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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतसऊदी से पाकिस्तान के रिश्ते पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं लेकिन चीन के साथ रहते उसे सऊदी प्रिंस के तेवर की परवाह नहीं

सऊदी से पाकिस्तान के रिश्ते पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं लेकिन चीन के साथ रहते उसे सऊदी प्रिंस के तेवर की परवाह नहीं

पाकिस्तान ने कुरैशी को चीन भेजा और बाजवा को रियाद रवाना किया लेकिन ऐसा लगता है कि मध्य-पूर्व की इसकी नीति इस्लामाबाद में नहीं बल्कि रावलपिंडी में तय होगी.

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इस्लामाबाद में इन दिनों ये चर्चा आम है कि पाकिस्तानी फौज के चीफ जनरल क़मर जावेद बाजवा और आईएसआई के चीफ ले. जनरल फ़ैज़ हमीद का सऊदी अरब दौरा किस तरह नाकाम रहा. दोनों चीफ रियाद में तीन दिन रुके मगर सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) से उनकी मुलाकात न हो सकी. ये दोनों नाराज़ सऊदी अरब को मनाने गए थे. वह पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के उन तीखे बयानों से नाराज़ हैं जिनमें सऊदी अरब से रिश्ता तोड़ने के इशारे किए गए. यही नहीं, सऊदी अरब से मिलने वाला 6 अरब डॉलर का उधार भी दांव पर है जिसमें से 3 अरब डॉलर पाकिस्तान के खाली होते विदेशी मुद्रा भंडार के लिए और 3 अरब डॉलर कच्चे तेल के लिए भुगतान के वास्ते मिलने वाले हैं.

पाकिस्तानी सुरक्षा तंत्र की ये दो आला हस्तियां जब घर वापस आ गईं तो पाकिस्तान ने सऊदी अरब को एक और झटका दिया. उसने न केवल कुरैशी को अपनी कुर्सी पर बनाए रखा बल्कि एक अहम कांफ्रेंस में शिरकत करने के लिए उनकी चीन रवानगी का ज़ोर-शोर से प्रचार किया. इशारा यह कि अगर सऊदी अरब अपने रिश्ते बदलता है तो पाकिस्तान भी यह हिसाब-किताब करेगा कि सऊदी अरब उसके लिए कितने रणनीतिक महत्व का है. दिसंबर 2019 में प्रधानमंत्री इमरान खान ने सऊदी के दबाव में मलेशिया में हुए एक शिखर सम्मेलन में भाग लेने से अचानक मना तो कर दिया था मगर आज इस्लामाबाद अपनी स्थिति का पुनर्मूल्यांकन कर रहा है.


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पाक-सऊदी रिश्ता

पिछले कुछ सप्ताह की घटनाओं का मतलब यह नहीं है कि पाकिस्तान ने सऊदी अरब से एकदम कट्टी कर ली है या सऊदी अरब ने पाकिस्तान से रिश्ता तोड़ लिया है. दोनों मुल्कों ने एक-दूसरे के यहां भारी निवेश कर रखा है. पाकिस्तानी फौज सऊदी राजशाही की सुरक्षा और उसकी फौज को ट्रेनिंग देने में अहम भूमिका निभाती है. यह भूमिका 1960 के दशक में ही मांग कर ली गई थी और उसे और बढ़ाया गया है. सऊदी राजशाही मिस्र या दूसरे अरब मुल्कों की फौजों की जगह पाकिस्तानी फौज को ही तरजीह देती रही है. एक आकलन के मुताबिक, फिलहाल तीन से पांच हज़ार के बीच पाकिस्तानी फौजी वहां तैनात होंगे. इसके अलावा, पाकिस्तानी जनरल रहील शरीफ सऊदी नेतृत्व वाले आतंकवाद विरोधी गठबंधन के मुखिया हैं, एक रिटायर्ड फौजी मेजर जनरल खावर हनीफ सऊदी रक्षा मंत्रालय के सलाहकार हैं.

