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Saturday, 21 December, 2024
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इमरान खान का मोदी को समर्थन बताता है कि कैसे अपने बुने जाल में फंसी भाजपा

मोदी-भाजपा जब कि पाकिस्तान का डर दिखाकर दोबारा सत्ता में आने की उम्मीद कर रही है, इमरान खान ने खेल बदल डाला है और वे भारतीय जनमत में विभाजन पैदा कर रहे हैं.

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यह उन दिनों की बात है जिन दिनों मैं पाकिस्तान को कवर करने के लिए अक्सर वहां के दौरे किया करता था. जब मैंने एक बार और वीज़ा के लिए अर्जी दी थी तब नई दिल्ली में पाकिस्तान के एक मशहूर उच्चायुक्त ने कुछ मज़ाक में और कुछ परेशान से होते हुए मुझसे सवाल किया था. आप मेरे मुल्क के मामलात में इतनी दिलचस्पी भला क्यों रखते हैं?
मैंने उन्हें अपने पत्रकारीय लहजे में जवाब दिया था. इसलिए जनाब, कि पाकिस्तान की सियासत हिंदुस्तान का अंदरूनी मामला है.

हमने शायद ही कभी सोचा होगा कि अब खेल इस तरह बदल जाएगा और उलटे भारत की राजनीति पाकिस्तान का अंदरूनी मामला बन जाएगी. पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म इमरान खान ने पिछले सप्ताह जो बयान दिया उसका यही मतलब निकलता है. इमरान ने बयान दिया है कि नरेंद्र मोदी और भाजपा की सरकार फिर बनी तो यह पाकिस्तान के लिए अच्छा होगा और इससे कश्मीर मसले के निबटारे के भी बेहतर हालात बन सकते हैं.

याद नहीं आता कि इससे पहले कभी पाकिस्तान के किसी गद्दीनशीन नेता ने भारत के चुनाव के नतीजे को लेकर अपनी इतनी स्पष्ट उम्मीद जाहिर की हो. उनके नागरिक तो भारत में वोट नहीं देते. और भारतीय मतदाता उनकी बात सुनने वाले नहीं हैं. इसलिए हम उन पर आरोप नहीं लगा सकते कि वे यहां के किसी उम्मीदवार की पैरवी कर रहे हैं. न ही भारत का चुनाव आयोग उन्हें कोई नोटिस भेज सकता है. उसकी आचार संहिता वहां नहीं लागू होती, बल्कि जहां उसे वास्तव में लागू होना चाहिए वहां लागू करना ही उसके लिए मुसीबत बन रही है. फिर भी, हमारे विदेश मंत्रालय की ओर से निंदा का बयान तो दूर कोई टिप्पणी तक न करना काबिलेगौर है. यह चुप्पी हमें क्या कहती है?


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हो सकता है कि मौजूदा हालात में, जब कि पूरा ‘सिस्टम’ एक सुप्रीम लीडर के इशारे पर चलती है (यह मेरा नहीं, भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा का कहना है), तब कोई भी शख्स उस बात की निंदा करने का खतरा मोल नहीं ले सकता जिसे उस लीडर की पैरवी के तौर पर देखा जा रहा हो, चाहे यह पैरवी कोई भी कर रहा हो. लेकिन कोई इसका स्वागत करने की भी या शुक्रिया कहने की भी हिम्मत नहीं कर सकता. क्यों? क्योंकि वह शख्स यह कह रहा है कि नरेंद्र मोदी फिर से चुनाव जीते तो यह पाकिस्तान के लिए अच्छा होगा, चूंकि यह भारत के साथ स्थायी शांति के लिए मुफीद होगा.

यह तो इस चुनाव अभियान में इस सरकार के प्रमुख मुद्दों का उलट है. महीनों की मेहनत के बाद तो यह सरकार बहस को अर्थव्यवस्था, रोजगार, और विकास जैसे मुद्दों से पाकिस्तान, आतंकवाद, मुसलमान की ओर मोड़ पाई है. यह तो पाकिस्तान को आरपार की लड़ाई में, चाहे वह कैसा भी रूप ले ले और चाहे वह कितनी भी लंबी क्यों न हो, सबक सिखाने के वादे पर दोबारा सत्ता मांग रही है. यह पाकिस्तान के साथ अमन के लिए वोट नहीं मांग रही है. इस लिहाज से इसे लग सकता है कि इमरान के नरम शब्द इसे एक जाल में उलझाने की चाल है.

