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Saturday, 20 April, 2024
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भारत के साथ खूनी-संघर्ष, 50 वर्षों से चला आ रहा आत्म-विनाश कैसे रोकेंगे इमरान

पिछले पचास वर्षों में पाकिस्तान भारत के साथ रिश्तों में न केवल शर्मसार होता रहा है, बल्कि दुनिया भर में अपना समर्थन और अपनी आर्थिक हैसियत भी गंवाता गया है.

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आज के पाकिस्तान की बात करें तो उसके सामने दो चुनौतियां हैं. पहली तो यह कि आप इतिहास पर ज्यादा गौर करें या कि भूगोल पर या सियासत पर. और दूसरी चुनौती यह कि आप जो भी रास्ता चुनें, शुरुआत कहां से करेंगे? मैं इस स्तम्भ की शुरुआत, उदाहरण के लिए, 2019 से यानी आज से कर सकता था, जब कि हम सब विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान के स्वदेश लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं. मैं 2009, 1999, 1989 या 1979 से भी शुरू कर सकता था.

लेकिन मैं आपको 1969 में ले जा रहा हूं. चिंता मत कीजिए, आप जल्द ही शुक्रवार, 1 मार्च 2019 में भी लौटेंगे.

यह 1969 की ही बात है, तमाम मुस्लिम देश 1967 के छह दिनों के युद्ध में इज़रायल की जोरदार जीत के झटके से अभी उबरे नहीं थे और उन्होंने इस्लामी देशों का एक संगठन ‘ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कॉन्फ़रेंस (ओआइसी) बनाने का फैसला किया. इंदिरा गांधी इससे अलग कैसे रहतीं. उन्होंने अपने एक मंत्री (जो बाद में राष्ट्रपति बने) फख़रुद्दीन अहमद के नेतृत्व में वहां एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का फैसला किया.


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लेकिन नाराज पाकिस्तान ने इस पहल को विफल कर दिया. उसे उम्मा का समर्थन मिला. इस्लामी दुनिया ने इस तर्क को कबूल किया कि उस समय दुनिया में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले मुल्क पाकिस्तान के बिना कोई ओआइसी नहीं बन सकता. याद रहे कि उस समय पाकिस्तान का विभाजन नहीं हुआ था. भारत को अपमानित होकर किनारा करना पड़ा.

अब पचास साल की छलांग लगाकर, हमारे वादे के मुताबिक, 1 मार्च 2019 में आ जाइए और देखिए कि अपनी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ओआइसी के शिखर सम्मेलन में ‘सम्मानित मेहमान’ के रूप में किस तरह शिरकत कर रही हैं. उन्होंने शानदार तरीके से तैयार किया भाषण वहां दिया और इस तथ्य को रेखांकित किया कि भारत मुस्लिम आबादी के लिहाज से दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा देश है. उन्होंने कहा कि भारतीय मुसलमान उसकी बहुलता के अंग हैं और उनमें से 100 से भी कम ही लोग होंगे जो आइएसआइएस में शामिल हुए हैं.

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बेशक ऐसे तर्क भी दिए जा सकते हैं और आपत्तियां की जा सकती हैं कि उनकी पार्टी ने मुख्यधारा के भारतीय मुसलमान को किस तरह हाशिये पर डाल दिया है, ‘पराया’ बना दिया है, और कश्मीरियों की दानवी छवि बना दी है. लेकिन मेहरबानी करके इस बात की अहमियत को नज़रअंदाज़ मत कीजिए कि एक रूढ़िपंथी हिंदुत्ववादी भारतीय सरकार की एक आला महिला नेत्री दुनियाभर के मुसलमानों के सामने किस तरह की बात कर रही हैं. इससे भी ज्यादा आप इस चरम विरोधाभास पर गौर किए बिना नहीं रह सकते कि भारत को आमंत्रित किए जाने के विरोध में पाकिस्तान ओआइसी के इस शिखर सम्मेलन से अलग रहा.


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पचास साल पहले पाकिस्तान में इतनी ताकत थी कि वह प्रमुख इस्लामी मोर्चे में भारत की मौजूदगी पर वीटो लगा सकता था. आज वह सिर्फ खोखली चिढ़ और शर्मिंदगी के साथ उसका बायकाट ही कर सकता है. तमाम एटमी हथियारों और मिसाइलों से लैस, 20 करोड़ मुस्लिम आबादी वाले, और खुद को ‘इस्लाम का किला’ कहने वाले पाकिस्तान की यह दुर्दशा कैसे हो गई? जरा इस सवाल पर विचार कीजिए.

