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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतकरीब सवा सदी पुराने अयोध्या- बाबरी मामले में कानूनी दलीलों और बहस पर लगेगी लगाम

करीब सवा सदी पुराने अयोध्या- बाबरी मामले में कानूनी दलीलों और बहस पर लगेगी लगाम

सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ का अयोध्या स्थित 2.77 एकड़ भूमि के मालिकाना हक को लेकर सुनाया जाने वाला फैसला ऐतिहासिक होगा जो देश की राजनीति को एक नया मोड़ दे सकता है.

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अगर सब कुछ पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुरूप ही हुआ तो निश्चित मानिये चार दिन के भीतर 130 साल से ज्यादा पुराने राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद को लेकर चल रही कानूनी लड़ाई के मौजूदा चरण पर विराम लग जायेगा. हिन्दू इस स्थल को राम जन्मस्थान बताते हुये इस पर अपना दावा कर रहे है जबकि मुस्लिम पक्षकार इससे अलग तर्क दे रहे हैं. इन दोनों के बीच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई में मिले अवशेष पहली नज़र में मुस्लिम पक्षकारों के दावे को मजबूत करती नजर नहीं आ रही है.

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की पांच सदस्यीय संविधान पीठ 17 अक्टूबर को इस प्रकरण की सुनवाई पूरी करेगी. इस मामले में 17 नवंबर से पहले ही फैसला आने की उम्मीद है.

फिलहाल तो किसी को नहीं पता कि इस प्रकरण की आठ अगस्त से शुरू हुयी मैराथन सुनवाई का नतीजा क्या निकलेगा? ऊंट किस करवट बैठेगा? और इस निर्णय में दिये जाने वाले निर्देशों पर अमल के बारे में संविधान पीठ क्या निर्देश देगी?
इस समय सिर्फ अटकलें ही लगायी जा सकती हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि उच्च न्यायालय ने अपने सितंबर, 2010 के फैसले में इस विवादित स्थल को तीनों पक्षकारों- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान के बीच बराबर-बराबर बांटने का आदेश दिया था.

लेकिन, मई 2011 में उच्चतम न्यायालय ने इसके खिलाफ दायर अपीलें विचारार्थ स्वीकार करते हुये उच्च न्यायालय की बहुमत की व्यवस्था पर रोक लगा दी थी. अपील विचारार्थ स्वीकार करने वाली पीठ ने उच्च न्यायालय के निर्णय पर अचरज व्यक्त करते हुये टिप्पणी की थी कि यह ऐसी राहत है जिसका अनुरोध किसी भी पक्ष ने नहीं किया था.

न्यायालय ने मई, 2011 में एक बार फिर सरकार द्वारा जनवरी, 1993 में अधिग्रहीत 67.703 एकड़ भूमि के बारे में संविधान पीठ के अक्टूबर 1994 और 2002 के आदेश के अनुरूप यथास्थिति बनाये रखने का निर्देश दिया था.
यही नहीं, अयोध्या में 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिराये जाने की घटना के बाद तत्कालीन पी वी नरसिंह राव सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से सात जनवरी, 1993 को उच्चतम न्यायालय से इस सवाल पर राय मांगी थी कि क्या विवादित ढांचे के निर्माण से पहले इस स्थान पर कोई हिन्दू धार्मिक ढांचा या मंदिर था?


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हालांकि तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एम एन वेंकटचलैया की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 24 अक्तूबर, 1994 को इस सवाल पर कोई राय देने से इंकार कर दिया था. संविधान पीठ का कहना था कि अयोध्या विवाद एक धार्मिक उन्माद है जो गुजर जायेगा, परंतु इसके लिये उच्चतम न्यायालय की गरिमा और प्रतिष्ठा के साथ समझौता नहीं किया जा सकता है. इसी मामले में संविधान पीठ ने बहुमत की राय में केन्द्र द्वारा अयोध्या में चुनिंदा क्षेत्र के अधिग्रहण संबंधी 1993 के कानून को सही ठहराया था.

इस विवाद का मध्यस्थता के माध्यम से सर्वमान्य हल खोजने के प्रयास विफल होने के बाद न्यायालय छह अगस्त से इसकी नियमित सुनवाई कर रहा है. पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार यह सुनवाई 17 अक्टूबर को पूरी हो जायेगी.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ का अयोध्या स्थित 2.77 एकड़ के विवादित भूमि के मालिकाना हक के संबंध में सुनाया जाने वाला फैसला ऐतिहासिक होगा जो देश की राजनीति को एक नया मोड़ दे सकता है.

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद करीब तीन दशकों से किसी न किसी रूप में शीर्ष अदालत आ रहा है. अयोध्या मे शिला पूजन कार्यक्रम, कारसेवकों के अयोध्या कूच करने और विवादित ढांचे की पुख्ता सुरक्षा करने और अस्थाई मंदिर में विराजमान राम लला की पूर्जा अर्चना और इसके आसपास की व्यवस्था जैसे मुद्दे उसके समक्ष आते रहे हैं.

