1972 में बसंत की शुरुआत का समय था, जब बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बाद बचे-खुचे पाकिस्तान में शर्मिंदगी की भावना के कारण देशव्यापी स्तर पर ज़बर्दस्त आक्रोश भड़का हुआ था. तभी, एक दिन लाहौर की सिंगिंग एंड डांसिंग गर्ल्स एसोसिएशन विरोध जताने उतरी. वजह, यह थी कि कुछ हफ्तों से मीडिया यह कहते हुए सारा ठीकरा उन यौनकर्मियों पर फोड़ रहा था, कि उन्होंने ही सैन्य शासक जनरल आगा मुहम्मद याह्या खान की मति भ्रष्ट कर रखी है.
पैसों के बदले सैन्य पोस्टिंग तक के लिए दलाली करने वाली एक सेक्स वर्कर द प्रॉपर चैनल के बारे में तमाम भ्रामक कहानियां सुर्खियों में थी. विदेशी एजेंट फिरदौस, हीरों से लदी कौसर, कुख्यात जनरल रानी तक—और सब कुछ इस जंग में नाकामी के लिए जिम्मेदार था या फिर नहीं भी था, सिवाय इस बात के सैनिकों के हौसले पस्त हो गए थे.
यौनकर्मियों की वजह से चर्चित लाहौर की हीरा मंडी की एक मुंहफट नामी तवायफ इनायत बेगम का जवाब था, ‘ये सारी बातें सच्चाई से कोसों दूर हैं. अच्छी तरह पता लगाकर देख लो जनरल याह्या को बर्बादी करने में नाचने-गाने वाली लड़कियों या तथाकथित वेश्याओं की शायद ही कोई भूमिका होगी. इसके लिए असली दोषी तो अच्छे घरों की महिलाएं या आला दर्जा रखने वाली बेगमें हैं.’
पिछले हफ्ते ही, पत्रकार अहमद नूरानी की एक पड़ताल में सामने आया कि जल्द ही रिटायर होने जा रहे सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के परिवार ने उनके छह साल के कार्यकाल के दौरान 56 मिलियन डॉलर की संपत्ति जुटाई है, जिसका एक मुख्य हिस्सा शहरी भूमि है.
दुनिया में और कहीं, यही खुलासा एक अच्छे-खासे स्कैंडल की शक्ल अख्तियार कर लेता. हालांकि, लंबे समय में खुलेआम जारी इस पूरे स्कैंडल को अंजाम देने में अच्छे परिवार की बेगमों के पतियों का हाथ रहा है. पाकिस्तान भले ही धीरे-धीरे एक गहरे आर्थिक संकट में क्यों न घिर गया हो, करदाताओं की गाढ़ी कमाई की कीमत पर लाखों डॉलर की जमीनें सैन्य अधिकारियों को आवंटित किए जाने में कोई कमी नहीं आई है. कराची, लाहौर और इस्लामाबाद में जनरल बाजवा के परिवार की संपत्ति के लंबे-चौड़े रोस्टर को उनका अधिकार माना जाता है.
सीमेंट कारोबार, अच्छी नस्ल के घोड़े तैयार करने और दुग्ध उत्पादन से लेकर शैक्षणिक संस्थान चलाने तक सैन्य-स्वामित्व वाले तमाम समूहों के नेटवर्क के अलावा सेना सरपरस्ती की एक व्यापक व्यवस्था पर टिकी है. आजादी के बाद से देश के राजनीतिक दलों की तरह ही सेना भी भूस्वामियों और वाणिज्यिक संभ्रांतों के प्रभुत्व में एक हितधारक रही है.
भले ही 1971 की हार के लिए वेश्याओं और अय्याश-मिज़ाज जनरलों को निशाना बनाया जाना आसान रहा हो, वास्तविकता यही है कि सेना को लंबे समय से जारी संस्थागत भ्रष्टाचार ने खोखला किया है. यह सब तो इस जंग से बहुत पहले शुरू हो चुका था और अबाध रूप से जारी भी है. पाकिस्तानी जनरलों के लिए अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम का नंबर तो भूमि के प्रति प्रेम के बाद ही आता है.
