‘हुकूमत चन्द हफ्तों की महल मीनार से ऊंचा!’ इस काव्य पंक्ति को प्रायः ‘सार्थक’ करती रहने वाली आज की राजनीति में आप शायद ही कल्पना कर सकें कि कोई शख्स अपने निधन तक केन्द्र में और उससे पहले देश के सबसे बडे़ प्रदेश में मंत्री रहने के बावजूद अपने वारिसों के लिए दिल्ली में कोई साधारण सा घर भी नहीं छोड़ जाऐगा और उसके अंतिम सांस लेते ही वे उसकी नैतिकता व ईमानदारी की कीमत चुकाते हुए उत्तर प्रदेश के एक कस्बे में स्थित अपने पैतृक घर में वापस चले जाने को विवश होंगे! इतना ही नहीं, देख-रेख के लम्बे अभाव में वह भी उन्हें बदहाल मिलेगा…बावजूद इसके कि स्वतंत्रता से पूर्व उनके परिवार में जमीन्दारी रही आई थी!
लेकिन स्वतंत्रता संघर्ष की आंच में तपकर नवस्वतंत्र देश के नवनिर्माण में कुछ भी उठा न रखने वाले समाजवादी रफी अहमद किदवई { जिनकी ईमानदारी, नैतिकता, सादगी और वैचारिक दृढ़़ता का तत्कालीन राजनीति में तो कोई सानी नहीं ही था. आज की राजनीति में भी नहीं ही है.} के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था.
24 अक्टूबर, 1954 को उन्होंने राजधानी दिल्ली में अंतिम सांस ली, तो दिल्ली में किसी ठौर के अभाव में उनकी पत्नी व बच्चे उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिला मुख्यालय से पन्द्रह किलोमीटर दूर मसौली कस्बे में स्थित उस पैतृक घर में वापस लौट जाने को मजबूर हुए थे, जिसके न सिर्फ छज्जे तक टूट गए थे बल्कि उसके कमरों को दिन में सूरज की रौशनी और रात में चंद्रमा की किरणें बेरोकटरोक आया-जाया करती थीं! रफी अहमद के परिवार की यह नियति तब थी, जब कांग्रेस के लिए कोष जुटाने और बांटने का काम अरसे तक रफी अहमद के ही पास था और वे उससे जरूरतमंदों को उपकृत करते रहते थे. यों, सच पूछिये तो यह नियति हमारी सामाजिक कृतघ्नता का भी आईना थी.
महात्मा गांधी से प्रभावित थे रफी
प्रसंगवश, 1894 में 18 फरवरी को यानी आज के ही दिन मसौली के एक जमींदार परिवार में जन्मे रफी अहमद ने छात्र जीवन में ही महात्मा गांधी से प्रभावित होकर पारिवारिक वर्जनाएं तोड़ दी थीं और किसानों व मजलूमों के पक्ष में आवाज उठानी आरंभ कर दी थी. 1920-21 में असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्होंने सहपाठियों के साथ कानून की परीक्षा का बहिष्कार कर दिया था और बाद में कानून की डिग्री पा लेने पर भी कभी वकालत नहीं न करने का फैसला कर डाला था. 1931 तक वे इलाहाबाद और उसके आस-पास के जिलों के किसानों के जमीन्दारी विरोधी संघर्षों के अभिन्न अंग बन गये थे.
हालांकि उन्होंने अपनी राजनीति की शुरुआत खिलाफत आन्दोलन के रास्ते स्वराज पार्टी से की थी और केन्द्रीय विधानसभा के लिए अपना पहला चुनाव 1926 में उसी के टिकट पर जीता था. उनकी असाधारण संगठन शक्ति ने उन्हें जल्दी ही स्वतंत्रता संघर्ष का राष्ट्रीय नेता बना दिया था और गोरों की आंख की किरकिरी बनने के बाद उन्हें अपनी जवानी के 10 से ज्यादा वर्ष जेलों की यातनाएं सहते हुए गुजारने पडे़ थे.
