2025 के बिहार चुनाव में प्रवासन और प्रवासियों पर चर्चा एक मुख्य मुद्दा है. आरजेडी, कांग्रेस और प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी जैसे विपक्षी दल अपनी रैलियों, भाषणों और टीवी इंटरव्यू में बिहार से जारी प्रवासन की आलोचना को एक रणनीतिक नारे के रूप में उठा रहे हैं.
वे बिहारी प्रवासन को ‘मजबूरी का प्रवासन’ बताते हैं और इसे ‘पलायन’ यानी भागना या विस्थापन के रूप में पेश करते हैं. मीडिया भी इसी तरह के विमर्श को दोहराता है.
इन दलों की समझ पुरानी और सरल प्रवासी जीवन की धारणाओं पर आधारित है, जो 1970 और 1980 के दशक में उभरे संरचनावाद और नव-मार्क्सवाद के ‘विकास निराशावाद’ वाले तर्कों से प्रभावित है. इस दृष्टिकोण में कहा जाता है कि प्रवासन गरीबी और रोज़गार की कमी के कारण होता है. यह बात सही है, पर यह कहानी का केवल आधा हिस्सा है. यह नकारात्मक दृष्टिकोण प्रवासन को सिर्फ सामाजिक टूटन, श्रम हानि और असुरक्षा के रूप में देखता है.
1990 के बाद एक नई समझ उभरी, जिसने प्रवासन को आजीविका के साथ-साथ गतिशीलता और आकांक्षा से जोड़ा. बी. आर. अंबेडकर ने भी दलितों और हाशिए के समुदायों के लिए प्रवासन को सशक्तिकरण का कदम बताया था. यह प्रवासन निराशा तोड़ता है, नई उम्मीद पैदा करता है और बिहार जैसी समाज व्यवस्था की दमनकारी सामाजिक श्रेणियों को चुनौती देता है.
मैं पहले सोचता था कि सतही अकादमिक या कमजोर पत्रकारिक इनपुट से कोई राजनीतिक रणनीति बन सकती है, जो राजनीति को नुकसान पहुंचा दे. पर मैं यह तर्क इसलिए रख रहा हूं क्योंकि सामाजिक प्रक्रिया के सभी पहलुओं को न समझना और जनता की मनोवृत्ति को गलत पढ़ना गलत राजनीतिक रणनीति पैदा कर सकता है.
आरजेडी, कांग्रेस और जन सुराज जैसे दल मानते हैं कि प्रवासन से उत्पन्न दूरी की वजह से लोग भावनात्मक रूप से पीड़ित हैं और प्रवासन से श्रम की कमी और मानव पूंजी का नुकसान हो रहा है.
बिहार देश में सबसे बड़ा प्रवासी श्रम बल पैदा करता है. बिहार के 50 प्रतिशत से अधिक घर किसी न किसी रूप में प्रवासन से जुड़े हुए हैं. लगभग 93 लाख प्रवासी मजदूर निर्माण, घरेलू काम, अनौपचारिक क्षेत्र, उद्योग, खनन, सेवा, व्यापार और कृषि में मौसमी, चक्रीय और दीर्घकालिक रूप से बाहर जाते हैं, जबकि एक हिस्सा ऊंचे वेतन वाली नौकरियों में भी जाता है.
जैसा कि हम जानते हैं, प्रवासन के कई परस्पर विरोधी और जटिल अर्थ हैं. यह ग्रामीण बिहार के जीवन में दो बिल्कुल अलग प्रभाव पैदा करता है. एक तरफ यह बिछड़ने का दर्द, सामाजिक और पारिवारिक तनाव और परेशानियां पैदा करता है. दूसरी तरफ यह परिवारों के लिए एक अहम आजीविका रणनीति बनकर आर्थिक राहत देता है. प्रवासी परिवारों द्वारा मिलने वाले पैसे से इलाज, जीवनस्तर सुधार और सामाजिक व लैंगिक सशक्तिकरण होता है.
वे महिलाएं, जिन्हें आरजेडी, कांग्रेस और जन सुराज की चुनावी राजनीति में प्रवासन की पीड़ित के रूप में दिखाया जाता है, वास्तव में प्रवासन से सशक्त होती हैं. उनमें आत्मविश्वास आता है और आर्थिक क्षमता विकसित होती है.
