लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द होने के बाद अब उन्हें सरकारी आवास खाली करने का नोटिस भी मिल चुका है. इस मामले में सरकार आलोचना के दायरे में है कि सदस्यता खारिज करने और घर खाली कराने में उसने बेहद जल्दबाजी बरती और कि इस मामले में वह बदले की भावना से कार्रवाई कर रही है, ताकि उनका सबसे प्रमुख विरोधी संसद से बाहर रहे.
इस मामले में राजनीतिक आरोप और प्रत्यारोप का दौर लंबा चलेगा और इसकी छाया आगामी विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी पड़ सकती है.
इस मामले में दो कानूनी पहलू हैं. पहला तो 2019 के लोकसभा चुनाव के राहुल गांधी के भाषण से जुड़ा केस, जिसमें सूरत की अदालत ने उनके खिलाफ फैसला सुनाया और दो साल की कैद का आदेश दिया. दूसरा मामला इस फैसले के बाद, लोकसभा सदस्यता रद्द होने को लेकर है.
मैं इस लेख में सिर्फ दूसरे मामले पर ध्यान केंद्रित करूंगा. इसका संबंध सुप्रीम कोर्ट के 2013 के उस आदेश से है, जिसके बाद ये व्यवस्था बन गई है कि अगर कोई भी अदालत किसी सांसद या विधायक के खिलाफ किसी आपराधिक मामले में दो साल या उससे अधिक की सजा सुनाती है, तो मामला अपील में हो या न हो, उस नेता की सदस्यता चली जाएगी और उसके चुनाव लड़ने पर रोक लग जाएगी.
हालांकि लोग इस बात के लिए सरकार और बीजेपी की आलोचना कर रहे हैं कि राहुल गांधी की सदस्यता आनन-फानन में रद्द करने के पीछे राजनीतिक साजिश है. ये सही है कि इस मामले में राहुल गांधी को तत्काल जमानत मिल गई, लेकिन कानून की व्यवस्था ऐसी है कि एक बार सजा सुना दिए जाने के बाद वे सदन के सदस्य नहीं रह सकते. राहुल गांधी 2013 में खुद इस व्यवस्था का समर्थन कर चुके हैं और इसे बदलने की यूपीए सरकार की कोशिश, खासकर इस संबंध में लाए गए अध्यादेश का विरोध कर चुके हैं.
मेरा इस मामले में तर्क है कि सजा सुना दिए जाने भर से किसी सांसद या विधायक की सदस्यता निरस्त हो जाने का कानूनी प्रावधान गलत है. इसके लिए मेरे तीन तर्क हैं. एक, ये प्रावधान अपील और आगे सुनवाई करके बेदाग छूट जाने की संभावना को नजरअंदाज करता है. दो, भारत में न्यायपालिका सामाजिक संरचनाओं से पूरी तरह बेअसर नहीं है, इसलिए इसके शिकार ज्यादातर वंचित समूहों और अल्पसंख्यक वर्गों के सांसद और विधायक होंगे और तीन, ये मतदाताओं की चुनने के अधिकार और उनके विवेक पर सवाल खड़ा करता है.
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अदालत के आदेश के बाद सदस्यता जाना तय है
राहुल गांधी की सदस्यता संविधान के अनुच्छेद 102(1)(e) और जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(3) के तहत रद्द की गई है. लेकिन इसे तत्काल इसलिए लागू किया गया क्योंकि 2013 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के कारण ये करना जरूरी हो गया है.
जुलाई 2013 में लिलि थॉमस बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को रद्द कर दिया, जिसकी वजह से निचली अदालत के फैसले के बाद भी, जब तक अपील का केस चल रहा हो, तब तक सदस्यता बने रहने का प्रावधान था. सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान को असंवैधानिक करार दिया. ये प्रावधान जनप्रतिनिधियों को ये सुविधा देता था कि वे तीन महीनों के अंदर अपील फाइल कर सकते हैं और अपील का केस चलने तक सदस्यता नहीं जाएगी.
इस केस की सुनवाई के दौरान तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार के वकीलों ने कोर्ट में तर्क दिया कि इस तरह से किसी की सदस्यता रद्द करने से बार-बार उपचुनाव कराने होंगे, सरकार के कामकाज पर इसका असर पड़ सकता है और अस्थिरता आ सकती है. लेकिन वह अन्ना आंदोलन से बाद का समय था. आंदोलन में मांग हो रही थी कि “भ्रष्ट” नेताओं को संसद और विधानसभाओं से बाहर किया जाए. पूरा माहौल नेताओं के खिलाफ बना हुआ था और ये वातावरण बन गया था कि देश में भ्रष्टाचार नेताओं के कारण ही है. ऐसे माहौल में, सुप्रीम कोर्ट के जजों ने फैसला सुनाया कि सदस्यता तत्काल खारिज करना जरूरी है ताकि राजनीति में शुचिता बनी रहे और जो लोग राजकाज के लिए उपयुक्त हैं, वही संसद और विधानसभाओं में रहे. इस फैसले को राहुल गांधी का समर्थन मिला था.
