एक प्रमुख एवं जाने-माने सरकारी अधिकारी ने भारतीय शासन व्यवस्था के बारे में एक शानदार बात कही थी, कि यह तीन इंजनों से चलती है— पीएम, सीएम, और डीएम. यानी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और जिला मजिस्ट्रेट. इस सटीक टिप्पणी के लिए मैं उन्हें जितना श्रेय दूंगा, उससे ज्यादा अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहूंगा. और यही चाहूंगा कि आगे मैं जो तर्क पेश करने जा रहा हूं उसका दोष उनके सिर न मढ़ा जाए.
उनकी टिप्पणी कोरोनावायरस के इस दौर की खोज नहीं है, बल्कि एक स्थापित व्यवस्था को रेखांकित करती है. इस महामारी के दौरान सरकारों ने ‘एपिडेमिक डीजीजेज़ एक्ट’ और ‘डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट’ का सहारा लेकर जो विशेष शक्तियां हासिल कर ली हैं, वे इस टिप्पणी को और प्रासंगिक बना देती हैं.
अब हमें इस सवाल पर विचार और बहस करने की जरूरत है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर पैदा हुई इस आपात स्थिति में इस तीन स्तरीय तानाशाही ने भारत का कुछ भला किया भी है या नहीं ? या इसके उलटे नतीजे ही निकले हैं, इसके कारण कुछ अराजकता ही फैली है, खासकर असंगठित कामगारों के मामले में?
पीएम-सीएम-डीएम निजाम 1996-2014 के गठबंधन युग की समाप्ति के बाद 2014 की गर्मियों से मजबूत होता गया है. पिछले छह वर्षों में किसी मंत्री को ज्यादा कुछ बोलते हुए नहीं सुना गया है. संभवतः अमित शाह को छोड़कर बड़े-से-बड़ा मंत्री हो या सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी (सीसीएस) का सदस्य हो, कोई किसी गिनती में नहीं माना गया.
कैबिनेट सिस्टम बेअसर हो चुकी है. सामूहिक ज़िम्मेदारी, आंतरिक विचार-विमर्श, असहमति बेमानी बना दी गई है, उनका लोप हो चुका है.
नोटबंदी जैसा बड़ा फैसला मंत्रिमंडल से लगभग गुप्त रखकर किया जाता है. ऐसा नहीं है कि इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में असहमति की बहुत गुंजाइश रहती थी. लेकिन यह तथ्य भी पीएम-सीएम-डीएम निजाम वाले तर्क को मजबूत ही करता है. 18 साल तक गठबंधन सरकारों का जो दौर रहा उसने शायद हमें बिगाड़ दिया था.
लेकिन गठबंधनों के उस दौर में भी क्षेत्रीय स्तर पर तानाशाहियां उभरी थीं—तमिलनाडु में जयललिता की, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, आंध्र प्रदेश में वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी, उत्तर प्रदेश में मायावती, और बेशक गुजरात में नरेंद्र मोदी की. ये सब ताकतवर मुख्यमंत्री थे. इनमें और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री में सबसे प्रमुख समानता यह है कि इन सबके मंत्री बेमानी, कितने शक्तिहीन रहे. और, सत्ता का इस्तेमाल चंद पसंदीदा नौकरशाहों के जरिए किया जाता रहा है.
य़ह भी पढ़ें: हालात सामान्य हैं पर सबको लॉकडाउन करके रखा है, मोदी सरकार ने कैसे देश को अक्षम बनाने का जोखिम उठाया है
इस महामारी ने उस ‘एपिडेमिक डीजीजेज़ एक्ट’ को लागू करना जरूरी बना दिया, जिसे अंग्रेजों ने 1897 में फैली प्लेग महामारी के दौरान अपने सबसे बड़े उपनिवेश के लिए बनाया था. इसका मकसद केंद्र सरकार को इतने ताकतवर फरमान जारी करने के अधिकार देना था, जो मध्ययुग में कैथोलिक चर्च के पोप के फरमानों (जिन्हें ‘पापल बुल’ कहा जाता था) को हासिल थे. अब इस कानून को हाल के ‘आपदा प्रबंधन कानून’ (डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट) से और मजबूती प्रदान कर दी गई है. 2004 में आए सूनामी के बाद 2005 में इस कानून को बनाते समय यूपीए ने शायद इसके इस हश्र की कल्पना भी नहीं की होगी. इसलिए, यह पुरानी सीख आज भी प्रासंगिक बनी हुई है कि कोई बुरा कानून बनाने में पूरी सावधानी बरतिए और इसमें कोई हड़बड़ी मत कीजिए.
