देश में इस समय विभिन्न सवालों पर सैकड़ों नहीं, बल्कि हजारों छोटे-बड़े आंदोलन चल रहे हैं. जल, जंगल, जमीन को बचाने के आंदोलन मुख्य रूप से स्वतःस्फूर्त हैं, या फिर इस तरह के आंदोलनों का नेतृत्व वैसे संगठन कर रहे हैं जो शोषण मुक्त समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध होकर वर्षों से सक्रिय हैं. यह स्पष्ट है कि इस तरह के आंदोलनों का नेतृत्व कोई राजनीतिक दल नहीं कर रहा है.
आंदोलनकारियों की दो श्रेणियां हैं. एक तो वैसी बदलावकारी जमातें जो चुनावी राजनीति से परहेज करती हैं, दूसरी वे जिनमें हाल के दिनों में राजनीतिक महत्वाकांक्षा जगी है. हालांकि दोनों तरह के लोग हर दौर में रहे हैं.
जो आंदोलनकारी चुनाव लड़ने के पक्षधर हैं, उनका तर्क यह है कि जनता की आवाज या जनता के सवालों को स्थापित राजनीतिक दल संसद और विधानसभा में नहीं उठाते. इसलिए आंदोलनकारी जमातों को भी अब संसद या विधानसभा में नुमाइंदगी करनी पड़ेगी. विडंबना यह कि इसके लिए उनके पास कोई सुचिंतित रणनीति नहीं है और यदि है भी तो अपने निहित स्वार्थों की वजह से वे उस पर अमल करने में असमर्थ हैं और प्रकारांतर से भाजपा को चुनाव में फायदा पहुंचाने वाले हैं.
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यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी जन आंदोलन के बीच ही बनी और बाद में एक राजनीतिक दल में तब्दील होकर आज झारखंड का एक प्रमुख राजनीतिक दल है. इसने सरकार भी चलाई है. इसी तरह आजसू भी झारखंड अलग राज्य आंदोलन की उपज है और अब एक राजनीतिक दल भी है जिसका नेतृत्व सुदेश महतो करते हैं. एक और राजनीतिक दल कामरेड एके राय की मार्क्सवादी समन्वय समिति है जो शोषण मुक्त समाज बनाने के लिए ही अस्तित्व में आई और बाद में चुनावी राजनीति में शामिल हो गई. इन सभी दलों के सांसद, विधायक बनते रहे. ऐसे दल कई राज्यों में हैं.
लेकिन वास्तविकता यह है कि इन पार्टियों का जल, जंगल, जमीन बचाओ आंदोलनों से सीधा रिश्ता नहीं रहा, न किसी बड़े जन आंदोलनों का ये नेतृत्व ही कर रहे हैं, बल्कि कभी कभी तो इनकी बेहद प्रतिगामी भूमिका रही है. झामुमो सत्ता में रह कर ठोस डोमेसाइल यानी स्थानीयता नीति नहीं बना सकी. आजसू तो आंदोलन भूलकर, भाजपा गठबंधन में शामिल हो गई.
दूसरी तरफ अधिकतर जन आंदोलन स्वतःस्फूर्त आंदोलन थे और उनके नेताओं में राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं रही. न वे कोई राजनीतिक चेतना ही आदिवासी जनता में पैदा कर सके. ठोस उदाहरण के रूप में हम चर्चा कर सकते हैं सिंगूर और नंदीग्राम में चले आंदोलनों की, जिसने पश्चिम बंगाल में तीन दशकों तक जड़ जमाये वाम मोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंकने में भूमिका निभाई. लेकिन आखिरकार इस आंदोलन का फायदा तृणमूल कांग्रेस उठा ले गई, जो यथास्थितिवादी नीतियों पर ही चलती है. जो जनता आंदोलन के वक्त आंदोलनकारी संगठनों के साथ थी, वही चुनाव के वक्त कहीं और चली गई.
झारखंड में बड़े-बड़े जन आंदोलन हुए. कोयलकारो, तपकारा, नेतरहाट, सुवर्णरेखा परियोजना और इचा डैम के खिलाफ चला आंदोलन. हाल के दिनों में काठीकुंड, पचौड़ा, बड़कागांव, गोड्डा में अडानी समूह के खिलाफ चला आंदोलन, पत्थरगड़ी आंदोलन आदि, लेकिन राज्य में कार्पोरेट पोषित प्रतिगामी ताकतों का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा दिनों दिन मजबूत होती गई.
इधर सामाजिक आंदोलनों और जन आंदोलनों से जुड़े प्रबुद्ध युवाओं ने यह कहना शुरू किया कि राजनीति में आंदोलनकारियों की भूमिका बढ़नी चाहिए. उन्हें चुनाव लड़ कर संसद और विधानसभा में जाना चाहिए. इसके लिए जो सुचिंतित प्रयास होने चाहिए, वह न कर पहले तो उन लोगों ने यह जोर देना शुरू किया कि हम भाजपा या एनडीए के खिलाफ हैं, इसलिए हमें महागठबंधन में शामिल किया जाना चाहिए और हमें लोकसभा की कुछ सीटें मिलनी चाहिए.
लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि वे इसके लिए प्रक्रिया क्या अपनायेंगे? उम्मीदवार कैसे बनाया जायेगा? एक सीधा रास्ता इस मांग के रूप में निकाला गया कि जन आंदोलनों के नेताओं को कांग्रेस टिकट दे. कम से कम खूंटी और गोड्डा क्षेत्र में, जहां हाल के दिनों में तीव्र आंदोलन चला था. खूंटी से दयामनी बारला को खड़ा करने की मांग की गई.
लेकिन दलगत राजनीति के अपने नियम हैं. उन्होंने चुनाव के महात्वाकांक्षी नेताओं को अपने पैमाने पर कसना शुरू किया. उनके चुनाव लड़ने की क्षमता का मूल्यांकन किया, उनके जनाधार को परखा और जन आंदोलन के नेताओं के लिए कोई भी सीट छोड़ने से इंकार कर दिया. दयामनी बारला को तो कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार ने टिकट देने की बात सार्वजनिक रूप से कही थी. लेकिन खूंटी से कांग्रेस ने टिकट दिया कालीचरण मुंडा को.
इसी तरह गोड्डा सीट महागठबंधन में शामिल झाविपा के प्रदीप यादव को दी गई.
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अब दयामनी बारला ने तो अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन गोड्डा में जन आंदोलन से जुड़े जेएनयू में सक्रिय रहे एक नेता वीरेंद्र महतो खड़े हो गये हैं. हालांकि उन्होंने कभी कांग्रेस से टिकट पाने की चाहत नहीं जताई थी. उनकी जमात के एक नेता खूंटी में भी खड़े हो गये हैं.
समस्या यह है कि राजनीतिक चेतना का अर्थ कुछ लोग सत्ता की राजनीति में जाने मात्र से लगाते हैं. जनता को प्रबुद्ध बनाना नहीं. दूसरी बात यह कि दलगत राजनीति का मुकाबला करने के लिए वे दलगत राजनीति के ही तौर तरीके अपना रहे हैं.
खतरा यह कि जन आंदोलनकारी संगठन जिस भाजपा और भाजपा सरकार के खिलाफ संघर्ष करते रहे, उसे ही वापस सत्ता में लाने में मददगार न बन जायें?
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष उनका चर्चित उपन्यास है)