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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतबदला लेने से ज़्यादा ज़रूरी है दुश्मन के दिलो-दिमाग में खौफ़ पैदा करना

बदला लेने से ज़्यादा ज़रूरी है दुश्मन के दिलो-दिमाग में खौफ़ पैदा करना

सवाल यह है कि बदले के बाद क्या? क्या इससे हमेशा के लिए अमन और सुरक्षा पक्की हो जाएगी, या यह सिर्फ एक सुर्खी, एक आयोजन बनकर रह जाएगा?

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आतंकवादी हमले पर जब पाकिस्तान की अंगुलियों के निशान नज़र आते हों तब बदला लेने की आवाज़ें फौरन उठने लगती हैं. फिर, सार्वजनिक बहसों में दो दिन के भीतर ही समझदारी दबे पांव लौट आती है. और फिर अपरिहार्य तौर पर यह जुमला सामने आता है— बदले का मज़ा तभी है जब वह मामला ठंडा होने पर लिया जाए. इस जुमले को जन्म देने का श्रेय अफगानियों को दिया जाता है.

वैसे, जुमलों के जानकार बताते हैं कि इसका सबसे पहले, 18वीं सदी के शुरू में इस्तेमाल फ़्रांसीसियों ने किया था. बहरहाल, यह अफगानियों के मुंह पर ज़्यादा फिट बैठता है. इसकी वजह यह है कि प्रतिशोध उनकी जीवनशैली का ज़रूरी हिस्सा है, जो आम तौर पर कई पीढ़ियों तक चलता रहता है. तो, इसमें वे कितने माहिर हैं? यह जानने के लिए कबायलियों का इतिहास या रुडयार्ड किपलिंग को पढ़ने की जरूरत नहीं है. बस, रूसियों, अमेरिकियों और पाकिस्तानियों से पूछ लीजिए, आपको जवाब मिल जाएगा.

फिर भी, अफगानिस्तान का हाल देख लीजिए. इसने अतीत में कई फतह किए, भारत को लूटा, और दो महाशक्तियों को हार का मुंह देखने पर मजबूर किया. इस सबके बावजूद यह बेइंतहा बर्बाद, तबाह, मध्ययुगीन हालात में है, जिसे संभालना नामुमकिन–सा है. मानव इतिहास में यह शायद एक ऐसा देश है जो निरंतर शिकस्त ही झेलता रहा है. इसका सबक? बदला स्वाद में तो जायकेदार लगता है मगर यह खून की आपकी प्यास को क्षण भर के लिए शांत करने के सिवाय कुछ नहीं करता.

बदले पर उतारू मुल्क कुछ जीत लेने से ज़्यादा, खुद को प्रायः बर्बाद ही कर लेता है. छोटे बुश साहब ने सद्दाम हुसैन के हाथों अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए इराक पर हमला किया और मध्य-पूर्व को उधेड़ कर रख दिया. ओबामा ने ओसामा बिन लादेन को तब मरवा डाला जब वह महत्वहीन-बीमार-बूढ़-निष्कासित हो चुका था, लेकिन इससे नए इस्लामी आतंकवादी हतोत्साहित नहीं हुए.

पाकिस्तान ने 1971 का बदला लेने के लिए कई पीढ़ियों तक जंग लड़ने की तैयारी की मगर इस चक्कर में अपनी अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और अपने समाज को बर्बाद कर लिया. दूसरी ओर, जीत उसकी होती है जो प्रतिशोध की जगह ‘प्रतिकार’ को तरजीह देता है. हाल-फिलहाल के भारतीय रणनीतिक सोच की विडम्बना यह है कि इसका स्रोत हमारा दिमाग नहीं है बल्कि हमारे शरीर का वह अंग है जो अहंकार भड़काने वाला सबसे तीखा हारमोन पैदा करता है. प्रतिशोध महज एक आवेग है, और यह मूर्खों के लिए है. प्रतिकार समझदार लोगों के दिमाग में समय के साथ परिपक्व हुए सोच से पैदा होता है.