अगर इस विवाद की पृष्ठभूमि पर गौर करें तो पता चलता है कि पहली बार इससे संबंधित मामला जनवरी, 1885 में अदालत में पहुंचा था, जिस पर 24 दिसंबर, 1885 को फैसला भी आ गया था. इसके खिलाफ दायर अपील पर फैजाबाद की अदालत ने 18 मार्च 1886 को अपना फैसला सुनाया था. हालांकि अदालत ने इस फैसले में संबंधित पक्षों को यथास्थिति रखने का आदेश दिया था. लेकिन इसमें यह भी लिखा था, ‘यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दुओं द्वारा विशेषरूप से पवित्र मानी जाने वाली इस भूमि पर मस्जिद का निर्माण किया गया परंतु यह घटना 356 साल पहले हुई थी.’

अदालत के इस फैसले के बाद तनातनी के बावजूद 22 दिसंबर, 1949 तक वहां यथास्थिति बनी रही थी. इसके बाद की घटना के बाद सारा विवाद फिर से शुरू हो गया था.


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दिलचस्प बात यह है कि विवादित भूमि को इस तरह से विभक्त करने का निष्कर्ष एक अप्रैल, 1950 को दीवानी न्यायाधीश द्वारा पहले वाद में नियुक्त कमिश्नर शिव शंकर लाल द्वारा तैयार नक्शे के आधार पर निकाला गया था.

उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार मुस्लिम पक्षकारों ने इन नक्शों में दर्शाये गये परिमाप पर कोई आपत्ति नहीं की थी लेकिन उनकी आपत्ति कमिश्नर की रिपोर्ट में विभिन्न हिस्सों को दिये गये नामों पर थी, मसलन, सीता रसोई, भण्डार, हनुमान गढ़ी आदि. ये आपत्तियां पहले वाद मे 20 नवंबर, 1950 के आदेश में शामिल की गयी थीं.

न्यायालय चाहता था कि इस अत्यंत संवेदनशील मुद्दे का बातचीत के माध्यम से शांतिपूर्ण समाधान खोजने के प्रयास हों. इसी उम्मीद के साथ मई, 2017 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर ने तो यहां तक कहा था कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक सदी से भी अधिक पुराने इस विवाद के समाधान के लिये पक्षकार यदि मध्यस्थों का चयन करते हैं तो वह प्रमुख मध्यस्थ के रूप में उनके साथ बैठने के लिये तैयार हैं.

शीर्ष अदालत ने बार बार दोहराया था कि इस प्रकरण को दीवानी अपील के अलावा कोई अन्य शक्ल देने की इजाजत नहीं दी जायेगी और यहां भी वही प्रक्रिया अपनाई जायेगी जो उच्च न्यायालय ने अपनाई थी.

इसके बावजूद, यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि सुनवाई के दौरान इसे लेकर देश में तनाव व्याप्त हो सकता है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि 2018 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने इसे शुद्ध रूप से भूमि विवाद बताकर धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिक सद्भाव, धर्म को राजनीति से अलग रखने और भाई चारे के नाम पर अपनी अपनी राजनीति करने की आस लगाये लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था.

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में श्याम बेनेगल, अर्पणा सेन, अनिल धारकड़ और तीस्ता सीतलवाड जैसे 32 प्रबुद्ध नागरिको को हस्तक्षेप की अनुमति के आवेदनों के औचित्य पर सवाल उठाते हुये न्यायालय ने जानना चाहा था कि आखिर भूमि विवाद में तीसरे पक्ष की क्या भूमिका हो सकती है? इस तरह की टिप्पणी करके न्यायालय ने संकेत दे दिया था कि इसकी आड़ मे किसी को भी सांप्रदायिक तनाव पैदा करने या उन्माद फैलाने का अवसर नहीं मिलेगा.


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न्यायालय इसमें पूरी तरह सफल रहा और इस मामले की अभी तक की सुनवाई के दौरान कहीं से किसी प्रकार की अप्रिय घटना की सूचना नहीं मिली. यही नहीं, कुछ अपवादों को छोड़ दे तो संविधान पीठ के समक्ष बहस के दौरान भी वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने संयमित भाषा का प्रयोग किया.

अब तो बस इंतजार है 17 नवंबर से पहले इस प्रकरण पर संविधान पीठ के फैसले का. देखना यह है कि 2.77 एकड़ विवादित स्थल तीनों पक्षकारों के बीच वितरित होगा या फिर इसका सर्वमान्य समाधान निकालने के लिये न्यायालय कोई अन्य व्यवस्था देगा. बहरहाल जो भी होगा वह ऐतिहासिक होगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके निजी विचार हैं)

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