उधर, सऊदी अरब पाकिस्तान के सत्तातंत्र और समाज में निरंतर निवेश करता रहा है. आज दोनों मुल्कों के सरकारी रिश्ते भले बेहतरीन हाल में न हों, इससे पाकिस्तानी समाज पर सऊदी प्रभाव कम नहीं हो जाता. पाकिस्तानी उलेमा काउंसिल के मुखिया और एक देवबंदी मौलवी मौलाना ताहिर अशरफ पाकिस्तान में सऊदी पैठ की एक मिसाल हैं. दोनों मुल्कों में एक-दूसरे को फायदा और नुकसान भी पहुंचाने की पूरी क्षमता है. दोनों ही अपने रिश्ते में ज्यादा खटास नहीं घुलने देना चाहेंगे.


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पाकिस्तानी विदेश नीति कैसे तय होती है

पाकिस्तान सऊदी अरब या और किसी मुल्क की अहमियत का आकलन अपनी विदेश नीति के मोटे तौर पर तीन मकसदों के मद्देनज़र करता है— (1) उसका रुख कितना भारत विरोधी है, (2) एक अहम क्षेत्रीय खिलाड़ी के तौर पर वह कितना ताकतवर है, (3) सत्तातंत्र को चलाने के लिए वित्तीय और दूसरे संसाधनों से वह कितना मददगार हो सकता है.

इन मकसदों को ध्यान में रखते हुए एक इस्लामी ब्लॉक बनाने की कोशिश करना शुरू से उसकी चाल रही है. इन तीन मकसदों का आपस में मेल भी होता है और टकराहट भी होती है जिसके चलते वह दिलचस्प फैसले करता रहा है.

सऊदी अरब पाकिस्तान के लिए सामाजिक-राजनीतिक वैधता के एक स्रोत के अलावा एक महाजन के तौर पर भी अहम रहा है. वह अनूकूल दरों और शर्तों पर तेल हासिल करने का भी एक स्रोत रहा है. लेकिन यह अपने आप में इस बात के लिए काफी नहीं है कि पाकिस्तान सऊदी अरब के साथ हमेशा के लिए और हर कीमत पर बंधा रहे.

यहां पर ईरान की याद आती है, जो कभी पाकिस्तान का बड़ा महाजन था. वास्तव में, वह सुरक्षा के लिहाज से सऊदी अरब से ज्यादा अहम था. रणनीतिक मजबूती के बारे में पाकिस्तानी सोच ने 1960 और 1970 के दशकों में ईरान के साथ उसके रिश्ते के कारण ही आकार हासिल किया था. ईरानी राजशाही ने पाकिस्तान को 1965 के युद्ध में न केवल हथियार मुहैया कराए थे बल्कि पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइन्स के विमानों को भारतीय हमले से बचाने के लिए अपने यहां खड़ा करने की जगह दी थी. इस युद्ध के बाद एलेक्स वतंका ने अपनी किताब ‘ईरान एंड पाकिस्तान ’ में ईरान-पाकिस्तान-अमेरिका रिश्ते के बारे में लिखा है कि ईरान पाकिस्तान के लिए ‘हथियार खरीदने वाला एजेंट’ बन गया था. ईरान के शाह ने पाकिस्तान की सुरक्षा को अपनी सुरक्षा जितना अहम मान लिया था और अमेरिका तथा इजरायल से उसे हथियार दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाई थी.

फिर भी 1960 के दशक के अंत में हताश होकर शाह ने अपने दूत जनरल हसन पकरवान को पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान के पास इस संदेश के साथ भेजा कि ‘ऐसा क्यों है कि पाकिस्तान को जब मदद की जरूरत पड़ती है तब वह हमेशा ईरान की ओर मुंह करता है लेकिन मिस्र के नासिर के लिए एक लाख लोगों की रैली करवाता है?’ अयूब खान को नासिर बहुत पसंद थे इसलिए उन्होंने जवाब भेजा कि वे संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मसले पर अपने लिए समर्थन जुटाने के वास्ते अरबों को रिझा रहे हैं.

लेकिन अरबों और ईरान के बीच संतुलन साधने का काम ज्यादा व्यवस्थित तरीके से 1970 के दशक में ज़ुल्फिकार अली भुट्टो तक चला. 1960 के दशक के मध्य से पाकिस्तान दूसरे देशों से अपने रिश्ते सामरिक हिसाब-किताब के मुताबिक तय करने लगा. ईरान से उसे वित्तीय सहायता और बलूचिस्तान में बगावत से लड़ने में मदद भी मिलती रही लेकिन इस बीच एक बड़ा बदलाव भी हुआ जिसके तहत अरबों को पहले से ज्यादा अहमियत दी जाने लगी. हालांकि भारत के साथ ईरान की दोस्ती और शाह की बार-बार की इस हिदायत से पाकिस्तान उससे कुछ बेजार हुआ कि वह भारत से अपने रिश्ते बेहतर बनाए लेकिन दूसरी वजहें भी रहीं.