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नई सामंती व्यवस्था
सेना की जमीनों और व्यावसायिक हितों पर बहुत कम आधिकारिक दस्तावेज मौजूद हैं. आधिकारिक तौर पर लिखी गई एक स्कॉलर द्वारा लिखी एक किताब और दिप्रिंट की स्तंभकार आयशा सिद्दीका द्वारा लिखा एक कॉलम है. बतौर अनुदान जिस पैमाने पर भूमि वितरित की जाती रही है, वो चौंकाने वाला है. 1958 में पाकिस्तान के पहले तख्तापलट के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा से सत्ता हथियाने वाले जनरल अयूब खान को 1969 में कार्यालय छोड़ते समय 247 एकड़ कृषि भूमि आवंटित की गई, साथ ही इस्लामाबाद में एक विशाल आवासीय घर भी मिला था. वहीं, 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में हारने वाले जनरल मुहम्मद मूसा और उमराव खान को भी इतना ही अनुदान हासिल हुआ था.
पूर्व सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ की तरफ से आधिकारिक तौर पर किए गए खुलासे से पता चलता है कि उन्हें आठ वाणिज्यिक और आवासीय संपत्तियों के साथ-साथ कृषि भूमि भी मिली थी. उनके बाद सेना प्रमुख का पद संभालने वाले जनरल परवेज अशफाक कयानी को कम से कम 90 एकड़ कृषि भूमि मिली थी.
19वीं सदी के अंत में 1857 के गदर के आगे पस्त पड़ी ब्रिटिश राजशाही ने सामाजिक स्तर पर वफादार स्थानीय सेना की नींव डालनी शुरू की. इस सोशल इंजीनियरिंग के लिए उसने जो तरीका अपनाया, वो था उस समय पंजाब में पानी की कमी झेलने वाले इलाकों में सिंचाई के लिए नई नहरों की व्यवस्था, जिसे ‘कैनाल कॉलोनीज’ कहा जाता था. शाही साम्राज्य भूमि अनुदान और सैन्य अनुबंधों के माध्यम से कबीले के सरदारों को संरक्षण प्रदान करता था. बदले में इन कुलीनों की जिम्मेदारी होती थी कि वह शाही शासन के आदेशों का पालन कराएं और सैनिक तैयार करें.
इतिहासकार ताहिर महमूद ने लिखा है कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बतौर सैनिक सेवाएं देने से इनकार कर देने वाले पूरे-पूरे गांवों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया गया, और महिलाओं को पति और बेटों से तब तक अलग रखा गया जब तक कि पुरुष लाइन पर नहीं आ गए. ब्रिटिश साम्राज्य को सेवाएं देने पर सहमत सैनिकों के लिए वेतन, पेंशन और भूमि की पेशकश की गई थी. 1912 में अधिगृहीत भूमि का 10 प्रतिशत हिस्सा सेना के लिए आरक्षित था.
अयूब के शासनकाल में यह व्यवस्था और भी मजबूत हो गई. जैसा कि सोशल साइंटिस्ट रेमंड मूर ने 1967 में लिखा था कि ‘सिंध में 300,000 एकड़ से अधिक भूमि और भारतीय सीमा से लगा एक खासा बड़ा रकबा इसी उद्देश्य के लिए उपलब्ध था.’ मेजर जनरल और उससे ऊपर रैंक के अफसरों के लिए 240 एकड़ जमीन आवंटित की जाती, जबकि ब्रिगेडियर और कर्नल 150 एकड़ के हकदार होते थे. लेफ्टिनेंट-कर्नल को 124 एकड़, मेजर और लेफ्टिनेंट को 100 एकड़ और जूनियर कमीशंड अधिकारियों को 64 एकड़ जमीन मिलती थी.