अब मैं आपको 40 साल पीछे, 1979 में ले जाऊंगा. 1971 में पाकिस्तान युद्ध हारा और दो टुकड़े हो गया. इसके बाद वह फिर से अपनी ताकत बनाने में लगा था कि सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया. इस युद्ध में अमेरिका तथा उसके साथी देश, सऊदी अरब और चीन भी कूद पड़े, और आज जिसे ‘अफ-पाक’ क्षेत्र कहा जाता है वह शीतयुद्ध का सबसे तनावग्रस्त अड्डा बन गया. पाकिस्तान उनका स्वैच्छिक, सक्षम तथा अपरिहार्य सहयोगी बन गया. यह पाकिस्तानी फौज को मजबूत बनाने का आसान और मुफ्त जरिया बन गया.

जाहिर है, इसने इसके नए तानाशाह ज़िया-उल-हक़ को भी ताकतवर बनाया और वे खुद को इस जिहाद का असली कमांडर समझने लगे. उनका दिमाग चढ़ गया. वे सोचने लगे कि अगर वे इस युद्ध का नेतृत्व कर सकते हैं तो भारत के खिलाफ भी जंग क्यों नहीं छेड़ सकते. यह एक तरह से पाकिस्तान का राष्ट्रीय अहंकार बन गया. याद कीजिए कि भारत के पंजाब में उग्रवाद की शुरुआत 1981 में हुई और इसके अगले साल ही वहां एके-47, और फिर आरपीजी-7 ग्रेनेड लाउंचर भी दिखने लगे. ये सब अफगानी जिहादियों के सामान्य हथियार थे.

यह सब जब अपने चरम पर पहुंच रहा था, तब 1985 की गर्मियों में मैं पहली बार पाकिस्तान गया था. उस समय इंडियन एयरलाइन्स के एक विमान का अपहरण करने वाले सिख आतंकवादियों पर मुकदमा चल रहा था और मैं वहां उसी स्टोरी को कवर करने गया था. वहां के आम लोगों की संपन्नता, जीवन स्तर, बुनियादी ढांचे और टेलीकॉम सेवाओं (जो कि इंटरनेट से पहले के दौर में पत्रकारों के लिए ऑक्सीज़न जैसी थी) के बेहतर स्तर को देखकर मैं चकित था. कहने का मतलब यह कि 1985 में पाकिस्तान का आम आदमी भारत के आम आदमी से कहीं बेहतर हालात में था. आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं. पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा भारत के इस आंकड़े से 60 प्रतिशत ज्यादा था.

आपसे माफी मांगते हुए मैं फिर छलांग लगाकर 2019 में आ रहा हूं. आज भारत के आम आदमी की औसत आय एक पाकिस्तानी की आय से 25 प्रतिशत ज्यादा है. शीतयुद्ध जीतने वालों को नया भौगोलिक-रणनीतिक महत्व देने वाला पाकिस्तान 60 प्रतिशत की बढ़त लेने के बावजूद आज इतना पीछे क्यों चला गया? यह अंतर सालाना पांच प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है. भारतीय अर्थव्यवस्था पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले तीन प्रतिशत-अंक से ज्यादा तेजी से बढ़ रही है, जबकि पाकिस्तान की आबादी भारत की आबादी के मुक़ाबले दोगुनी तेजी से बढ़ रही है. इसका नतीजा यह है कि दोनों देशों के प्रति व्यक्ति जीडीपी के आंकड़े में करीब पांच प्रतिशत का अंतर है.


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हम यहां तक कैसे पहुंचे? ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत से हज़ार साल तक जंग लड़ने की धमकी दी थी. 1969 के बाद के 50 सालों में पाकिस्तान ने अपनी हैसियत इस हद तक गिरा ली कि उम्मा तक उसकी जगह भारत को तरजीह दे रहा है. जिहाद छेड़ने के बाद के 40 वर्षों में पाकिस्तान ने अपनी अर्थव्यवस्था बर्बाद कर ली है. लेकिन, भारत के साथ स्थायी खूनी टकराव की बस इतनी ही कीमत उसने नहीं चुकाई है. इसमें आप और भी कई नुकसानों को जोड़ सकते हैं.