1974 में इंदिरा गांधी ईरान से जिस तरह करीबी बना रही थीं उसे पाकिस्तान शक की नज़र से देख रहा था. हालांकि ईरान पाकिस्तान की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध था लेकिन उसे यह भी एहसास था कि दक्षिण एशिया में भारत बड़ी भूमिका निभा सकता है. भुट्टो को यह गवारा नहीं था और वे इस विचार में अयूब खान से ज्यादा यकीन रखते थे कि पाकिस्तान ईरान से अलग एक इस्लामी खेमे का नेतृत्व कर सकता है.

बताया जाता है कि भुट्टो ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और विदेश मंत्री हेनरी किसिंगर से निजी बातचीत में ईरान के शाह की तौहीन करते हुए उन्हें एक कमजोर शासक तक कह डाला था और यह भी सुझाव दिया था कि मध्य-पूर्व तथा दक्षिण एशिया में शाह से ज्यादा पाकिस्तान ही अमेरिकी हितों की रक्षा करने की ताकत रखता है. यह कानाफूसी शाह के कानों तक भी पहुंची और भुट्टो के साथ उनके रिश्ते खट्टे हो गए. सो, 1974 में भुट्टो ने लाहौर में जब इस्लामी शिखर सम्मेलन आयोजित किया तो ईरान के शाह ने खुद आने से मना कर दिया. इस सम्मेलन में भुट्टो ने सऊदी अरब के किंग फैजल की तारीफ के पुल बांधे और लीबिया के मुअम्मर अल गद्दाफी के करीब आने के संकेत दिए तो ईरान नाराज़ हो गया.


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भारत का प्रवेश

1960 और 1970 के दशकों में, अरब जगत और खाड़ी के देशों पर भारत का लगभग कोई प्रभाव नहीं था. हालांकि सऊदी अरब के साथ भारत का मेलजोल पहले ही हो चुका था मगर ऐसा लगता है कि भारत ने उसे ज्यादा आगे बढ़ाने के बारे में नहीं सोचा था. 1951 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जब सऊदी अरब का दौरा किया था तब उसके बादशाह ने उन्हें ‘रसूल-उल-इस्लाम’ (शांतिदूत) के खिताब से नवाजा था. लेकिन इसके बाद भारत ने उसकी ओर आगे कदम बढ़ाने से अपने को रोक लिया था. जैसा कि एक ब्रिटिश राजनयिक ने कहा था, ‘नेहरू को डर था कि कहीं वे राजनीतिक तौर पर इस्लामी मुल्कों से घिर न जाएं.’ 1958 में नेहरू ने मुद्रास्फीति का हवाला देते हुए खाड़ी मुल्कों और सऊदी अरब को भारतीय मुद्रा की सप्लाई रोक दी थी.

भारत ने जो खाली जगह छोड़ी उसे पाकिस्तान ने न केवल भरा बल्कि वह सऊदी राजशाही के लिए सुरक्षा का एक बड़ा सूत्र बन गया. वर्षों तक द्विपक्षीय संबंध इस्लामाबाद पर नहीं बल्कि रावलपिंडी पर निर्भर रहा.

1980 के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सेना की मौजूदगी के खिलाफ आपसी सहयोग पाकिस्तान-सऊदी रिश्ते का आधार रहा. इस मामले में अपवाद केवल नवाज़ शरीफ का दौर रहा. लेकिन शरीफ की सरकार ने भी यमन के मामले में सऊदी विदेश नीति के लक्ष्यों से खुद को अलग करने का जोखिम नहीं उठाया. अत्यधिक फौजी सक्रियता ने गतिरोध पैदा किया जिसके कारण पाकिस्तान 1990 के दशक में सऊदी अरब के साथ भारत की फिर से शुरू हुई दोस्ती पर या 2000 के दशक में इस दोस्ती के मजबूत होने या अब नरेंद्र मोदी के राज में इसके और फलने-फूलने पर कुछ नहीं कर पाया. पाकिस्तान कुछ कर भी नहीं सकता था क्योंकि भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था सऊदी अरब को आकर्षित कर रही थी. ऐसा एहसास बन रहा था कि सैन्य संबंध पर जरूरत से ज्यादा ही ज़ोर दिया जा रहा है. रियाद में सत्ता परिवर्तन के बाद उसकी प्राथमिकताएं बदल गईं तो पाकिस्तान उसके लिए और गौण हो गया.


