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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतपाकिस्तान में सिंथिया रिचि के आरोप कोविड से बड़ा मुद्दा हैं, ऐसा ही इमरान खान चाहते भी हैं

पाकिस्तान में सिंथिया रिचि के आरोप कोविड से बड़ा मुद्दा हैं, ऐसा ही इमरान खान चाहते भी हैं

कोरोना महामारी और आर्थिक संकट से निबटने में नाकाम हो रही इमरान खान सरकार और फौजी हुक्मरान लोगों के ध्यान भटकाने की पुरानी चाल आजमाने में जुटे.

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भारतीय मीडिया जबकि चीन के साथ सरहद पर झगड़े के मसले को लेकर व्यस्त है, पाकिस्तानी मीडिया सिंथिया नामक मसले उलझा हुआ है. पाकिस्तान में रह रहीं अमेरिकी महिला सिंथिया डेविड रिचि ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के कई नेताओं पर यह आरोप लगाकर सनसनी फैला दी है कि इन नेताओं ने उनके साथ कथित तौर पर यौन दुर्व्यवहार किया. इलेक्ट्रोनिक से लेकर सोशल मीडिया तक सबके दर्शकों का ध्यान रिचि ने अपनी ओर खींच लिया है हालांकि किसी को यह मालूम नहीं है कि वह है कौन.

कड़े नियंत्रण में रहने वाले यहां के मीडिया में किसी अमेरिकी महिला और उसके साथ हुए कथित यौन दुर्व्यवहार के ब्योरे इस तरह प्रसारित किए जा रहे हैं कि वे हैरान करते हैं, खासकर इसलिए कि वे उन एंकरों द्वारा प्रसारित किए जा रहे हैं जिन्हें हुक्मरानों के करीब माना जाता है. रिचि की कुछ कहानियों के सच होने को लेकर कुछ संदेह तो है मगर उसका मामला सामंती सोच वाले मर्दों के द्वारा किसी महिला के साथ दुर्व्यवहार का नहीं है बल्कि किसी खास पार्टी को बदनाम करने के लिए जानबूझकर कुछ चुनिंदा खुलासे करने का लगता है. और, यह कोरोना संकट से निबटने में इमरान खान की सरकार की नाकामी से ध्यान भटकाने की कोशिश जैसी भी लगती है.

वैसे, सिंथिया रिचि का यह आरोप अविश्वसनीय भी नहीं लगता कि पीपीपी के तीन नेता— रहमान मलिक, मखदूम शहाबुद्दीन, और पूर्व प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गिलानी— उनके साथ बलात्कार और बदतमीजी के मामले में शामिल थे. लेकिन कुछ संदेह भी हैं. कथित बलात्कार के बावजूद, रिचि ने ‘व्लौग’ किया कि पाकिस्तान ‘बहुत सुरक्षित’ जगह है. रिचि की एक मेजबान ने (जो टेक्सास में वालमार्ट कंपनी में काम करती थी और बाद में पाकिस्तान आ गई थीं) ने उनके और उनके जीवन के बारे में जो कुछ बताया है उससे यही साफ होता है कि रिचि उन लोगों जैसी हैं जो खूब पैसे बनाने की फिराक में रहते हैं. दरअसल, टीवी पर एक इंटरव्यू में उन्होंने यहां तक कहा कि रहमान मलिक ने कथित बलात्कार के बाद 2000 पाउंड दिए (उनका कहना था कि उन्होंने वह नकदी झपटकर नहीं ली थी, बस रख ली थी). इसका मतलब यह हुआ कि वह सब आपसी सहमति से भले न हुआ हो मगर उन्होंने इसका फायदा उठाया, करीब नौ साल इसे अपने तक गुप्त रखा और जब उनकी मर्जी हुई या जब उन्हें खुलासा करने को उकसाया गया तब पर्दाफाश कर दिया.


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कौन हैं सिंथिया?

यह शायद ही किसी को पता है कि सिंथिया रिचि के बिजनेस वीसा को किसने स्पोंसर किया, न ही यह किसी को पता है कि वे 2010 से पाकिस्तान में क्या कर रही हैं, कैसे रह रही हैं. लेकिन इसमें शायद ही कोई शक है कि आज एक खास वक़्त में उन्हें अपनी कहानी का खुलासा करने और पीपीपी के नेताओं को निशाना बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया.