इन दलों के लिए यह सोचना कि सिर्फ प्रवासन को धीमा करने का वादा करके चुनाव जीता जा सकता है, तब तक संभव नहीं है जब तक उनके पास कोई ठोस और भरोसेमंद विकल्प न हो, जो प्रवासन से मिलने वाले फायदों जैसा लाभ दे सके. इसलिए महिलाओं को पीड़ित के रूप में दिखाने की रणनीति उल्टा भी पड़ सकती है.
प्रवास में गरिमा
बिहार और उत्तर प्रदेश में प्रवासन की एक लंबी परंपरा रही है. डच इतिहासकार डिर्क एच. ए. कोल्फ की किताब नौकर, राजपूत और सिपोय: दि एथ्नोहिस्ट्री ऑफ दि लेबर मार्केट ऑफ हिंदुस्तान -1450-1850 (नौकर, राजपूत और सिपाही: हिंदुस्तान के श्रम बाजार का जातीय इतिहास) बताती है कि बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग औपनिवेशिक और पूर्व-औपनिवेशिक समय में सैन्य श्रम बाजार के लिए खुद को कैसे तैयार करते थे.
ये सिपाही और अन्य प्रवासी ‘नौकरीहा’ कहलाते थे. पुस्तक बताती है कि ग्रामीण बिहार में इन नौकरीहा को सम्मानजनक और गरिमापूर्ण माना जाता था. आज भी शहरों में काम करने वाले प्रवासी अपने गांव और मोहल्ले में इज्जत पाते हैं.
भोजपुरी नाटककार भिखारी ठाकुर का 1912 का प्रसिद्ध नाटक बिदेसिया उस पत्नी के दुख को दिखाता है, जिसे उसका पति प्रवासन के कारण छोड़ देता है. लेकिन अब यह भावना बदल गई है. आज की भोजपुरी कहानियों और गीतों में प्रवासी अधिक संपन्न दिखते हैं.
बिहार के गांवों में घूमते हुए मैंने एक दिलचस्प भोजपुरी गीत सुना. इसमें पत्नी शिकायत करती है कि उसका प्रवासी पति, जो गाजियाबाद से छुट्टी में आया है, अच्छे कपड़े पहनकर बाजार जा रहा है और बिना सोचे-समझे पैसे खर्च कर रहा है. (सैयाँ घूम घूम के पियर तरे ताड़ी रे, सैयाँ अनाड़ी निकले. जाए बाजारी, कीने महंगा तरकारी).
यह वही दर्शाता है जो मैंने बिहार में अपने फील्डवर्क के दौरान देखा. बड़ी संख्या में प्रवासियों और उनके परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बदल गई है. उनके पास पक्के घर, गाड़ियां, टीवी हैं. वे त्योहार और शादी-ब्याह धूमधाम से मनाते हैं. इससे उन्हें समाज में सम्मान मिलता है.
ऐसे माहौल में यदि कोई राजनीतिक अभियान लगातार प्रवासन की आलोचना करता है और उनकी कथित दुखभरी जिंदगी की बात करता है, तो यह उनकी पहचान और भावनाओं के खिलाफ जाता है.
प्रवासन का अध्ययन करने वाले जानते हैं कि चाहे प्रवासी काम की जगह पर कितना भी कष्ट झेलें, वे अपने गांव में यह दुख नहीं सुनना चाहते. वे अपनी सफलता की कहानियां और जीवनशैली दिखाना चाहते हैं. उनके परिवार—पत्नी और बच्चे—जो पति या पिता की गैरहाजिरी में मुश्किलें झेलते हैं, वे भी प्रवासी जीवन के बारे में अच्छी बातें सुनना चाहते हैं. वे संघर्ष से वाकिफ हैं, लेकिन उसे बेहतर भविष्य के लिए बलिदान मानते हैं.
ग्रामीण बिहार में प्रवासियों और उनके परिवारों से मेरी बातचीत में कांग्रेस और अन्य दलों के प्रवासन वाले नैरेटिव को स्वीकार नहीं किया गया. कई प्रवासी, जो वोट डालने आए थे, इन नैरेटिव से खुश नहीं थे.
ऐसी सामाजिक-मानसिक स्थिति में इन राजनीतिक दलों द्वारा दिए गए प्रवासन के राजनीतिक नैरेटिव या तो स्वीकार नहीं किए जाएंगे या उलटा असर करेंगे.
लेखक एक सोशल हिस्टोरियन और सोशल एंथ्रोपॉलोजिस्ट हैं. वे मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के वाइस चांसलर हैं. वे @poetbadri पर ट्वीट करते हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.
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