ऐसे में, यह निष्कर्ष बड़ी सहजता से निकाला जा सकता है कि हमारे राजनीतिक इतिहास में पाकिस्तान एक सत्ताधारी दल के चुनाव अभियान का केंद्रीय मंच बन गया है.

अब जरा तथ्यों पर गौर करिए और देखिए कि कौन है, जो खुद चलकर इस जाल में आ फंसा है, और किसने यह जाल बिछाया. यह भाजपा ही है जिसने एक रणनीतिक मसले को चुनावी मुद्दा बनाया, जबकि अब तक किसी ने ऐसा नहीं किया था. इससे मिलता-जुलता एक ही उदाहरण मुझे मिल सका है, वह भी बहुत हल्के ढंग से, जब 1980 में इंदिरा गांधी ने अपने चुनाव अभियान में दावा किया था मोरारजी देसाई की जनता सरकार इतनी कमजोर है कि ‘छोटे देशों ने भी आंखें दिखानी शुरू कर दी हैं’.

भारतीय राजनीति को लेकर पाकिस्तान की तरफ से एक गौरतलब बयान नब्बे के दशक में बेनज़ीर भुट्टो का आया था, हालांकि वह चुनाव के समय में नहीं दिया गया था. वह बयान कश्मीर में उथलपुथल पर पी.वी. नरसिंहराव की ठंडी प्रतिक्रिया को लेकर ‘खीज’ जाहिर करने का था. बेनज़ीर ने कहा था कि उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि ‘अब भारत में किससे बात करूं’ क्योंकि अब वो बात नहीं है जो ‘गांधी परिवार जैसे एक वर्ग के सत्ता में होते हुए थी’.

इस पर राव काफी नाराज हुए थे और उन्होंने हम जैसे कुछ संपादकों के साथ बातचीत में कहा था कि वे उनकी इस अकड़ के लिए ‘उनका बुरा हाल कर देंगे’. राव ने कश्मीर में उस शुरुआती बगावत को ही नहीं, पंजाब के सबसे बुरे आतंकवाद को भी कुचल डाला था, लेकिन 1996 के चुनाव अभियान में उन्होंने इसका कोई जिक्र तक नहीं किया था. उनमें इतना विवेक था कि घरेलू राजनीति में पाकिस्तान को तवज्जो देने से परहेज करें. उनमें यह समझने का रणनीतिक विवेक भी था कि इस तरह की सनक भरी राजनीति से पाकिस्तान को वह अहमियत मिल जाएगी, जो उसे कभी हासिल नहीं थी— भारतीय चुनावों को प्रभावित करने वाली अहमियत.


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मोदी-भाजपा की सरकार ने आज पाकिस्तान को यह अहमियत प्रदान कर दी है. यह फंदा उसने खुद ही तैयार किया है. अब ऐसा लग रहा है मानो भारतीय राजनीति पाकिस्तान का आंतरिक मामला बन गई है. इमरान जबकि हमारी घरेलू राजनीति में खुली दखल दे रहे हैं, इस सरकार को समझ में नहीं आ रहा कि इस पर क्या प्रतिक्रिया दे.

इससे बड़ी समस्या यह है कि बाकी दुनिया इस विरोधाभास को देख रही है कि भारत में सत्ताधारी दल पाकिस्तान को दुश्मन घोषित करते हुए एक कट्टर राष्ट्र्वादी चुनाव अभियान चला रहा है, और उधर पाकिस्तान उसी सरकार की जीत की ख़्वाहिश कर रहा है. अब आप इसे जो चाहे कह लें, ऐसा तो सिर्फ (चरपरा) दक्षिण एशिया में ही होता है. या इस पर आप ‘खोसला का घोसला’ फिल्म के लिए जयदीप साहनी के लिखे गाने की यह लाइन याद कर सकते हैं— ‘दुनिया ऊटपटांगा.’

है न काफी मज़ाकिया? लेकिन जरा सोच कर देखिए. भारत के लिए यह कोई मज़ाकिया बात नहीं है. हमारी राजनीति खुद ही एक बेहद बुरी दशा में उलझ गई है.