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जानकार बताते हैं कि किसी भी मसले पर ईमानदारी से समुचित विचार-विमर्श के बाद वे किसी निश्चय पर पहुंच जाते तो कितनी भी चुनौतियां क्यों न आऐ, उससे कतई पीछे नहीं हटते थे और उसकी कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते थे. इसी दृढ़ता के तहत उन्होंने 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में महात्मा गांधी द्वारा समर्थित पार्टी प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया के विरुद्ध नेताजी सुभाषचंद्र बोस का साथ दिया था, जबकि वे उत्तर प्रदेश के गोविन्दवल्लभ पंत के नेतृत्व वाले कांग्रेसी मंत्रिमंडल में शामिल थे. इसी तरह 1949 में उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रत्याशी पुरुषोत्तमदास टंडन के विरुद्ध डाॅ. सीतारमैया का समर्थन किया था.
हरदिलअजीज तो वे इतने थे कि वृद्धजन बताते हैं कि उनके निधन पर मसौली में शायद ही कोई आंख नम न हुई हो. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उनके जनाजे में शामिल होने आये तो उन्हे नेकनीयती की मिसाल बताते हुए उनके भव्य स्मारक के निर्माण की इच्छा जताई थी. बाद में संगमरमर के लाल पत्थरों से उनकी मजार तो बनाई ही गई थी, उसके आसपास नयनाभिराम पार्क व बाग भी विकसित किये गये थे. लेकिन अब जैसे उनकी यादों पर राख डाल दी गई है, वैसे ही इनमें से कुछ भी महफूज नहीं रह गया है.
क्यों कांग्रेस ने रफी को भुला दिया
विडम्बना यह कि खुद कांग्रेस ने भी उन्हें भुला दिया है और उसको भी याद नहीं आता कि पं. नेहरू ने ऐसी व्यवस्था करने को कहा था, जिससे जब भी लोग उनके स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पत करने आएं, फूलों की सड़क से गुजरकर आएं. एक समय इसके लिए मसौली चैराहे से स्मारक तक सड़क के दोनों ओर गुलमोहर के पेड़ लगवाए गए थे, जो अब लापरवाही और अतिक्रमण की भेंट चढ़ गये हैं.
यों, उनके स्मारक का वीराना भी अब गाहे-ब-गाहे ही टूटता है. 1994 में उनकी जन्मशती पर केंद्र सरकार की पहल पर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने उनकी जन्मभूमि के सर्वांगीण विकास के लिए एक विशेष पैकेज जरूर दिया था, लेकिन उसकी योजनाएं भी परवान नहीं ही चढ़ सकीं. अब तो उनका विस्मरण इतना असीम हो गया है कि किस्सा चल पड़ा है कि एक बार एक मंत्री उनकी याद में हो रहे एक कार्यक्रम को सम्बोधित करने आये तो उनके बजाय उनके हमनाम पाश्र्वगायक मोहम्मद रफी का बखान करने लगे थे!
अलबत्ता, आम लोग अभी भी उनकी ईमानदारी, सादगी, सरलता व नैतिकताओं के किस्से सुनते-सुनातेे मिल जाते हैं. वे कहते हैं कि रफी अहमद के दरवाजे हर जरूरतमंद के लिए हमेशा खुले रहते थे और यथासंभव मदद का हाथ बढ़ाते हुए वे कतई यह नहीं देखते थे कि जरूरतमन्द उनका समर्थक है या विरोधी. कोई टोकता कि कुछ लोग उनकी सरलहृदयता का बेजा फायदा उठाते हैं तो कहते थे, ‘मुद्दा यह नहीं कि किसी ने मदद के लिए झूठ बोला. मुद्दा दरअसल, यह है कि उसे मदद की इतनी जरूरत थी कि उसके लिए उसे झूठ बोलना पड़ा.’