यह कानून बनाने वालों ने शायद यह सोचा होगा कि कोई आपदा आएगी तो यह एक, दो या कुछ ही राज्यों को प्रभावित करेगी, जैसा कि सूनामी ने किया था. लेकिन आज तो पूरे देश में महामारी फैली है, और केंद्र सरकार को सारे अधिकारों का केंद्रीकरण करने का कानूनी आधार मिल गया है. इस हद तक केंद्रीकरण करने का अधिकार कि प्रधानमंत्री वीडियो कॉंफ्रेंस पर मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक करते हैं, और हर किसी को हमेशा बोलने का मौका तक नहीं दिया जाता (पिछली बार ऐसा ही हुआ), बल्कि वे तो सरपंचों और मौके पर तैनात अधिकारियों से भी सीधे बात करते हैं.
कैबिनेट सेक्रेटरी राज्यों के मुख्य सचिवों की बैठक करें इसमें असंवैधानिक या अनैतिक कुछ भी नहीं है मगर यह एक सवाल तो खड़ा करता है— तो फिर लोकतान्त्रिक तरीके से निर्वाचित नेताओं का क्या होगा? खासकर तब जब रायता फैल जाए, जैसा कि भारी संख्या में मजदूरों की पैदल घर वापसी के मामले में हुआ. तब ऐसी स्थिति के लिए आप किसे दोषी ठहराएंगे? कौन इसे संभालने की ज़िम्मेदारी लेगा?
यहां एक विरोधाभास उभरता है. अगर दो कानूनों और संसद में बहुमत ने पीएम के हाथों में इतने सारे अधिकार सौंप दिए हैं, तो सीएम कहां हैं? और फिर, ‘तीन इंजन’ वाले आपके फॉर्मूले का क्या होगा?
भारत के राजनीतिक नक्शे पर नज़र दौड़ाइए. सर्वशक्तिमान केंद्र के नीचे कई मिनी तानाशाहियां भी पनपती हैं. यह एक सेकुलर प्रक्रिया है, जिसका किसी एक ही पार्टी से लेना-देना नहीं है. तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में क्षेत्रीय दल के सर्वशक्तिमान मुख्यमंत्री बैठे हैं जिन्होंने इन्हीं विशेष कानूनों के बूते खुद को और भी ताकतवर बना लिया है. पश्चिम बंगाल में अकेली ममता का शो जारी है.
ये सब अपने-अपने तरीके से केंद्र सरकार से सहयोग या असहयोग करते रहे हैं, भले ही केंद्र विशेष अधिकारों से लैस रहा हो. उदाहरण के लिए, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की झिड़कियों के बावजूद कोविड-19 की टेस्टिंग बेहद कम कर रहे हैं. दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार कोरोनावायरस से हुई मौतों की संख्या मानो मृतकों के अंगों की पूरी गिनती को 16 से भाग देकर निकालती है.हिसाब समझ में आया? इसके लिए ‘दप्रिंट’ की अनीशा बेदी की इस रिपोर्ट को देखिए, जिसमें उन्होंने पहली बार इसका खुलासा 15 मई को किया, जिसे अब दूसरे भी आगे बढ़ा रहे हैं. क्या कांग्रेस इस सबसे मुक्त है? इसके गिने-चुने ही मुख्यमंत्री हैं लेकिन पंजाब के अमरिंदर सिंह ने जितनी ताकत हासिल कर ली है उतनी मैंने लगभग 45 साल में उनके किसी पूर्ववर्ती की नहीं देखी.
केंद्र और राज्यों में सर्वशक्तिमान हुए लोगों के बीच जो एक नया राजनीतिक इकरारनामा जैसा हुआ है वह अपने आप में दिलचस्प है. ऐसे में कुछ भाजपाई मुख्यमंत्रियों के लिए अफसोस होता है, खासकर शिवराज सिंह चौहान और विजय रूपाणी के लिए, जिन्हें अपने मामूली अधिकारों के भरोसे छोड़ दिया गया है और जिनकी पीठ पर ‘बलि का बकरा’ लिख दिया गया है. लेकिन भाजपा में भी, योगी आदित्यनाथ और कुछ हद तक बी.एस. येदियुरप्पा अपने आप में शक्तिशाली हैं. नीतीश कुमार अपना अस्तव्यस्त गणतंत्र चला रहे हैं और आत्मतुष्ट हैं कि इस साल होने वाले चुनाव में तो वे जीत ही जाएंगे. और उधर ओडिशा में नवीन पटनायक हैं.
