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Thursday, 25 April, 2024
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मोदी का मुक़ाबला है 20 मजबूत प्रादेशिक नेताओं से, और कहीं कोई लहर नहीं है

आज करीब 20 नेता अपने भौगोलिक क्षेत्र तथा राजनीतिक दायरे में इतने ताकतवर हैं कि मोदी समेत कोई भी राष्ट्रीय नेता उनके वोट बैंक में सेंध नहीं लगा नहीं सकता.

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भारत को देखने-समझने के दो तरीके हैं. वे क्या हैं यह आप तभी समझ पाएंगे जब आप दिल्ली से बाहर निकलेंगे. एक तरीका तो यह है कि देश को भीतर से बाहर की ओर देखिए, यानी दिल्ली और हृदय-क्षेत्र से बाकी देश पर नज़र डालिए; दूसरा तरीका यह है कि बाहर से हृदय-क्षेत्र पर नज़र डालिए.

जब आप पहला तरीका अपनाएंगे तो यह आपको पूरी तस्वीर को राष्ट्रीय दल व राष्ट्रीय नेता के संदर्भों में देखने को मजबूर करेगा. अगर आप दूरी का लाभ लेते हुए खुले दिमाग से काम लेंगे तो आपको इस नये भारत में बदलाव नज़र आ सकता है. जिन्हें हम राष्ट्रीय दल के रूप में जानते हैं वे पतन की राह पर हैं. महान अखिल भारतीय नेता का विचार इंदिरा गांधी के साथ ही खत्म हो गया. तो नरेंद्र मोदी का क्या? इस सवाल पर आगे विचार करेंगे.

भारत की विशाल राजनीतिक दीवार पर लिखी यह नयी इबारत पिछले सप्ताह किसी क्षेत्रीय नेता ने नहीं बल्कि हमारे सबसे ताकतवर दो प्रादेशिक क्षत्रपों ने हमें पढ़कर सुनाई. तेलंगाना के महारथी के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) और उनके पड़ोसी आंध्र प्रदेश के युवा नेता (वाइएसआरसीपी के) वाइ.एस. जगनमोहन रेड्डी ने अपनी-अपनी भाषा में एक ही बात कही- कि भारत में अब सचमुच में राष्ट्रीय दल नाम की कोई चीज़ नहीं रह गई है. जिन्हें आप राष्ट्रीय दल कहते हैं, भाजपा और कांग्रेस अब क्षेत्रीय दल भर हैं. बस इतना ही है कि उनकी मौजूदगी कुछ ज्यादा राज्यों में है.

कांग्रेस अगर एक राष्ट्रीय दल नहीं रह गई है, तो इसकी वजह समझ में आती है. लेकिन भाजपा को एक राष्ट्रीय दल क्यों नहीं कहा जा सकता? आखिर इसने 2014 में अपने बूते देश में बहुमत हासिल किया था! इस पर फैसला करने से पहले जरा दिल्ली से बाहर निकलकर देखिए.

दिल्ली में बैठे-बैठे हम हिन्दी पट्टी को ही राष्ट्र मानने की भूल कर बैठते हैं. उदाहरण के लिए, 2014 में भाजपा को 282 सीटों का जो बहुमत मिला था वह ज़्यादातर यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड (190) से मिला था. बाकी में से 49 सीटें दो पश्चिमी राज्यों, महाराष्ट्र और गुजरात से आईं. यानी उसने इन राज्यों की 299 में से 239 सीटों पर 80 प्रतिशत की स्ट्राइक रेट से कब्जा किया था. बाकी देश, जिसमें पूरे दक्षिण (कर्नाटक, केरल, आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु), पूरब (पूर्वोत्तर के राज्य, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा) और जम्मू-कश्मीर तथा पंजाब को भी शामिल कर लें तो इनकी 244 में से केवल 17 प्रतिशत यानी 43 सीटें ही भाजपा के खाते में आईं. भारत के नक्शे पर अगर इसे देखें तो साफ हो जाएगा कि इसे किसी राष्ट्रीय दल की छाप नहीं माना जा सकता. यह बस 10 राज्यों की पार्टी है, जो इनमें अधिकतम सीटें जीत कर बहुमत हासिल कर लेती है.

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और अखिल भारतीय नेताओं की स्थिति क्या है? केवल नरेंद्र मोदी ही आज इस हैसियत का दावा करते माने जाते हैं. हर कोई उन्हें जानता है. लेकिन क्या वे इन 10 राज्यों के अलावा दूसरे राज्यों में भी बहुमत में वोट हासिल कर सकते हैं? इन सबसे महत्वपूर्ण 10 राज्यों में भी उन्हें स्थानीय दलों और नेताओं से चुनौती मिल रही है. उत्तर प्रदेश में उन्हें मायावती और अखिलेश यादव से करो या मरो वाली लड़ाई लड़नी पड़ रही है.