फैसले पर पुनर्विचार जरूरी
मेरी राय है कि निचली अदालतों से सजा पाए नेताओं की सदस्यता रद्द करना और उन्हें चुनाव लड़ने से रोकना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है. ऐसा संभव है कि बेहद मामूली और हल्के मामलों में किसी नेता को सजा हो जाए और इस कारण उसी समय उसकी सदस्यता रद्द हो जाए. ऐसे मामलों में नेता के पास ऊपरी अदालत में निर्दोष साबित होने और सदस्यता बचाने का मौका भी नहीं है.
न्याय पाने का अधिकार संविधान के मौलिक अधिकार के अध्याय के अनुच्छेद 21 से आया है. इसमें व्यवस्था है कि किसी को न्याय से वंचित न किया जाए और कोई अकारण या गलत कारण से दंडित न हो. अपील का अधिकार इसी का हिस्सा है. जब कोई मामला अपील में जा रहा है और ऊपरी अदालत उसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर रही है, इसका मतलब है कि वह उस व्यक्ति को निर्णायक तौर पर दोषी नहीं मान रही है. वरना सुनवाई ही क्यों हो? ऊपरी अदालतें इस बात की गारंटी करती हैं कि निचली अदालतों के फैसले पर पुनर्विचार हो सके. अगर किसी को अपील का फैसला होने से पहले ही दंड भुगतना पड़े तो ये नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ होगा. चुने हुए जनप्रतिनिधियों को उनके मौलिक अधिकार से वंचित करना किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं है.
इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि भारत की विशिष्ट सामाजिक संरचना में जज भी राग-द्वेष और सामाजिक सोच से बंधे हो सकते हैं. संविधान सभा में तो डॉक्टर बी.आर. आंबेडकर ने चीफ जस्टिस के पद को लेकर भी कहा था कि इस पद पर भी कोई आदमी ही होगा और उनमें भी किसी और अन्य व्यक्ति की तरह कमजोरियां हो सकती हैं.
इसे देखते हुए इस बात की आशंका से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता है कि वंचित वर्गों के नेता इस नियम के आसानी से शिकार बन सकते हैं. ये मुमकिन है कि एलीट पृष्ठभूमि से आने वाले जज ऐसे मामलों में कम संवेदनशील हों. और फिर अपील का प्रावधान भी तो इसलिए है कि निचली अदालत से गलत फैसले भी आ सकते हैं.
तीसरा तर्क ये है कि निचली अदालत से फैसला आते ही किसी नेता को चुनाव लड़ने से रोक देने का मतलब है मतदाताओं के विवेक पर अविश्वास करना. हम ये क्यों मानकर चल रहे हैं कि मतदाताओं को अपना जनप्रतिनिधि चुनना नहीं आता और अगर तथाकथित दागदार नेताओं को चुनाव लड़ने से न रोका गया तो वे ऐसे नेताओं को चुन लेंगे? भारत के मतदाताओं ने 2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले भी, अपने विवेक का बार-बार इस्तेमाल किया है और सरकारें बनाई और हटाई हैं. राजनीतिक चयन के मामले में जज, भारतीय मतदाताओं से ज्यादा विवेकवान होंगे, ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है.
एक तर्क ये आता है कि अपील के केस तो वर्षों तक चलते रहते हैं तो क्या निचली अदालत में दोषी करार दिए गए नेता अपील का फैसला आने तक जनप्रतिनिधि बने रहने देना चाहिए. ऐसे मामलों में सवाल जनप्रतिनिधियों पर नहीं, न्याय प्रक्रिया पर उठना चाहिए कि क्यों मामले दसियों साल तक चलते रहते हैं. महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने बहुत असरदार तरीके से ये सवाल उठाया है और बताया कि न्याय की सुस्त रफ्तार के कारण जनता किस तरह परेशान है.
इस आधार पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता खारिज नहीं कर देनी चाहिए कि अदालतें सुस्त तरीके से काम करती हैं.
ये भी नहीं कहा जा सकता कि फटाफट सदस्यता खारिज करने के इस नियम से राजनीति का अपराधीकरण रुका है. अब भी पहले की ही तरह बड़ी संख्या में ऐसे नेता चुनकर आ रहे हैं, जिनपर गंभीर केस चल रहे हैं, लेकिन चूंकि उनके मामलों में फैसला नहीं आया है, इसलिए उन पर कोई रोक नहीं है. वर्तमान लोकसभा में ऐसे सांसदों की संख्या 43 फीसदी है, जिन पर आपराधिक आरोप में मुकदमे चल रहे हैं. ये भी संभव है कि उनमें से कई के फैसले उनके राजनीतिक जीवन काल में आए ही नहीं!
जाहिर है कि समाधान न्याय प्रक्रिया को दुरुस्त करना है, न कि इस कमजोरी को ढकने के लिए जनप्रतिनिधियों की सदस्यता खारिज कर देना. मेरा तो ये भी मानना है- इसे जानकर कई लोगों को अजीब भी लग सकता है कि किसी भी जनप्रतिनिधि या नेता को ऊपरी अदालतों से सजा होने पर भी, उनके चुनाव लड़ने पर रोक नहीं होनी चाहिए. ये मामला मतदाताओं के विवेक पर छोड़ देना चाहिए. वैसे भी अगर कोई कैंडिडेट सही नहीं है तो मतदाताओं के पास उसे न चुनने, या सभी कैंडिडेट खराब हैं तो नोटा का बटन दबाने का विकल्प तो है ही.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. दोनों के विचार व्यक्तिगत हैं.)
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