पराजित सोवियत संघ 1989 आते-आते अफगानिस्तान से कदम खींचने की जुगत करने लगा था. विजयी पाकिस्तानी सत्तातंत्र ने स्वाभाविक तौर पर पूरब की ओर रुख किया. और तभी जम्मू-कश्मीर में गड़बड़ियों का अंतहीन सिलसिला शुरू हुआ. खाकी वर्दी धारण करने वाले स्वयंभू ग़ाज़ी अब वह जिहाद जीतने चल पड़े थे, जो उनके लिए सबसे अहम था. इसके बाद के तीन साल सबसे ज्यादा रक्तरंजित रहे. कश्मीर और पंजाब में लाशों की गिनती हजारों के पार पहुंच गई.

लेकिन पाकिस्तान आंतरिक बदलावों में उलझा रहा. वहां जम्हूरी ताक़तें जब-तब अपनी वापसी दर्ज़ करती रहीं और ज़िया के वारिसों को राजनेताओं से मुक़ाबला करना पड़ा. फौज की पसंद माने जा रहे नवाज़ शरीफ़ ने अमन को तरजीह देने की कोशिश की. कश्मीर में बगावत शुरू करने के ठीक एक दशक बाद जनवरी 1999 में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर अमन का रास्ता पकड़ने का दुस्साहस किया. जवाब में उनकी फौज ने उसी जाड़े में करगिल में हमला बोल दिया.

पाकिस्तान न केवल जंग में हारा बल्कि दो अहम बातों को समझने में भी नाकाम रहा. एक तो यह कि दुनिया अब यह धारणा बदल चुकी है कि कश्मीर एक विवादित क्षेत्र है. नई विश्व धारणा यह है कि नियंत्रण रेखा ही वास्तविक सीमारेखा है और इसका सम्मान किया जाना चाहिए. दूसरी बात यह कि उसी साल परवेज़ मुशर्रफ ने शरीफ का तख़्ता पलट दिया, और पाकिस्तान ने बड़ी जद्दोजहद से हासिल लोकतन्त्र को गंवा दिया. इसलिए, उन दस वर्षों में पाकिस्तान ने कश्मीर पर अपना नैतिक दावा गंवा दिया और फिर से फौजी हुकूमत की गिरफ्त में चला गया. यह सब सिर्फ आत्मघाती जुनून के कारण हुआ.

तब से अब तक हमने लंबा रास्ता तय कर लिया है. 26/11 वाले पागलपन ने पाकिस्तान पर वैश्विक जिहाद के केंद्र का ठप्पा लगा दिया, जो कि उसकी अपनी ही करनी का फल है. जैसा कि करगिल और संसद पर हमले के बाद की तनातनी में हुआ था, भारत ने ज़िम्मेदारी का परिचय देते हुए जवाबी कार्रवाई न करके विश्वमत को अपने पक्ष में कर लिया था. आज भी सऊदी अरब और यूएई समेत पूरी दुनिया भारत के साथ है, हालांकि उसने जवाबी कार्रवाई की है.

अब हम हिसाब-किताब कर लें. 50 वर्षों में पाकिस्तान ने इस्लामी दुनिया में अपनी अहमियत गंवाई. अरब विश्व उसे संयम बरतने की सलाह दे रहा है, ईरान तेवर दिखा रहा है. पिछले 40 वर्षों में भारत की तुलना में उसकी प्रति व्यक्ति आय में 90 प्रतिशत की गिरावट आई है और अंतर बढ़ता ही जा रहा है. पिछले 30 वर्षों में भारत के पंजाब और कश्मीर में उसकी मुहिम नाकाम हो चुकी है, और जिहादियों को उसके शहरों और संगठनों में सीमित कर दिया है. और, पिछले दो दशकों में कश्मीर में नियंत्रण रेखा ही वास्तविक सीमारेखा बन गई है, आतंकवाद को नीति के तौर पर कबूल करने का धैर्य किसी में नहीं रह गया है, पाकिस्तान की ज़मीन पर भारत की बमबारी पर किसी ने नाम को भी आपत्ति नहीं की है, और सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि भारत और पूरी दुनिया ने उसकी एटमी धमकी की पोल खोल दी है.

इमरान चाहें तो पहले की तरह ही उसी रास्ते पर चलें, या नई पहल करते हुए एक नई पारी शुरू करें. यह जोखिम भरा तो होगा लेकिन अगर वे साहस दिखाते हैं तो कामयाब हो सकते है. उन्होंने यह साहस नहीं दिखाया तो दो बातें पक्की हैं— खुद उनकी विफलता और पाकिस्तान के ज़हीन आवाम के बावजूद उनके मुल्क का निरंतर पतन; उग्र राष्ट्रवाद, अपनी भौगोलिक स्थिति का फायदा, और भयावह फौज. यही अंतिम सत्य साबित हो सकता है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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