बिहार में इन प्रादेशिक नेताओं की बराबरी के नेता हैं लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार. भाजपा और कांग्रेस ने इन दोनों में से एक-एक को अपना जूनियर पार्टनर बनाया है. पंजाब में भाजपा अकाली दल के साथ लगी हुई है, तो हरियाणा में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सहयोगी की तलाश में जुटी हैं. अपने तमाम वक्तृत्व कौशल के बावजूद मोदी आज अपने बूते सात राज्यों से ज्यादा में अपनी पार्टी को काल्पनिक तौर पर भी बहुमत में सीटें नहीं दिला सकते. काल्पनिक तौर पर भी इसलिए नहीं, क्योंकि इनमें उत्तर प्रदेश शामिल है.

अब जरा कांग्रेस का हाल देख लें. अगर भाजपा सात से लेकर नौ राज्यों वाली राष्ट्रीय पार्टी है, तो कांग्रेस केवल छह राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़, केरल, पंजाब, और कर्नाटक— वाली राष्ट्रीय पार्टी है, और इनमें से कई तो छोटे राज्य हैं. पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र, तेलंगाना, यूपी, बिहार से तो यह लुप्त ही हो चुकी है. इसलिए, चुनाव देवता बहुत प्रसन्न भी हुए तो यह अधिक से अधिक 150 सीटों का ही दावा कर सकती है. मुझे मालूम है कि इसकी संभावना नहीं है. सो, 100 का आंकड़ा ही आशावादी लक्ष्य होगा. यह हमारे इस दावे को सही साबित करने के सीमित मकसद को ही पूरा करता है कि भाजपा अगर पचास फीसदी राष्ट्रीय पार्टी है, तो कांग्रेस एक तिहाई भी राष्ट्रीय पार्टी नहीं है. क्या आपको और प्रमाण चाहिए? तो किसी एक ऐसे राज्य का नाम बताइए जहां राहुल गांधी सिर्फ अपने बल पर इस लोकसभा चुनाव में पार्टी को जिता सकते हों.


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हकीकत यह है कि इंदिरा गांधी अंतिम असली राष्ट्रीय नेता थीं, जो लगभग सभी राज्यों में चुनाव जीत सकती थीं. उनके जाने के बाद दिसंबर 1984 के असामान्य चुनाव को छोड़ दें तो न तो कोई अखिल भारतीय नेता उभरा और न कोई अखिल भारतीय पार्टी उभरी. उस जगह पर राज्यों और जातियों के करिश्माई, ताकतवर नेताओं ने कब्जा कर लिया. उनमें से किसी को क्षेत्रीय स्तर का नेता कहना भी छलावा होगा. वोटों के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं.

क्षेत्रीय/प्रादेशिक दलों के खाते में 1952 से 1977 के बीच करीब 4 प्रतिशत वोट ही आते रहे, जो 2002 से 2018 के बीच बढ़कर 34 प्रतिशत पर पहुंच गए हैं. इस बार यह आंकड़ा और ऊपर ही जाएगा. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि चूंकि इन दलों का बोलबाला एक क्षेत्र में सीमित है इसलिए इन्हें वोट प्रतिशत के लिहाज से जितनी सीटें मिलती हैं उससे कहीं ज्यादा इन्हें उछाल मिल जाता है. आज 34 प्रतिशत वोट के साथ ये दल लोकसभा की 34 प्रतिशत सीटों पर कब्जा कर लेती हैं. इसके बाद वोट में हरेक 1 प्रतिशत की बढ़त पर इन्हें अगर 11 सीटों का फायदा होगा, तो राष्ट्रीय दलों को सिर्फ 7 सीटों का फायदा होगा. ये आंकड़े मैंने खुद नहीं गढ़े हैं बल्कि प्रणय राय और दोराब सोपारिवाला की किताब ‘द वरडिक्ट’ से लिये हैं.

अविभाजित आंध्र में कांग्रेस को लगभग 40 प्रतिशत वोट मिलते रहते थे, अब नया राज्य बनने के बाद 3 फीसदी से भी कम वोट मिल रहे हैं. पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में जोरदार प्रदर्शन करने के भाजपा के दावे की हकीकत जल्दी ही सामने आ जाएगी. लेकिन असम और त्रिपुरा को छोड़कर उसने कोई नया किला नहीं फतह किया है, बावजूद इसके कि मोदी बहुमत में हैं और अमित शाह ने 10 करोड़ लोगों को भाजपा का सदस्य बना लिया है.

आज भारत में करीब 20 नेता अपने-अपने भौगोलिक क्षेत्र तथा राजनीतिक दायरे में इतने ताकतवर हैं कि मोदी समेत कोई भी राष्ट्रीय नेता उनके वोटों में सेंध नहीं लगा नहीं सकता. उनमें से अधिकतर प्रादेशिक नेताओं ने प्रशासनिक तथा राजनीतिक अनुभव हासिल कर लिया है और अपने-अपने क्षेत्र में अपना नेटवर्क भी तैयार कर लिया है. उनके सरोकार और विचार भले अलग हों, वे इस एक मुद्दे पर एकमत हैं- राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व खत्म करना है.

