजकल’ के ताजा अंक में ‘अवध में अमीर खुसरो के दो साल’ शीर्षक अपने लेख में प्रदीप शर्मा खुसरो ने इस बाबत कई दिलचस्प जानकारियां दी हैं. मिसाल के तौर पर खुसरो खुद को हातिम खान की किरणों की तरह बताते थे और शुरू में उन्हें अफसोस था कि इसी कारण वे अवध में दरबारी बनने का हातिम का प्रस्ताव नकार नहीं सके और जब सावन की झड़ी लगी हुई थी, अपने यार दिल्ली को छोड़ आये. लेकिन कुछ ही अरसे बाद उन्हें अयोध्या इतनी भा गई कि वे दरबारी बनाने के लिए हातिम खान के आभारी हो गये.

बावजूद इसके कि दिल्ली से अयोध्या पहुंचने के लिए उन्हें नाना दुश्वारियों से भरी दो महीनों की लम्बी यात्रा करनी पड़ी थी. उन्होंने लिखा है कि रास्ते में बादल बरसते तो उन्हें लगता था कि वे सहानुभूति में उनके साथ रो रहे हैं, जबकि पानी से पैदा हुए कीचड़ में उनके घोडे़ के पैर बार-बार लड़खड़ा जाते थे. फारसी में लिखी एक गजल में उन्होंने अपनी इस यात्रा को कुछ इस तरह बयान किया हैं: ‘सावन की झड़ी लगी हुई है और मैं अपने यार दिल्ली शहर से जुदा हो रहा हूं.’

अपने दिल्ली के दोस्त ताजुद्दीन जाहिद को लिखे मसनवीनुमा खत ‘फिराकनामा’ में तो उन्होंने यहां तक लिख डाला है कि उन्होंने दिल्ली से अवध तक का सफर दिल में दर्द और आंखों में आंसू लिये हुए पूरा किया. लेकिन वे अयोध्या की सरजमीं पर पहुंचे और फूलों व फलों से लदी वहां के वृक्षों व उनकी शाखाओं की गवाही में आम लोगों ने वहां यह कहकर उनका स्वागत किया कि ‘भगवान रामचन्द्र की नगरी में आप खुश रहें’ तो उनका सारा गिला-शिकवा जाता रहा.

अयोध्या का इतिहास

उन्होंने देखा कि जो भी शख्स वहां से गुजरता है, सरयू नदी की रवानी देखकर उसकी सारी जिंदगी की प्यास बुझ जाती है. वहां गरीब व अमीर दोनों संतुष्ट व खुश और अपनी-अपनी कला व व्यवसाय में मगन हैं. फिर तो उन्होंने ‘मसनवी अस्पनामा’ में जो 240 शेर लिखे, उनमें से 180 में राम-सीता और लक्ष्मण के कसीदे ही पढे़ साथ ही लोगों को अयोध्यावासियों के तर्ज-ए-इबादत से प्रेरणा लेने को भी कहा.

खुद को अवधवासी, रायबहादुर, साहित्यरत्न और हिन्दी सुधाकर बताने वाले लाला सीताराम, बी. ए. (सन् 1932 में प्रयाग की हिन्दुस्तानी एकेडेमी से प्रकाशित जिनकी बहुचर्चित व प्रशंसित ‘अयोध्या का इतिहास’ शीर्षक किताब को अयोध्या पर लिखी गई गिनती की महत्वपूर्ण पुस्तकों में गिना जाता है) ने लिखा है कि अमीर खुसरो ने अपने दो साल के अवध प्रवास में महज दरबारदारी नहीं की. अयोध्या की बोली-बानी सीखी और ‘खालिकबारी’ नाम से फारसी हिन्दी शब्दकोश भी बनाया. बकौल लाला सीताराम उनके ‘अयोध्या का इतिहास’ लिखते वक्त तक अवध में बोली जाने वाली भाषा पर खालिकबारी का बहुत प्रभाव था और वह काफी हद तक इस शब्दकोश से अनुशासित हुआ करती थी.

बहरहाल, दो साल बाद उन्हें दिल्ली की याद फिर बहुत सताने लगी तो भी उन्होंने इस कामना के साथ अयोध्या छोड़ी कि राम की नगरी की खूबसूरती अपने दिल में बसाकर अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के कदमों में आखिरी सांस लें. ज्ञातव्य है कि वे आठ साल की उम्र में ही निजामुद्दीन औलिया के शिष्य बन गये थे और अपने जीवन में उन्होंने कुल मिलाकर आठ सुल्तानों का शासन देखा था. कहते हैं कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमले का मंसूबा बांधा तो भी उन्होंने उसे मना किया था यह और बात है कि उसने उनकी मनाही नहीं मानी.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: टीपू सुल्तान पर कर्नाटक की राजनीति एक बार फिर गरमाई, भाजपा ने आखिर इस मुद्दे को क्यों उछाला है


share & View comments