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सऊदी अरब की घटती आर्थिक ताकत

केवल सऊदी अरब ही अपना रुख नहीं बदल रहा है, उसके बारे में पाकिस्तान की धारणा भी बदल रही है. तेल संकट के कारण सऊदी अरब के लिए जो वित्तीय चुनौतियां खड़ी हो गई हैं उनके मद्देनज़र वह पाकिस्तान के लिए नकदी का स्रोत बना रहेगा या नहीं इस पर उसे संदेह होने लगा है.

अरबीकरण की नीति का मतलब यह है कि सऊदी अरब अब पाकिस्तानी मजदूरों का बड़ा ठिकाना नहीं रह गया है.

एमबीएस के नेतृत्व वाले निज़ाम के सामने सुरक्षा को लेकर कई राजनीतिक चुनौतियां हैं और उसमें इस्लामी दुनिया का नेतृत्व करने की ताकत भी नहीं है. सऊदी क्राउन प्रिंस ताकतवर भले दिखते हों, उनकी कुछ कमजोरियां भी हैं जिनका फायदा उठाया जा सकता है. उन्होंने अपने जिन प्रतिद्वंदियों को किनारे लगाया है और सऊदी सत्तातंत्र का जो गोपनीय स्वरूप है, उन सबके कारण उनके लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं.

नए रियाद में इतनी भी ताकत नहीं दिखती कि वह इजरायल को मान्यता देने के सवाल पर कोई फैसला कर सके जिसके अभाव में पाकिस्तान भी ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकता. कहने की जरूरत नहीं कि भारत के साथ सऊदी अरब का बढ़ता राजनीतिक और आर्थिक रिश्ता पाकिस्तान के लिए एक मुद्दा है. यह और बात है कि पाकिस्तान ने कश्मीर के अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए ‘ओआईसी’ का इस्तेमाल करने की हल्की कोशिश भी नहीं की है और न सऊदी अरब के नए उदारवादी निज़ाम को रिझाने की कोशिश की है.

लेकिन इस मुकाम पर उनके आपसी रिश्ते किसी गतिरोध के कारण नहीं बदल रहे हैं. पाकिस्तान इस भरोसे के साथ आगे बढ़ता दिख रहा है कि वह उस खेमे से जुड़ रहा है जो उसके मुताबिक भविष्य में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दमदार साबित होगा. चीन के साथ रिश्ता, ईरान का साथ, और चीन का ‘बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट’ नई चुनौतियां तो पेश करता है लेकिन यह सब पाकिस्तान को नई उम्मीद भी बंधाता है. लगता है, इसी वजह से उसे ‘एमबीएस’ के बदलते तेवरों की ज्यादा परवाह नहीं है.

यह भी गौर करने वाली बात है कि मध्य-पूर्व की उसकी नीति का खाका रावलपिंडी में तैयार होता है, इस्लामाबाद में नहीं. शाह महमूद कुरैशी जिस अंदाज में संदेश दे रहे हैं उसके लिए उन्हें दोषी ठहराया जा सकता है, मगर जो संदेश दिया जा रहा है उस पर शायद ही संदेह किया जा सकता है.

अंततः, इसे तलाक नहीं कहेंगे लेकिन सरकारें अपनी प्राथमिकताएं और पसंदगी बदलती रहती हैं. बेशक, यह बदलाव कितनी तेजी से होता है, वह अहमियत रखती है. यह और बात है कि इस सबका अंततः क्या नतीजा निकलता है.

(लेखिका एसओएएस, लंदन में रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने ‘मिलिट्री इंक’ नामक पुस्तक लिखी है. व्यक्त विचार  निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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