हमारे हिन्दीपट्टी-दिल्ली के कुएं से बाहर एक बड़ा, बहुसंख्य और प्रगतिशील दुनिया फैली है, जिसे इस चुनावी मौसम में वह डर नहीं सताता जिससे हमारा कुलीन तबका परेशान होता है कि मोदी अगर नहीं जीते तो देश किसी ‘खिचड़ी’ सरकार के हाथों में चला जाएगा. दक्षिण हो या पूरब, आप इन क्षेत्रों में रहते हुए कई दिनों तक किसी से यह सवाल नहीं सुन सकते कि ‘मोदी नहीं, तो कौन?’ कांग्रेस की गिरावट के तीन दशकों में भारत एक सच्चे संघीय गणतंत्र में विकसित होता गया है और राष्ट्रीय चुनाव की जगह ले ली है 30 राज्यों के चुनाव के योग ने. सो, कोई एक दल ऐसा नहीं है जिसका एक तिहाई राज्यों में वर्चस्व हो, और भाजपा तथा कांग्रेस तो आधे से भी कम राज्यों में उल्लेखनीय प्रभाव रखती है.

देश के हृदय-क्षेत्र की राजनीति में आखिर ‘टीना’ (कोई विकल्प नहीं) वाला तत्व क्यों हावी है? और यह इस क्षेत्र से बाहर के लोगों को क्यों नहीं प्रभावित करता? इसकी एक अहम वजह यह है कि जिन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस अपने-अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही हैं, उनमें से किसी में सच्चे अर्थों में कोई क्षेत्रीय नेता उभरकर सामने नहीं आया है. बिहार और यूपी में लालू, नीतीश, मायावती और अखिलेश ताकतवर नेता हैं लेकिन इनमें से हरेक की अपनी-अपनी सीमाएं हैं. भाजपा इन्हें इनकी जमीन पर ही चुनौती देती है या उसी में हिस्सेदारी करने को उन्हें मजबूर करती है. प्रमुख राज्यों में महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान, और कुछ हद तक कर्नाटक में राष्ट्रीय पार्टियां इसलिए हावी हैं क्योंकि उनके यहां अपने नेताओं की कमी है.


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दूसरी वजह बेशक यह है कि राष्ट्रीय दल अपने प्रादेशिक नेताओं को मजबूत होते देखना पसंद नहीं करते. कांग्रेस ने आंध्र में सामूहिक हाराकीरी कर ली, मगर अपने प्रांतीय क्षत्रप को उत्तराधिकारी के तौर पर मजबूत होकर उभरने नहीं दिया. वह इस क्षत्रप की महत्वाकांक्षा को लेकर इतनी नाराज हो गई कि इसने हेलिकॉप्टर हादसे में उसके पिता की मृत्यु के बाद उसे उचित सम्मान तक नहीं दिया. अब उसके पास सिर्फ एक ही ताकतवर प्रादेशिक नेता है, पंजाब के कैप्टन अमरिंदर सिंह. भाजपा में तो कोई नहीं है, या कहें आधा है, योगी आदित्यनाथ के रूप में. बाकी तीन— शिवराज चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह- को ‘डीप फ्रीजर’ में डाल दिया गया है.

सो, भारतीय राजनीति एक दिलचस्प मुकाम पर पहुंच गई है, जब सच्चे अर्थों में न अखिल भारतीय स्तर का कोई नेता है और न कोई पार्टी है, और गठबंधनों को लेकर असुरक्षा का भाव देश के हृदय-क्षेत्र से बाहर कमजोर पड़ रहा है. जैसा कि 2014 ने दिखा दिया था, कोई एक पार्टी अगर आपस में जुड़े राज्यों में 200 से ज्यादा सीटें जीत लेती है तो आप उम्मीद के विपरीत भी एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना सकते हैं.

2019 के चुनाव अभियान में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जिसे चुनावी हवा कहा जा सके जो आपको यह अंदाज़ा दे सके कि किसी के पक्ष में कोई लहर है. हम भरोसे के साथ यह कह सकते हैं कि यह चुनाव राज्य-दर-राज्य लड़ा जाएगा, 2014 से ज्यादा 2004 की तर्ज़ पर. अब यह मत पूछिए कि अगले गठबंधन का नेता कौन होगा, क्योंकि मुझे यह मालूम नहीं है. मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि सरकार जिसकी भी बने, यह एक ऐसा मंत्रिमंडल होगा जिसमें राम विलास पासवान भी अपना मुंह खोल सकते हैं.

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