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उदाहरण के लिए, उरी में फिदायीन हमले के बाद की गई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को लीजिए. यह अपनेआप में एक लक्ष्य बन गया. उन्होंने हमारे 19 मारे, हमने उनके कहीं ज़्यादा मार डाले. खून का बदला खून!

बेशक वे फिर से पुलवामा में हमारे गले पर चढ़ आए. तो बदला लेने का शोर फिर उठ गया है. टीवी चैनेलों के स्टूडियो ‘वार रूम’ बन गए हैं और वहां बताया जा रहा है कि ‘स्ट्राइक’ कहां-कहां और किन-किन हथियारों से की जानी चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वादा कर रहे हैं कि ‘आपके आंसू की हरेक बूंद’ का हिसाब लिया जाएगा. टीकाकारों की जमात सहमत है कि कुछ-न-कुछ तो जरूर किया जाना चाहिए. जो कम कड़क हैं, वे भी कह रहे हैं कि प्रतिशोध अच्छी चीज़ है. लेकिन एकदम अभी नहीं, अपना समय लेकर लिया जाए; जैसा कि अफगानों का कहना है…

यहां सवाल यह उठता है— बदले के बाद क्या? क्या इससे हमेशा के लिए अमन और सुरक्षा पक्की हो जाएगी, या यह सिर्फ एक सुर्खी, एक आयोजन, और संभवतः बाद में एक फिल्म बनकर रह जाएगा? यह आपको एक चुनाव जितवा भी सकता है. लेकिन क्या यह आपके दुश्मन को बाज आने पर मजबूर कर सकता है?

इन दिनों कौटिल्य काफी फैशन में हैं, इसलिए उनके ही ज्ञान का सहारा लेकर इस तर्क को आगे बढ़ाएं.

हमें उनका ‘अर्थशास्त्र’ पढ़ने की ज़रूरत नहीं है. उनके बारे में प्रचलित एक लोक कथा ही काफी होगी. एक बार उनकी धोती कंटीली झाड़ी में फंसकर फट गई थी तो उन्होंने उस झाड़ी को साफ करने के लिए कुल्हाड़ी नहीं उठा ली थी. कुछ समय बाद वे मीठा दूध लेकर आए और उस झाड़ी की जड़ में डाल दिया. जिज्ञासु चन्द्रगुप्त ने जब उनसे इसका कारण जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि अगर मैंने इस काट डाला होता तो यह फिर उग आता, अब मीठे दूध के लालच में लाखों चींटियां आएंगी, इसकी जड़ को ही खा जाएंगी और समस्या को हमेशा के लिए खत्म कर देंगी. कुल्हाड़ी का प्रयोग तो प्रतिशोध होता. मीठा दूध प्रतिकार था. यह कोई ‘सेक्सी’ विकल्प तो नहीं था मगर क्रूर ज़रूर था. इस ‘ज्ञान’ को आप चाहें तो ‘कौटिल्यान’ कह लें.

इसी तरह, हम अपने रणनीतिक इतिहास पर नज़र डाल सकते हैं. 1962 में चीन ने भारत को सज़ा देने, बदला लेने या ज़मीन पर कब्ज़ा करने के लिए हमला नहीं किया था, उसका मकसद खौफ़ पैदा करना था. उसने भारत की ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ को खत्म कर दिया, तिब्बत में हमारी लापरवाहियों को लाल बत्ती दिखा दी, और भारत के रणनीतिकारों की कई पीढ़ियों को बचाव की मुद्रा में डाल दिया कि वे हमारी ज़मीन की रक्षा के लिए हमेशा अपने मन में वही 1962 वाली लड़ाई ही लड़ने लगे. यह मकसद पूरा हो गया, तब चीन ने पाकिस्तान को अपने काम का प्यादा बना लिया. पांच दशकों से वह एक बड़े देश भारत के खिलाफ एक छोटे मुल्क (पाकिस्तान) का कारगर इस्तेमाल करता आ रहा है. यह कम लागत पर ख़ौफ पैदा करने की एक ‘क्लासिक’ मिसाल है.

