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Monday, 18 November, 2024
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मांफी मांगने की कवायद में राहुल गांधी कमजोर भी हुए और पावरफुल भी

यूके में राहुल गांधी की टिप्पणी पर उनसे माफी मांगने की बीजेपी की अपील पूरी तरह पावर प्ले गेम है - नेम, शेम और अपराधबोध.

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भले ही यह बसंत का मौसम हो, लेकिन यह माफी मांगने की अपील करने का मौसम बन गया है.

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) राहुल गांधी से माफी की मांगने की अपील करके इस बात का इंतजार कर रही है कि वह कब माफी मांगेंगे. यह मांग खास है, क्योंकि भाजपा ने विदेश में भारतीय राजनीति पर कांग्रेस नेता की हालिया टिप्पणियों पर नाराजगी जताई है. माफी मांगने का एक और छोटा सा नाटक पिछले हफ्ते हुआ जब एक हाईकोर्ट जज के खिलाफ हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर द्वारा की गई टिप्पणी पर उनसे माफी मांगने की अपील की गई और उन्होंने अपने बयान पर दुख व्यक्त किया. ब्रिटेन में भी, किंग चार्ल्स पर बहुत कम ही सही पर, गुलामी और शाही घराने के बीच की कड़ी को स्वीकार करने का दबाव बढ़ रहा है. बड़ी हो या छोटी पर माफी मांगने की घटना पूरी दुनिया में देखी जा रही है.

मेरा मानना यह है कि कहने पर मांगी गई माफी कोई माफी मांगना नहीं है. क्योंकि यह एक तरह से दबाव बनाने वाली और दूसरे को शर्मिंदा करने वाली बात होती है. जब बिना कहे कोई माफी मांगता है तो यह हृदय परिवर्तन का प्रमाण होता है और दिखाता है कि आरोपी अपनी भूल को सुधारना चाहता है. हर भारतीय सहज रूप से यह जानता है – आखिरकार, अंग्रेजों को अभी भी अपने औपनिवेशिक शासन के लिए माफी मांगना बाकी है.

अपराधों की नई कड़ी

भारत की राजनीतिक रूप से बड़ी घटनाओं में से एक के लिए वास्तव में माफी मांगी गई है. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के एक दिन बाद 7 दिसंबर 1992 को पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की संसद में माफी को कुछ लोग भूल सकते हैं. फिर भी, अयोध्या मंदिर को लेकर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के अंदर जिस तरह की हलचल है उसे देखकर लगता है कि वाजपेयी की माफी सवाल उठाती है कि क्या माफी मांगने का कोई भी मतलब है. यदि नहीं, तो वे किस उद्देश्य की पूर्ति करते हैं? एक बात स्पष्ट है – माफी मांगना आज वह नहीं रहा जो पहले हुआ करता था.

यकीनन, भारतीय राजनीति में सबसे प्रसिद्ध व्यक्तिगत माफी पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मधुकर दत्तात्रेय देवरस की इंदिरा गांधी से मांगी गई माफी थी. संघ परिवार के एक सदस्य के मुताबिक, कहा जाता है कि देवरस ने इंदिरा गांधी से माफी मांगी थी और जयप्रकाश नारायण या जेपी के नेतृत्व वाले आपातकाल विरोधी आंदोलन से आरएसएस को अलग करने की मांग की थी, इसके अलावा पूर्व प्रधानमंत्री के 20-प्वाइंट प्रोग्राम के लिए काम करने की पेशकश की थी.


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इतिहास गवाह है कि आपातकाल विरोधी वर्षों में भाजपा के कई नेता परिपक्व हुए; इसके कई बड़े नेता उस दौर में जेल के अंदर गए और बाहर आए. वाजपेयी की माफी की तरह, वर्तमान भारतीय राजनीतिक जीवन में, देवरस की माफी बहुत कम मायने रखती है. लेकिन यह किसी भी माफी के दोहरे परिणाम को दर्शाता है चाहे वह मांगी गई हो, दी गई हो या ली गई हो क्योंकि यह आरोपी और आरोप लगाने वाले को एक नए समीकरण में बांधती है. आज की संस्कृति के विपरीत, देवरस प्रकरण एक विवाद के रूप में मौजूद है और हाल ही में माफी मांगने की अपील किए जाने के बाद इस पर कुछ कुछ बात होने लगी है.

आरोपी को शर्मिंदा करके या नीचा दिखाकर उसके ऊपर अपनी शक्ति या आधिपत्य दिखाने की कोशिश है.

ब्रिटेन में राहुल गांधी के बयानों पर माफी मांगने के ड्रामा पर विचार करें. उन्होंने जो टिप्पणियां वहां की थीं वैसा बयान वह पहले भी दे चुके थे. बल्कि, ब्रिटेन में, वह काफी सतर्क थे. संसद में हंगामा हुआ. माफी की मांग सामान्य रूप से किसी को उसकी सीमाएं समझाने और उसे तथाकथित पार करने को लेकर चौकसी रखने की कोशिश है. आज, बीजेपी की माफ़ी की मांग पूरी तरह से अर्थहीन हो गई है, क्योंंकि राहुल गांधी अब संसद सदस्य नहीं हैं, और संसदीय सत्र भी खत्म हो चुका है.

मनोविज्ञान या राजनीति?

माफी की इस पूरी कहानी में, कम से कम, राहुल गांधी शक्तिहीन और शक्तिशाली दोनों के रूप में उभरे हैं. एक ओर, उन्हें एक शक्तिशाली सत्तारूढ़ दल द्वारा बहुत कम विकल्प दिया गया था, और दूसरी ओर, यह एकमात्र मुद्दा पहले से ही गरमाए हुए संसदीय सत्र पर भारी पड़ गया. ऐसा लगता है कि उन्होंने बहस और असहमति की शर्तें तय कर दी हैं. लेकिन माफी की इस इच्छा के पीछे छिपना अपराधबोध है क्योंकि माफी मांगने की अपील करते वक्त आरोप लगाना शर्म की बात है.