वास्तव में उन्होंने बेनज़ीर भुट्टो की बेटी बख्तावर भुट्टो ज़रदारी को बदनाम करने का प्रोपगंडा जनवरी में ही शुरू कर दिया था और पूर्व प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसा ही अश्लील आरोप मई में लगाया. इसके बाद पीपीपी की मीडिया विंग और उनके बीच तूतू-मैं-मैं में काफी कीचड़ उछाला गया. अपनी मजहबी पहचान की जी-जान लगाकर रक्षा करने वाले मुल्क में उन्हें टीवी पर बिना किसी रोकटोक के इस तरह की गंदगी उछालने दी गई, तो जाहिर है कि इस सबकी मंजूरी दी गई होगी.
सिंथिया रिचि का दावा है कि वे 10 साल पहले पाकिस्तान आ गई थीं, लेकिन उनको मशहूरियत डीजी आइएसपीआर मेजर जनरल आसिफ गफ़ूर के दौर में हासिल हुई. तभी वे सोशल मीडिया पर न केवल पाकिस्तान की अच्छी छवि पेश करने बल्कि विरोध की आवाज़ों को चुनौती देने के कारण चर्चित होने लगीं. मैंने उन्हें तभी ब्लॉक कर दिया था जब उन्हें उन लोगों से संवाद बनाते पाया जिन्हें आइएसपीआर के ट्रोलों के तौर पर देखा जा सकता है. रिचि डीजी आइएसपीआर के काम करने के तौरतरीके और उनकी समझदारी के खांचे में फिट बैठती थीं, जिन्होंने अकादमिक स्कौलरशिप को पोर्नोग्राफ़ी के बराबर बताया था.

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रिचि के साथ आइएसपीआर की सोशल मीडिया टीम का जुड़ाव स्वाभाविक ही था. यह संगठन पाकिस्तान की सकारात्मक तस्वीर पेश करना चाहता था और हुक्मरानों के नजरिए को विदेश में प्रचारित करना चाहता था. रिचि शायद एक नये प्रयोग के तौर पर थीं, क्योंकि पहले इस तरह के काम के लिए पाकिस्तानी महिला का उपयोग किया जाता था, जो अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में पेपर आदि प्रस्तुत करती थी या विदेशी राजनयिकों और पत्रकारों की ‘हनी ट्रैपिंग’ किया करती थी.

नयी बोतल, पुरानी शराब

2009-10 के दौरान पाकिस्तानी प्रचार की जरूरत काफी महसूस की जाने लगी. पत्रकार से राजनयिक बनीं मलीहा लोदी ने ‘पाकिस्तान : बियोंड अ क्राइसिस स्टेट’ नामक किताब लिख डाली, जिसमें पाकिस्तान की बेहतर छवि पेश करने की जरूरत का जिक्र किया. ऐसा लगता है, मेजर जनरल गफ़ूर ने इस सलाह पर तेजी से और गंभीरता से अमल करने का फैसला कर लिया है. दिसंबर 2016 में, जब उन्होंने आइएसपीआर की कमान संभाली तब यह साबित करने की एक बड़ी चुनौती सामने थी कि पाकिस्तान को दुनिया में अलगथलग नहीं किया गया है. भारत ने अपने इस पुराने दुश्मन को दुनिया की बिरादरी में हाशिये पर डालने की मुहिम छेड़ दी थी, जिसमें नरेंद्र मोदी की सरकार नाकाम रही.

आइएसपीआर के लिए रिचि पाकिस्तानी फौज की पब्लिसिटी विंग की पुरानी रणनीति का नया चेहरा बनी. 1970 के दशक से आइएसपीआर और आइएसआइ श्वेत विदेशी शिक्षाविदों को फुसलाते रहे हैं और उन्हें पाकिस्तान और उसकी फौज के बारे में अच्छी-अच्छी बातें लिखने को प्रोत्साहित करते रहे हैं. पाकिस्तानी फौज प्रायः पाकिस्तानी मूल के विशेषज्ञों पर आंकड़ों के मामले में भरोसा नहीं करती, और इसी वजह से मुल्क के लिए अहम मामलों पर शोध में पाकिस्तान पिछड़ा हुआ है. इसी नजरिए की वजह से कई मसलों पर गंभीर अनुसंधान की काफी कमी है. मसलन, भारत की विदेश नीति पर जितनी सामग्री मिलेगी उसके मुक़ाबले पाकिस्तान की विदेश नीति पर आपको कम एकेडमिक सामग्री ही मिलेगी. पुराने अभिलेखों को तो छोड़िए, रिटायर्ड राजनयिकों की सूची भी हासिल करना नामुमकिन है.

पाकिस्तान के लोगों की जगह विदेशियों, खासकर श्वेतों पर भरोसा करने की रणनीति दो-तीन बार धोखा खाने के बावजूद जारी रही है. कुल मिलकर तरीका यही रहा है कि शिक्षाविदों, पत्रकारों, मीडिया वालों और सिंथिया जैसे नगण्य लोगों से खुल कर बात करो, उन्हें सूचनाएं दो, पैसे और सुविधाएं दो जिससे मुल्क में और बाहर भी उम्मीद के मुताबिक नतीजे मिलें.
वैसे, रिचि का काम शायद विपक्ष की आवाज़ को बेअसर करना और उसे पढ़े-लिखे मध्यवर्ग में फैलने से रोकना था. पहले, जब अंग्रेजी अखबार, पत्रिकाएं या लेख बेमानी थे, उसके विपरीत आज आइएसपीआर दूसरे मतों का सभी भाषाओं में प्रतिवाद करने में जुटा रहता है.