1971 में इंदिरा गांधी ने अपना ‘अर्थशास्त्र’ लागू किया. मार्च में जब पाकिस्तानियों ने पश्चिम से हमला बोला, तब जनमत की रौ में बहने से परहेज करते हुए श्रीमती गांधी ने पर्याप्त सैन्य तथा कूटनीतिक बढ़त लेने की तैयारी के लिए नौ महीने तक इंतज़ार किया. उन्होंने सेना को तैयार किया, अमेरिका और चीन की काट के लिए रूस से संधि की, और फिर पाकिस्तान की मनमानियों के खिलाफ माहौल बनाने के लिए दुनियभर के दौरे किए. उन्होंने पाकिस्तान पर इतने धैर्य से शिकंजा कसा कि याहया खान का दम घुटने लगा, और अंततः दिसंबर में युद्ध शुरू हो गया.

लेकिन क्या इससे पाकिस्तान आगे और दुस्साहस करने से बाज़ आया? जल्दी ही उस युद्ध के 50 साल हो जाएंगे. इसके बाद से पाकिस्तान ने कश्मीर को कब्ज़े में लेने के लिए अपनी फौज का इस्तेमाल करने के बारे में सपने में भी नहीं सोचा. दूसरी ओर, 1980 के दशक के उत्तरार्ध से उसने आतंकवाद, कुर्बान किए जाने योग्य भाड़े के तत्वों के जरिए छोटी-मोटी लड़ाइयों का सहारा लेना शुरू कर दिया. आप चाहें तो उन तत्वों से बदला ले लीजिए, पाकिस्तान को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आप उनकी फौज पर हमला करेंगे, वे जवाब देने की धमकी देंगे. इस सिलसिले में, हम और क्रुद्ध, प्रतिशोधी, और हताश होंगे. पाकिस्तान यह सोच कर अपना कुचक्र जारी रखेगा कि एक तो उसके पास परमाणु हथियार हैं; दूसरे, पारंपरिक सैन्य शक्ति में उसकी लगभग बराबरी की स्थिति भारत को ज़्यादा निर्णायक जवाब देने से रोकेगी.

इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता खोजने से पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि हम इसमें फंसें कैसे. मेरे हिसाब से इसकी तीन वजहें ये हैं—

1. पुराना ज्ञान कहता है कि जीतने वाले से ज़्यादा सीख मिलती है हारने वाले को. भारतीय नेताओं ने गलत धारणा बना ली थी कि 1971 ने पाकिस्तानी खतरे को हमेशा के लिए खत्म कर दिया है. इसके उलट, ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने यह मान लिया कि पाकिस्तान को अब पारंपरिक फौजी विकल्प को हमेशा के लिए भूल जाना होगा. लेकिन भारत यह न सोच बैठे, इसके लिए उन्होंने परमाणु विकल्प की ओर कदम बढ़ा दिया था. 1980 के दशक के शुरू में उनके उत्तराधिकारी ने परमाणु विकल्प को इतना मुफीद मान लिया कि अपनी कारस्तानी शुरू कर सकें.

2. 1998 के परमाणु परीक्षणों ने इस मामले में संतुलन तो स्थापित किया, लेकिन पाकिस्तान को दुस्साहसी बना दिया जबकि भारत यह मान बैठा कि परमाणु ताकत हासिल कर लेने के बाद पारंपरिक विकल्प की ज़रूरत खत्म हो गई. मैं तो यहां तक कहूंगा कि भारतीय रणनीतिक विचारकों की जमात ‘परमाणु-उन्मादी’ हो गई. वह यह भूल गई कि जनसंहार के अस्त्र पराजितों के अंतिम सहारे होते हैं. पाकिस्तानी ज़्यादा स्मार्ट निकले.

3. नतीजतन, भारत ने पारंपरिक सैन्य विकल्प में ज़्यादा बढ़त हासिल करने में दिलचस्पी लेनी छोड़ दी, हालांकि इसकी अर्थव्यवस्था लहलहा रही थी. भारत यह भूल गया कि पारंपरिक सैन्य विकल्प में ज़्यादा बढ़त उसे मारक ताकत प्रदान करेगी, पाकिस्तान को फौजी जवाब देने से रोकेगी, और उसे परमाण्विक आत्मघात पर विचार करने के लिए ललकारेगी. यह पाकिस्तान को हमारी बसों में धमाके करने से पहले सौ बार सोचने को विवश भी करेगी.

