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Thursday, 2 May, 2024
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इतिहास गवाह है, हमारे देश में सत्ताओं का संरक्षण धर्मों के काम नहीं आता

कई बार तो धर्म प्रचार को लेकर सत्ताओं ने अपनी भूमिकाओं के अतिक्रमण की कोशिशें कीं तो भी जनमानस में उनकी अस्वीकार्यता ने उलटे नतीजे दिये.

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कोई पूछे कि सर्वोच्चता के संघर्ष या सत्ता की प्रतिद्वंद्विता में किये गये धर्म व राजनीति के घालमेल हमारी दुनिया को कब से अनर्थों के हवाले करते या करने के फेर में रहते आये हैं, तो संभवतः किसी इतिहासकार के लिए भी पूरी तरह निश्चयात्मक जवाब देना मुश्किल होगा. लेकिन इस बाबत अनिश्चय की कोई गुंजाइश नहीं कि स्वतंत्रता के बाद भारत को इस घालमेल के अनर्थो से महफूज रखने के लिए ही उसके संविधान के निर्माताओं ने उसमें राजनीति के धर्म से परहेज की व्यवस्था की थी.

यह और बात है कि उस संविधान की शपथ लेकर सत्ता में आती रही अलग-अलग रूप-रंग की सरकारों से इस परहेज को लम्बा करना गवारा नहीं हुआ और वोट की राजनीति के लिए जल्दी ही वे भी इस घालमेल पर उतरने और उसका लाभ उठाने में लग गईं.

हिंदूवादी दिखाने का फैशन चल पड़ा है

अलबत्ता, कुछ दशकों तक वे यह परहेज टूटने को लेकर थोड़ी शरमाती और लजाती भी रहीं. एक कहावत के शब्द उधार लेकर दूसरे शब्दों में इसे यों भी कह सकते हैं कि ‘निहुरे-निहुरे’ ऊंट चराती रहीं. लेकिन आज हम देख रहे हैं कि यह परहेज टूटना इस कदर गर्व का विषय हो गया है कि कभी संविधान का सबसे पवित्र मूल्य रही धर्मनिरपेक्षता छद्म करार दी जाने लगी और मजाक का विषय बना दी गई है. इतना ही नहीं, सरकारों में खुद को बहुसंख्यकों के धर्म की सबसे बड़ी पैरोकार, हिन्दूवादी या हिन्दुत्ववादी प्रदर्शित करने का फैशन-सा चल पड़ा है. उन पार्टियों की सरकारें भी इस फैशन का कुछ कम शौक नहीं रखतीं, जो पहले सर्वधर्म समभाव के फैशन के लिए जानी जाती थीं या जिन पर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के आरोप लगा करते थे.

दुर्भाग्य से इस सिलसिले में एक बड़े और बहुत जरूरी सबक की पूरी तरह अनसुनी कर दी गई है. यह कि भारत के लोग आजादी के बाद से ही नहीं उसके बहुत पहले से धर्म को मनुष्य का व्यक्तिगत चयन मानते आये हैं. यह भी कि मनुष्य को राजनीतिक गुलामी के दौर में भी स्वेच्छा से कोई भी धर्म ग्रहण करने या त्यागने की अपनी स्वतंत्रता बनाये रखनी चाहिए. इसलिए उन्होंने सुदूर अतीत में बहुत से ‘इमोशनल अत्याचार’ झेलकर भी उन सत्ताओं के मंसूबे पूरे नहीं होने दिये, जिन्होंने अपने वक्त में बहुविध प्रयत्न किये कि सारा देश उनके द्वारा प्रवर्तित, चुना, अपनाया और सर्वाधिक कल्याणकारी व उदार बताया जा रहा धर्म अपना ले और उसी के मार्ग पर चले.


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धर्म और राजनीति के घालमेल को जनमानस ने नकारा है

देश की जिस धार्मिक बहुलता पर हम आज भी गर्व करते हैं, वह गवाह है कि अपने धर्म के प्रचार व प्रसार की लाख कोशिशों के, जिनमें जोर-जबर्दस्ती भी अपनी भूमिका निभाती ही रही, बाद भी सत्ताओं के लिए देश को किसी एक धर्म के रंग में रंगना संभव नहीं हो पाया तो इसीलिए कि जनमानस ने उसे स्वीकार नहीं किया.

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कई बार तो उसने सत्ताओं की समाज सुधार की कोशिशों को भी यह मानकर नकार दिया कि वह उनका काम नहीं हैं और उनसे ज्यादा उन संतों व समाज सुधारकों की सुनी, जो सत्ता की चापलूसी से दूर रहकर ‘संतन को कहां सीकरी सों काम’ की घोषणा करतें रहे.

इसीलिए इस्लाम भी जिसके बारे में कई लोग कहते हैं कि उसके पास भरपूर राज्याश्रय था, उन जगहों से, जहां उसके सत्ताधीशों की तलवारें लहराया करती थीं, ज्यादा वहां फैला जहां सूफी संत मुहब्बत को सबसे ऊपर रखकर उसके तत्कालीन मूल्यों के प्रचार के लिए सक्रिय थे.

कई बार तो धर्म प्रचार को लेकर सत्ताओं ने अपनी भूमिकाओं के अतिक्रमण की कोशिशें कीं तो भी जनमानस में उनकी अस्वीकार्यता ने उलटे नतीजे दिये. यों तो देश के इतिहास में इसकी अनेक मिसालें हैं, लेकिन दो महान सम्राटों-अशोक और अकबर-की दो खास मिसालों से ही बात पूरी तरह साफ हो जाती है.