बहरहाल, यह सारी उदारता भी अयूब को अपनी सेना की वफादारी नहीं दिला पाई और वो उस समय भावी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में सरकार विरोधी आंदोलन के बीच दो-फाड़ हो गई. और याह्या के नेतृत्व में एक नए सैन्य जुंटा ने अयूब को पद से बेदखल कर दिया.
चरम पर रही अनैतिकता
पुरानी सामंती व्यवस्था की तरह ही संरक्षण प्रदान करने वाले नए प्रेटोरियन जमींदारों ने यौन संस्कृति को काफी बढ़ावा दिया. 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की भूमिका की जांच करने वाले हमुदुर रहमान आयोग की रिपोर्ट में वरिष्ठ सैन्य अफसरों की पत्नियों की अस्पष्ट यात्राओं के साक्ष्य शामिल हैं. विद्वान कैरल क्रिस्टीन फेयर की राय में, रिपोर्ट लंबे समय तक दबाए रखी गई क्योंकि इससे यह खुलासा हो सकता था कि याह्या खान को ‘पाकिस्तान की सशस्त्र सेना में हर अधिकारी को डराने-धमकाकर रखना पसंद था.’ यह किसी पराजित सेना के तौर पर जीने से कहीं ज्यादा अपमानजनक होता.
विद्वान हसन अब्बास ने दर्ज किया है कि पेशावर में अपने नए विला का निर्माण पूरा होने पर इसका जश्न मनाने के लिए याह्या ने एक शराब पार्टी का आयोजन किया, जहां नशे में चूर होकर सभी मेहमानों ने अपने कपड़े उतार दिए. इसके बाद तो याह्या निर्वस्त्र अवस्था में ही ऑस्ट्रिया में देश की राजदूत शमीम हुसैन को घर छोड़ने जाने पर आमादा हो गए थे, शमीम को वह प्यार से ब्लैक पर्ल बुलाया करते थे.
बाद में उनकी ऐसी ही रंगीन-मिजाजी के कारण एक बार कूटनीतिक स्तर पर अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई जब उन्होंने खुद को अपनी पसंदीदा वेश्या अलीम अख्तर—जो कि सेना के भीतर खासी ताकत रखने के कारण जनरल रानी के नाम से जानी जाती थी—के साथ एक कमरे में बंद कर लिया, जबकि ईरान के शाह उनसे मिलने का इंतजार कर रहे थे.
हालांकि, बोर्गियास से लेकर कैनेडी तक कई प्रभावशाली शासकों ने निंदात्मक यौन आचरण का प्रदर्शन किया लेकिन कोई भी इस स्तर तक नहीं गया. जनरल को सालों तक गोपनीय कूटनीति को अंजाम देने में महारत हासिल रही जो 1970 में चीन-अमेरिका के रिश्ते सुधारने में सहायक भी बनी. उनके सामने असली चुनौतियों की वजह उनके अपने पाप नहीं, बल्कि राजनीतिक थी. और ऐसा लगता है कि याह्या खान के पास उनसे पार पाने का एक व्यावहारिक रोड मैप भी था.
याह्या जिन सामाजिक तनावों की वजह से सत्ता में पहुंचे थे, उन्हें घटाने के लिए उन्होंने पाकिस्तान को पहले वास्तविक लोकतांत्रिक चुनावों का वादा किया. 1947 से 1958 के तख्तापलट तक इस तरह कोई चुनाव नहीं हुआ था, और अयूब ने सीमित मतदाताओं के साथ जो व्यवस्था लागू की थी उसे वह बुनियादी लोकतंत्र लागू किया जाना बताते थे.
पूर्वी पाकिस्तान के राजनेताओं ने उन चुनावों में पाकिस्तान पर शासन का अधिकार हासिल किया. जुल्फिकार अली भुट्टो ने सत्ता साझा करने का विरोध नहीं किया—और इस तरह पाकिस्तान एक गृहयुद्ध की राह आगे बढ़ गया.