फौज को यह पसंद नहीं

फौज की तरह रिचि भी पश्तुन तहफुज मूवमेंट (पीटीएम) और पीपीपी से नफरत करती हैं और उसके खिलाफ साल भर से जहर उगलती रही हैं. फौज तो देश-विदेश में हर मंच पर पीटीएम की निंदा करती ही रही है, लेकिन पीपीपी को उसने नया निशाना बनाया है.

पाकिस्तानी फौज पीपीपी से 1970 के दशक से ही नफरत करती रही है, मगर इससे सुरक्षा तंत्र को कोई खतरा नहीं है, इन दो तथ्यों के बावजूद उसके खिलाफ गुस्से की ताज़ा वजह यह लगती है कि पीपीपी ने 1973 के संविधान में 18वें संशोधन को 2010 में मंजूरी दिए जाने का समर्थन किया. इस संशोधन के तहत संघीय सूबों को वित्तीय स्वायत्तता दी गई है और केंद्र सरकार का हिस्सा घटता गया, जिसके चलते फौज सीधे प्रभावित हो रही है, खासकर कोरोना महामारी के बाद से.

जनरल क़मर जावेद बाजवा ने 2019 में 18वें संशोधन की आलोचना की और इसे शेख मुजीब के छह सूत्री फार्मूले के बराबर माना जिसके कारण, आर्मी जीएचक्यू के मुताबिक, पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए. पीपीपी ने ही यह संशोधन लाया था इसलिए वह इसे रद्द करने का समर्थन नहीं कर सकती. पार्टी अपनी अंदरूनी कमजोरी के बावजूद समझौते करने की गलती नहीं कर सकती क्योंकि इससे सिंध सूबे में उसका आधार कमजोर होगा.


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इधर हम, उधर तुम

हाल में, हताश होकर फौज राष्ट्रीय संसाधनों के बंटवारे के फार्मूले को बदलने के लिए नेशनल फाइनांस कमीशन (एनएफसी) अवार्ड की शर्तों में बदलाव करने की सोच रही है. इसी प्रक्रिया के तहत केंद्र सरकार और चार सूबों के बीच फंड का बंटवारा होता है. इमरान खान सरकार ने 10वें एनएफसी अवार्ड की शर्तों में एक विवादास्पद शर्त जोड़ने का प्रस्ताव दिया है. इसके तहत सूबों की सरकारों से आज़ाद जम्मू-कश्मीर (एजेके) और गिलफिट-बल्तिस्तान (जीबी) के खर्चे उठाने को कहा जाएगा. इसका मतलब यह होगा कि एजेके/ जीबी को भी एनएफसी में एक सीट देनी होगी.

इस कदम के पीछे इरादा यह है कि केंद्र सरकार के लिए कुछ वित्तीय राहत मिले, लेकिन इसके दूरगामी सियासी नतीजे होंगे. एजेके/ जीबी को भी एनएफसी में एक सीट देने का सैद्धांतिक अर्थ यह होगा कि जिस इलाके को अब तक पाकिस्तान से आज़ाद माना जाता रहा है उसे मान्यता दी जा रही है. हाल में पीपीपी के बिलावल भुट्टो ने प्रेस कन्फरेंस में इस बात की ओर ध्यान खींचा कि इसका मतलब यह होगा कि पाकिस्तान कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द करने के भारत के फैसले को मंजूर करता है, कि इसका मतलब होगा “इधर हम, उधर तुम”.

जिन जानकारों से मैंने बात की उनका विचार यह था कि एनएफसी पर विचार-विमर्श में कई महीनों की देर हो चुकी है और यह कि अब फौज की नहीं चल पाएगी. लेकिन इसका अर्थ यह भी होगा कि संसाधन की भूखी फौज, जो अपने खर्चों का हिसाब देने से परहेज करती रही है, अब और परेशानी में पड़ेगी और तब वह और ज्यादा शोर मचाने के लिए रिचि जैसों का और ज्यादा इस्तेमाल करेगी.

(लेखिका यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के एसओएएस केंद्र में रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने ‘मिलिट्री इंक: इनसाइड पाकिस्तांस मिलिट्री इकोनॉमी’ नामक पुस्तक लिखी है. उनका ट्विटर हैंडल @iamthedrifter है. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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