कहते हैं कि एक बार कांग्रेस में उनके विरोधी रहे एक नेता की गरीबी के कारण उसकी बेटी की शादी नहीं हो पा रही थी. रफी अहमद ने सुना तो वे भूल गये कि एक वक्त इसी नेता ने उनको कांग्रेस से निकलवाने की मुहिम चलाई थी. एक रात यह नेता मदद मांगने आया तो रफी अहमद के बगल उनका पर्सनल सेक्रेटरी भी बैठा था. रफी अहमद ने उससे कहा कि इन्हें जितनी भी मदद की जरूरत है, मेरे खाते से दे दीजिए. सेक्रेटरी ने पूछा, ‘आपको पता भी है कि यह महाशय आपके कितने अंधविरोधी हैं?’ तो वे बोले थे, ‘तुम सिर्फ यह सोचो कि यह शख्स अन्दर ही अन्दर कितना शर्मिन्दा होगा कि इसे अपने विरोधी से मदद मांगनी पड़ रही है.
खाद्यमंत्री के रूप में रफी का क्या रहा योगदान
देश आजाद हुआ, तो खेती-किसानी के बुरे हाल के कारण देशवासियों के भरपेट भेजन का सवाल इतना जटिल था कि कोई भी केन्द्रीय मंत्री खाद्य मंत्रालय का प्रभार नहीं लेना चाहता था. तब पं. नेहरू ने पुरानी मित्रता का हवाला देकर कांटों भरा यह ताज सायास रफी अहमद के सिर पर रख दिया. लेकिन तभी सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने लगे. कल्कत्ता में अकाल पड़ गया और खाद्यान्नों की कीमतें रिकॉर्ड तोड़ने लगीं. रफी अहमद ने हालात पर गौर किया तो पाया कि यह अकाल जितना प्राकृतिक है, उससे ज्यादा कृत्रिम यानी बड़े व्यापारियों की जमाखोरी की देन.
उन्होंने बिना देर किये कलकत्ता पहुंचकर घोषणा कर दी कि खाद्य मंत्रालय ने न सिर्फ खाद्यान्नों की कीमत घटा दी है, बल्कि जल्दी ही खाद्यान्नभरी मालगाड़ियां कलकत्ता के बाजारों में भेज रहा है. फिर क्या था, जमाखोर इस अंदेशे से परेशान हो उठे कि कम कीमत वाला सरकारी खाद्यान्न बाजार में आने के बाद उनके मंहंगे अनाज की कोई पूछ ही नहीं रह जायेगी. सो, वे अपने स्टोरों में जमा खाद्यान्नं निकालने और बाजार में खुद ब खुद सस्ता बेचने लगे. खाद्यमंत्री के रूप में रफी अहमद का एक ओर योगदान यह है कि उन्होंने देश में हरितक्रांति के बीज बोये, जो आगे चलकर फूली-फली तो देश ने खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भरता पा ली.
डाॅ एम. हाफिज किदवई उनके बारे में कई और संस्मरण सुनाते हैं. एक तब का जब वे उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री थे. प्रदेश की न्यायिक सेवा में कार्यरत उनके रिश्ते के एक भाई अपना तबादला लखनऊ करवाना चाहते थे. अधिकारी जानते थे कि वे रफी अहमद के भाई हैं, सो उन्होंने उनका मनचाहा कर भी दिया. लेकिन जिस अधिकारी की जगह वे गये, उसने रफी साहब से मिलकर बताया कि उसकी पत्नी लखनऊ के एक कॉलेज में पढ़ रही है और तबादला होने से उसकी पढ़ाई में बाधा आयेेगी, तो रफी अहमद ने यह कहकर अपने भाई का तबादला रद्द कर दिया कि अपने लोगों की सुविधा के लिए दूसरों को मुश्किल में डालना कहां का न्याय है?
बाद मे वे उत्तर प्रदेश के राजस्व व जेलमंत्री भी रहे. केंद्र में संचारमंत्री बने तो उन्होंने देश की संचार व्यवस्था का नया ढांचा तो तैयार ही किया, ‘अंतर्देशीय पत्र’ की शुरुआत भी कराई.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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