1972 में अपनी नज़रबंदी के दौरान याह्या खान रावलपिंडी में एक विला में रहते थे जहां पर अब प्रसिद्ध बीकनहाउस स्कूल है. लेकिन उनके बड़े पैमाने पर जमीन-जायदाद जुटाने की कोई जानकारी नहीं मिलती है. पाकिस्तानी पत्रकारिता के ग्रैंड ओल्ड मैन अर्देशिर कोवासजी ने दर्ज किया है, ‘यहां तक कि याह्या का सबसे बड़ा दुश्मन भी उनके बारे में यह नहीं कह सकता था कि उसने अपने देश या यहां के लोगों को लूटा.’
सैन्य और असैन्य सहयोग से फलता-फूलता भ्रष्टाचार
लेखक लॉरेंस जिरिंग के शब्दों में, याह्या ‘एक ऐसे सत्तारूढ़ निगम के बोर्ड के अध्यक्ष थे, जिसके पास पहले से ही बड़ी संख्या में शेयरधारक थे.’ इनमें वे गुट शामिल थे जो खुद अपने आप में एक सैन्य संगठन थे, और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) जैसे राजनीतिक दल भी थे. इससे पहले, अयूब ने सिर्फ सेना के बजाय नौकरशाही सत्ता वाले संस्थानों के जरिये सत्ता सुख उठाने का रास्ता चुना था. लेकिन अफसोस, उनकी सत्ता बेरंग स्कैंडल में घिरी, जिसमें अन्य बातों के अलावा, जनरल के बेटे गौहर अयूब का एक औद्योगिक कुलीन वर्ग के तौर पर उभरना भी शामिल था.
1977 में भुट्टो को अपदस्थ करके सत्ता में आए जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक ने पाकिस्तान में पूरी सख्ती के साथ एक नया शुद्धतावाद लागू किया लेकिन गैर-सैन्य व्यवसायों में निवेश को आगे बढ़ाकर धनबल पर पाकिस्तानी सेना का नियंत्रण और बढ़ाया ही. इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसएस) और अन्य सैन्य संस्थान व्यापक स्तर पर जिहादियों को बढ़ावा देने के लिए मादक पदार्थों के कारोबार में शामिल हो गए.
सिद्दीका ने दर्ज किया है, 1965 से 2003 तक सेना ने अपने कर्मियों को 2,303,706.5 एकड़ सिंचित भूमि सौंपी. 2002 में, सरकार ने डिफेंस हाउसिंग अथॉरिटी (डीएचए) का गठन भी किया, जिसे अधिकारियों को सस्ती दरों पर आवास और वाणिज्यिक भूखंडों उपलब्ध कराने का जिम्मा सौंपा गया.
मेजर पद से ही सैन्य अधिकारी डीएचए भूखंड के पात्र हो जाते हैं, इस पर भारी सब्सिडी निजी पार्टियों को अधिगृहीत भूमि की बिक्री से मिलती है. कर्नल के तौर पर वे एक और भूखंड के हकदार होते हैं और ब्रिगेडियर पद तक पहुंचने पर उन्हें दो आवासीय और वाणिज्यिक भूखंड मिलते हैं. लेफ्टिनेंट-जनरल करीब एक अरब रुपये की सिंचित भूमि के हकदार होते हैं, जबकि कोर कमांडर के तौर पर सेवाएं देने वाले अधिकारियों को डीएचए भूखंडों के साथ प्रति वर्ष की सेवा के हिसाब से इसका आधा भूखंड और मिलता है.