कौटिल्य से लेकर मेकियावली और हेनरी किसिंगर तक आप जिसकी भी नीति को मानें, ये सारे नीतिज्ञ इन तीन मुख्य बातों पर सहमत दिखते हैं—

.पहली बात यह कि खुद को कभी ऐसा मत बनाओ कि लोग तुम्हारे अगले कदम को पहले ही भांप लें;

. दूसरी बात, अपने विरोधी को कभी यह अहमियत मत लेने दो कि वह तुम्हारे यहां के जनमत में फूट डाल सके, हमेशा एकता बनाए रखो;

और तीसरी बात, हालांकि किसी ने साफ-साफ यह नहीं कहा है मगर हम यह तो निष्कर्ष निकाल ही सकते हैं कि जिस देश की आबादी तुम्हारी आबादी का महज 15 प्रतिशत है, जिसकी अर्थव्यवस्था तुम्हारी अर्थव्यवस्था की मात्र 11 प्रतिशत है और जिसका विदेशी मुद्रा कोश तुम्हारे इस कोश का महज 2.5 प्रतिशत है उसे इस काबिल तो मत बनने दो कि वह अगली सरकार बनाने के तुम्हारे फैसले को प्रभावित कर सके.


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अमेरिकी चुनाव को प्रभावित करने के मामले की मुलर जांच और जूलियन असांजे की गिरफ्तारी ने हमें एक नया संदर्भ प्रदान किया है. यहां एक कहीं छोटे, कहीं गरीब, तानाशाही, परमाणु अस्त्र से लैस, अपने पड़ोसियों के लिए सिरदर्द देश ने दुनिया की महाशक्ति माने जाने वाले देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था का फायदा उठाकर उसके चुनाव को प्रभावित करके अपनी पसंद का नतीजा हासिल करने की साजिश की.

उसके तीन मकसद थे— कई तरह के गंदे रहस्यों को ढके रखने वाली व्यवस्था के प्रति उदारवादियों के मन में नफरत पैदा करना; लोकतान्त्रिक संस्थाओं की साख को नष्ट करना; और स्थापित नेताओं का चरित्रहनन करना. असांजे और स्नोडेन, जो कभी उदारवाद के प्रतीक-पुरुष माने जाते थे, वे अमेरिकी राजनीति के साथ खिलवाड़ करने के कारण किस तरह नफरत के पात्र बन गए, इसके बारे में अमेरिकी उदारवादी मीडिया में जो कुछ छपा उसे भी पढ़ लीजिए.

यह जायज सवाल उठाया जा सकता है कि क्या हम मामले को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर तो नहीं देख रहे? क्या हम छोटे-से पाकिस्तान की तुलना विशाल रूस से कर सकते हैं? यहां आपको याद दिला दें कि रूस की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था की आधी से थोड़ी ही ज्यादा बड़ी है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की तो वह छोटे-से टुकड़े भर की बराबर है.

आपको बहुत बड़ा ज्ञानी होने की जरूरत नहीं है. बस आइएसआइ या इसके किसी डाइरेक्टरेट में बैठे एक औसत तीनतारा पाकिस्तानी फौजी जनरल वाले दिमाग से सोचिए, जिसका दिमाग आम तौर पर उसके सिर में नहीं बल्कि शरीर के किसी निचले हिस्से में होता है, तो आपको रास्ता दिखेगा. अगर इमरान जो खुल कर कह रहे हैं उसे उनका मुल्क भी चाहता है कि मोदी-भाजपा फिर सत्ता में आएं, तो उनके कुछ जनरलों को बस इतना करना चाहिए कि वे अपने कुछ ठिकानों को आग लगा दें, कश्मीर के कुछ हिस्सों में विस्फोट कर दें और फिर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के लिए तैयार हो जाएं. तब उन्हें भारत में किसी स्नोडेन या असांजे की तलाश करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

क्या पाकिस्तान ऐसा करेगा? मुझे नहीं मालूम, और मुझे उम्मीद है कि वह ऐसा नहीं करेगा. लेकिन हम अगर यह नहीं समझेंगे कि अपने यहां ध्रुवीकरण के लिए विरोधी मुल्क को एक वजह बनाने और अपने घरेलू मामलों में उसे दखल देने का मौका देने की जो गलती हमने की है वह एक रणनीतिक भूल है और इसकी अनदेखी करना एक भयावह सच्चाई ओर से आंख मूंदना होगा.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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