हमारा राजनीतिक दायरा इतना फैला हुआ है कि उसे एक कूची से रंगा नहीं जा सकता. ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र का मामला है. विधानसभा में महज 20 फीसदी सीटों के साथ पिता-पुत्र की तानाशाही इस संकट के सामने अनाड़ी जैसी दिख रही है. इस कड़े शब्द का प्रयोग इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि उन्हें देश के इस औद्योगिक/आर्थिक चक्के को चलाते रखने की जिम्मेवारी सौंपी गई थी मगर वे इस संकट में दिग्भ्रमित दिख रहे हैं. देश की वित्तीय राजधानी मुंबई इस महामारी का केंद्र बन गई है. वहां के कर्ताधर्ता न तो महामारी पर काबू पा रहे हैं, न अर्थव्यवस्था को फिर से खोल पा रहे हैं. और आप अगर यह सवाल करेंगे कि आपका मंत्रिमंडल कहां है? तो जवाब मिल सकता है कि कृपया पिता या पुत्र से बात कीजिए.
यह भी पढ़ें: कोरोनावायरस ने सर्वशक्तिमान केंद्र की वापसी की है और मोदी कमान को हाथ से छोड़ना नहीं चाहेंगे
यहां तक आने के बाद हम डीएम पर आते हैं. जिस तरह प्रधानमंत्री अधिकारियों के टास्कफोर्स के जरिए कोरोनावायरस के खिलाफ राष्ट्रीय जंग लड़ रहे हैं, उसी तरह मुख्यमंत्री अपने टास्कफोर्स के जरिए लड़ रहे हैं. केंद्र में यह व्यवस्था इस हद तक मजबूत हो गई है कि यह जरूरी नहीं माना जाता कि इससे जुड़े स्वास्थ्य, गृह, कृषि और श्रम जैसे अहम विभागों के मंत्री राष्ट्र से सीधे बात करें (और हम मीडिया में इस पर सवाल भी नहीं उठाते). सांसद हों या राज्यों के मंत्रिमंडल या विधायक, सब बेमानी हो गए हैं.
जमीनी स्तर पर इसके गंभीर नतीजे हुए हैं. जिन लोगों को जमीनी हकीकतों की सतही जानकारी है, वे आदेश लिख रहे हैं और जारी कर रहे हैं. यही वजह है कि आदेशों में संशोधनों और स्पष्टीकरणों की बाढ़ लगी रहती है. इस विशाल प्रशासनिक ढांचे में किसी ने यह अनुमान नहीं लगाया था कि महज चार घंटे की नोटिस पर सम्पूर्ण लॉकडाउन लगा देने से क्या समस्याएं पैदा हो सकती हैं और प्रवासी कामगारों के मन में क्या डर घर कर सकता है, तो साफ है कि वे दिल्ली के लुटिएन्स क्षेत्र में खड़े भवनों या ब्लॉकों में बैठे फैसले कर रहे थे.
यहां तक कि कामगारों का आयात करने वाले महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, पंजाब, दिल्ली जैसे राज्यों ने अथवा कामगारों का निर्यात करने वाले बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, झारखंड जैसे राज्यों ने भी इसका अनुमान नहीं लगाया. यह इसीलिए हुआ कि नेतृत्व अपनी सहज राजनीतिक बुद्धि को भूल गया या सब कुछ अपने डीएम जैसों के ऊपर छोड़ दिया.
लॉकडाउन का पहला चरण पूरा होने तक मामला हाथ से निकलता दिखा. और जहां भी ऐसा हुआ वहां देखिए कि किसे जिम्मेदार ठहराया गया. महाराष्ट्र और गुजरात में राजधानियों के नगर निगमों को संभाल रहे आइएएस अधिकारियों को हटा दिया गया, क्योंकि वे “बहुत ज्यादा” टेस्टिंग कर रहे थे. बिहार ने अपने स्वास्थ्य सचिव को, मध्य प्रदेश ने अपने स्वास्थ्य सचिव और स्वास्थ्य आयुक्त को बदल दिया. इस पूर्णतः संवैधानिक तथा वैध तीन स्तरीय तानाशाही के तहत इस महामारी का जिस तरह मुक़ाबला किया गया उसके नकारात्मक नतीजे दिखने लगे हैं.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
शेखर गुप्ता ने अपने लेखों से लगातार यह साबित किया है कि वो भारत की वर्तमान व्यवस्था को कांग्रेसी शासन से कमतर और बुरा प्रचारित करने के अभियान का एक हिस्सा है…द प्रिंट किन्ही वजहों से इस अभियान को आगे बढ़ाने में अग्रसर मीडिया समूहों में से एक है…ऐसा करते हुए ये लोग देश को विश्व भर में नीचा दिखाने से भी बाज नहीं आते..इन्हें तो बस मोदी सरकार की कोई भी अच्छाई पसंद नहीं करनी वरना इनका मिशन फ़ेल हो जाएगा… पर जैसे जैसे ये लोग अपना अभियान आगे बढ़ा राहे है वैसे वैसे देशवासियों के मन में इन लोगों के प्रति दुराव बढ़ रहा है और जनता का भाजपा सरकार के और भी मजबूरी के खड़े होने का संकल्प…