ऐसा नहीं है कि भूमि जुटाने की यह पूरी व्यवस्था पाकिस्तानी राजनीति से परे है. जनरल तो सबसे बड़ी संगठित राजनीतिक ताकत के नेता भर ही हैं, जो यह सुनिश्चित करने के लिए अपने वर्चस्व का इस्तेमाल करते हैं कि उनके विशेषाधिकारों की रक्षा की जाएगी. पूर्व प्रधानमंत्रियों इमरान खान और नवाज शरीफ तमाम अन्य लोगों ने जनरलों की तरफ से तय की गई शर्तों के तहत निर्वाचित कार्यालय हासिल करने में मदद के बदले सैन्य प्रधानता को स्वीकार किया है.
जनरल बाजवा की निजी जागीर काफी दिलचस्प ढंग से उनके करीबी दोस्त और विश्वस्त सहयोगी साबिर ‘मिट्ठू’ हमीद से जुड़ी है. लाहौर के पुराने हिस्से में कभी छोटे-से स्टोर के मालिक रहे हमीद कथित तौर पर बाजवा के साथ अपने कनेक्शन का फायदा उठाते और पहले से ही यह जानकारी हासिल कर लेते कि डीएचए प्रोजेक्ट कहां बनने वाले हैं. आगे का किस्सा यह है कि हमीद बहला-फुसलाकर या डरा-धमकाकर किसी भी तरह से जमींदारों को यह जमीन खुद हासिल कर लेते. फिर, वह डीएचए आवासीय और वाणिज्यिक भूखंडों के हिस्से के बदले अपने लिए जमीन हासिल कर लेते. इस सारी साठगांठ का नतीजा दोनों के बच्चों की शादी में भी परिणत हुआ.
अर्थशास्त्री शाहिद आलम इसे ‘शहरी उच्च वर्गों का सामंतीकरण करार देते है जो तीन तरीकों से आगे बढ़ा है, वैवाहिक रिश्तों के जरिये संबंध मजबूत करके, मुआवज़े के साथ या उसके बिना कृषि भूमि का अधिग्रहण, और ग्रामीण अभिजात वर्गों का तेजी से शहरीकरण.
द प्रॉपर चैनल और जनरल रानी से लेकर आज तक, यही तीन तरीके सैन्य और नागरिक अभिजात वर्ग के बीच भ्रष्टाचार की कड़ी बने हुए हैं. पूर्व बार-डांसर फरहत शहजादी ने कथित तौर पर पूर्व पीएम इमरान खान और फर्स्ट लेडी बुशरा बीबी खान के साथ अपने संबंधों का इस्तेमाल इसी तरह की गतिविधियों में शामिल होने के लिए किया था.
इस सबके बीच, न्यायपालिका की तरफ से सैन्य भूमि अधिग्रहण पर लगाम कसने के कुछ प्रयास किए जा चुके हैं. 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने एक छोटे किसान से जब्त की गई तीन कनाल जमीन—जो कि 1993 में पंजाब सरकार की तरफ से सेना को दी गई 33,866 एकड़ जमीन का एक हिस्सा थी—को लौटाने का आदेश दिया. वहीं, पिछले साल, इस्लामाबाद हाई कोर्ट ने एक डीएचए प्रोजेक्ट के लिए दो विधवाओं की भूमि अधिग्रहीत करने पर रोक लगा दी थी. कराची में डीएचए की वाणिज्यिक गतिविधियों से नाखुश पाकिस्तान के पूर्व चीफ जस्टिस गुलजार अहमद ने तो यह कहते हुए सेना की खिंचाई की थी कि यह ‘अमेरिका तक पूरे समुद्र का अतिक्रमण करने और हर जगह अपना झंडा लगाने का इरादा रखती है.’
बहरहाल, पाकिस्तान के लिए ऐसा न करने का मतलब होगा, अपने सरपरस्त प्रेटोरियन गार्ड का कोपभाजन बनना, जो पश्चिमोत्तर सीमाओं पर जिहादियों के कारण उत्पन्न खतरों से मुकाबले में उसे काफी कमजोर कर सकता है.
(लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः अलमीना खातून)
(अनुवाद: रावी द्विवेदी )
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