अशोक ने किया बौद्ध धर्म का प्रचार

अपने वक्त में सबसे शक्तिशाली मौर्य राजवंश के प्रतापी सम्राट देवानांप्रिय अशोक की बात करें तो उन्होंने ईसा पूर्व 269 से 232 तक राज किया और कई लोग उन्हें देश का पहला चक्रवर्ती सम्राट भी मानते हैं.

ईसा पूर्व 262 से 261 तक लड़े गये ऐतिहासिक कलिंग युद्ध के दौरान हुए भयानक नरसंहार से द्रवित होकर उन्होंने अहिंसामार्गी बौद्ध धर्म की शरण ले ली और उसे तरह-तरह प्रचारित करते हुए संदेश दिया कि मनुष्य के लिए उसका अहिंसा व करुणा का जीवन-पथ ही सर्वाधिक श्रेयस्कर है. देशवासियों का एक बड़ा समूह उनके द्वारा प्रेरित इस धर्मपथ पर गया भी. लेकिन यह धर्म उनके संसार को अलविदा कहने के साढे़ पांच दशक तक भी अपनी इस स्थिति को बनाये नहीं रख पाया.

उनके वंशज नवें मौर्य सम्राट वृहद्रथ की उनके ही सेनापति पुष्यमित्र शुंग {ईसा पूर्व 185-149} ने हत्या कर दी और इतिहासकार डीएन झा के शब्दों में कहें तो बौद्ध भिक्षुओं के संहार और उनके धर्मस्थलों के ध्वंस के रास्ते चलकर सनातन ब्राह्मणीय धर्म की पुनर्स्थापना कर दी. बौद्ध धर्म का ऐसा उच्छेदन कर डाला कि लोग भूल ही गये कि कभी देश में उसका वर्चस्व हुआ करता था. इतिहासकार यह लिखने तक पर विवश हो गये कि महात्मा बुद्ध द्वारा प्रवर्तित बौद्ध धर्म दुनिया भर में तो फैला, लेकिन उनके अपने ही देश से लुप्तप्राय हो गया!


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अकबर का दीन-ए-इलाही भी बहुत सफल नहीं रहा

दूसरी मिसाल मुगल बादशाह अकबर की है, जिन्होंने 11 फरवरी, 1556 से 27 अक्टूबर, 1605 तक सत्ता संभाली. उनके द्वारा प्रवर्तित एवं प्रचारित दीन-ए-इलाही का हश्र भी कुछ अलग नहीं हुआ. उन्होंने अपनी बहुधर्मी-बहुभाषी रियाया के लिए सबसे कल्याणकारी मानकर अपने द्वारा प्रवर्तित दीन-ए-इलाही को उस वक्त तक दुनिया भर में प्रचलित तमाम धर्मों का सार-संग्रह बनाने की कोशिश की थी.

उसमें हिन्दू व इस्लाम धर्मों की ही नहीं, जैन, बौद्ध व ईसाई धर्म-दृष्टियों का भी समाहार था. लेकिन तत्कालीन भारतीय समाज ने उसे कतई स्वीकार नहीं किया. यहां तक कि अकबर के सारे दरबारियों और उनकी सत्ता से जुड़े सारे लोगों ने भी उससे नाता नहीं जोड़ा.

अकबर को बहुत प्रिय मान सिंह और रहीम जैसी शख्सियतें भी अपने-अपने धर्मों का पालन करती रहीं और दीन-ए-इलाहीं को कबूल नहीं किया. अलबत्ता, अकबर ने अपनी ओर से कभी किसी पर उसे कुबूल करने का दबाव भी नहीं डाला. न ही कुबूल न करने वालों पर कोई सख्ती ही की.

इसके उलट उन्होंने तब धार्मिक सहिष्णुता की बड़ी नजीर पेश की, जब पुर्तगाल में कुरान के अपमान से क्षुब्ध उनकी मां बेगम हमीदा बानो ने उनसे देश में बाइबिल के उससे बड़े अपमान के आयोजन को कहा. उन्होंने यह कहते हुए मां की बात टाल दी कि पुर्तगालियों द्वारा कुरान का अपमान करना गलत था तो मेरे जैसे बादशाह के लिए बुराई का प्रतिशोध बुराई से लेना भी बहुत अशोभनीय होगा, क्योंकि किसी भी धर्म का अपमान अंततः ईश्वर का ही अपमान है.

वरिष्ठ आलोचक और साहित्यकार विजय बहादुर सिंह कहते हैं कि इस उत्तर आधुनिकताकाल में भारत के लिए इन दोनों महान सम्राटों की मिसालों को भुलाना उसे अंधकार की ओर धकेल सकता है, जबकि सबक लेना उसे नये उजाले प्रदान कर सकता है.

सरकार का काम सुशासन है

उनका मानना है कि देश की सारी सरकारें जितनी जल्दी यह बात समझ जायें उतना ही अच्छा कि उनका काम धर्म की स्थापना, उसका संरक्षण या प्रचार करना नहीं बल्कि संवैधानिक प्रतिज्ञाओं के अनुसार सुशासन की स्थापना और लोक-समाज की सारी धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यताओं का यथा संभव आदर करना है, क्योंकि धर्म हो, सांस्कृतिक जीवन-विश्वास या सत्ता, सबका गर्भगृह, जन्मदाता, निर्धारक व नियंत्रक लोक-समाज ही है.

अफसोस की बात है कि आज इस देश के सत्ताधीश शायद ही कभी उसकी संस्कृति को गंभीरता से जानने-समझने की कोशिश करते हैं. वे भी नहीं करते जिन्हें हर पल ‘अपनी’ संस्कृति व धर्म पर खतरे मंडराते दिखते हैं. सत्ताधीश तो सत्ता में आते ही अपने सोच व सरोकारों की मर्यादाएं भूल जाते हैं.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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