परमाणु ताकत से उपजे आलस के कारण भारत की जीडीपी के मुक़ाबले रक्षा बजट का प्रतिशत घटता गया. अंतिम बार राजीव गांधी के दौर में यह बजट जीडीपी के 4 प्रतिशत से ऊपर गया था. उसके बाद से यह अनुपात घटता ही गया. इसका परिणाम यह है कि आज अगर युद्ध छिड़ जाए तो हम मोर्चे पर ज़्यादातर उन्हीं साजो-सामान से लड़ेंगे, जो तीन से भी ज़्यादा दशक पहले राजीव के ऑर्डर पर खरीदे गए थे. अगर परमाणु हथियारों के कारण युद्ध टलता रहा है तो फिर ज़्यादा खर्च क्यों करें?

इस तरह की सोच ने उस मोदी सरकार को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर ऊंचे दावे करती रही है. इसने ‘ओरोप’ (एक रैंक, एक पेंशन), सातवें वेतन आयोग को लागू करने के वादे तो पूरे किए लेकिन जीडीपी के मुक़ाबले रक्षा बजट का प्रतिशत घटाती गई. इसलिए, आधुनिकीकरण के एवज में वेतन वृद्धि और पेंशन लागू होते रहे.

सो, आज हमारी यह स्थिति है. हम अपनी सुरक्षा करने में तो पूरी तरह सक्षम हैं, यहां-वहां कुछ रणनीतिक प्रतिशोध भी लेते रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान को बाज न आने से रोक नहीं पा रहे हैं. अब आगे क्या? हम पाकिस्तानी परमाणु हथियार से डरना बंद करें, अपनी सेना को ज़ोरदार तरीके से तैयार करें, डगमगाती अर्थव्यवस्था वाले प्रतिद्वंद्वी को चुनौती दें कि वह हमारा मुक़ाबला करे और इस तरह खुद को दरिद्र बना लें (चीन कुछ भी फोकट में नहीं देता), और एक नया ख़ौफ खड़ा करें— पुरानी किस्म की पारंपरिक सैन्य शक्ति के रूप में.

मेरे खयाल से यह कौटिल्य के मीठे दूध के समान होगा. बेशक यह धैर्य और समय की मांग करने वाला उबाऊ रास्ता है. लेकिन, कौटिल्य के लिए बेशक यह मजबूरी नहीं थी कि उन्हें चन्द्रगुप्त को अगला चुनाव जितवाना है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. या तो आप के मस्तिष्क पर कोई पूर्वाग्रह छाया है या फिर आप मोदी सरकार के निर्णयों को निम्न श्रेणि में आंकलन करने का प्रयास कर रहे है। इन्द्रा फ़िरोज़ खान गांधी जी ने दूसरे राष्ट्रों को 9 माह के समय मे साधा तदुपरांत पाकिस्तान को अनुरूप उत्तर दिया।
    आपके अनुसार नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने बिना परामर्श किये और चुनाव में विजय प्राप्त करने हेतु आक्रमण किया?

    फिर तो समस्त देशों को भारत का विरोध करना चाहिए था। परंतु विरोध मात्र पाकिस्तान, चीन और कांग्रेस ने ही किया।
    और यदि बांग्लादेश के बन जाने को आप पूर्ण समाधान (जो कि इंद्रा फिरोज खान गांधी जी के प्रतिकार का फल था ) मानते हैं तो क्यों बांग्लादेश निरंतर भारत के लिए सामरिक, भौगोलिक एवम धार्मिक चुनोतियाँ प्रस्तुत करता रहा?
    मेरा ऐसा मत है कि जो निर्णय मोदी सरकार ने किया वह उचित था और पूर्णतः दूरदर्शिता को दर्शाने वाले कदम साबित हुआ।

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