ऐसा करने से इनकार करने पर, राहुल गांधी को न तो अपराधबोध होता है और न ही शर्म, हालांकि माफी का खेल उनके बारे में उतना ही है जितना कि वह सत्ता के बारे में हैं. इस मामले में, जल्दी से खेद व्यक्त करके, खट्टर ने भी माफी के खेल को खत्म कर दिया, इससे पहले कि माफी मांगने की अपील करने वाले ज्यादा मुखर और सक्रिय जाएं.

शर्म और अपराधबोध ने राजनीति के सिद्धांतों को बढ़ावा दिया है. होलोकॉस्ट के तुरंत बाद, वैश्विक विऔपनिवेशीकरण जब चरम पर था, मानवविज्ञानियों ने दुनिया को अपराधबोध और शर्म की संस्कृतियों में विभाजित कर दिया. यह अनुमान लगाना काफी आसान है कि पूर्व को शर्म की संस्कृति के रूप में परिभाषित किया गया था जबकि पश्चिम को अपराधबोध से प्रेरित संस्कृति के रूप में माना गया था. आज, डिजिटल वॉरफेयर द्वारा संचालित माफी के इस उत्सव के साथ, यह ग्लोबल शेमिंग का वक्त है. यहां तक कि हम अक्सर अपराध बोध को भूल जाते हैं लेकिन केवल शेम गेम और शर्मिंदा हुई पार्टी को याद करते हैं.

तो माफ़ी मांगने में परेशानी क्यों?

मैं इसके लिए एक नए प्रकार के तरस खाने योग्य और आसान मनोविज्ञान की बड़ी भूमिका को दोष देती हूं जो कि आजकल की जिंदगी पर हावी हो गया है. साफतौर पर कहूं तो चूंकि मैं फ्रायड और मनोविश्लेषण को गंभीरता से लेती हूं, मांफी मांगने का वर्तमान मनोविश्लेषण पूरी तरह से भ्रामक और खतरनाक भी है. सीधे शब्दों में कहें तो यह तेजी से इसकी मांग हो रही है और राजनीति को मनोविज्ञान से बदलने में सफल हो रहा है. यह दोनों के लिए ही बुरा हो सकता है. इस बढ़ते फैशन के बाद राजनीति और मनोविज्ञान के बीच बढ़ता कन्फ्यूजन काफी दर्दनाक है.


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उदाहरण के लिए, एक मान लेते हैं कि अगर अंग्रेजों ने तब या अब ब्रिटिश साम्राज्य के कार्यों के लिए माफी मांग ली होती. क्या यह कुछ बदलेगा? संभावना है कि कुछ भी नहीं. यह उन लोगों को कुछ वक्त के लिए शांत कर सकती है जो माफी मांगने की अपील कर रहे हैं. अगर खाली माफी मांगी जाती है और उसकी वजह से हुए नुकसान की भरपाई के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाता है तो इस माफी का कोई अर्थ नहीं है. यहां तक कि क्षतिपूर्ति के सवाल के बिना और अगर इस तरह की माफी सामने आती है, तो यह वास्तव में यह इस बात का दिखावा होगा कि अंग्रेज नैतिक रूप से अच्छे हैं.

फिर भी, यह कोई भी राजनीतिक रूप से शक्तिशाली या यथार्थवादी ब्रिटिश व्यक्ति यह कीमत नहीं अदा करना चाहता है. आखिरकार, ब्रिटेन की राष्ट्रीय पहचान साम्राज्य के साथ जुड़ी हुई है, और कोई भी व्यावहारिक राजनेता माफी मांगने के दबाव में नहीं आने वाला है. वाकई पासा पलट गया है. यही बात राहुल गांधी के साथ है जो तमाम नैतिक और मानसिक शिक्षा और माफी मांगने के बावजूद अपनी टिप्पणियों पर अडिग रहते हैं. उन्होंने अपने बयानों को मुख्य रूप से पक्षपातपूर्ण, सब से ऊपर और राजनीतिक मतभेदों के रूप में बताया है.

इस तरह से राजनीति, ओपीनियन और दुनिया के विचारों का संघर्ष है और रहेगी. इससे जख्म पैदा होगा इस बात में कोई संदेह नहीं है. लेकिन राजनेता डॉक्टर नहीं हैं, थिरैपिस्ट तो बिल्कुल भी नहीं हैं. उनका उपचार ज्यादातर वोट पाने और सोशल मीडिया पर ‘लाइक’ साझा करने के रूप में कीमत मांगेगा. माफी मांगने से पुरानी दरारें भरती हैं लेकिन वास्तव में, नई दरारों का निर्माण करती है. इसे राजनेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता, इसीलिए, तैयार रहें क्योंकि हर जगह चुनावी मौसम है, जो अपने साथ माफी मांगने वाले नाटकों का एक लंबा – और असंतोषजनक – मौसम लेकर आया है.

मांगी मांगने में भावनात्मक समर्थन की तलाश राजनीति के सच्चे वादे और क्षमता को कम कर देती है, जो मूल रूप से सत्ता के माध्यम से परिवर्तन के बारे में है. लेकिन माफी मांगने जैसे साइकिक वॉरफेयर के जरिए, हम केवल खेदजनक राजनीतिक स्थिति बनाते हैं.

(श्रुति कपिला कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में इतिहास और राजनीति की प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @shrutikapila है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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