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Sunday, 24 November, 2024
होममत-विमतLAC पर, नई वास्तविकता का सामना करें या रेड लाइन्स की घोषणा करें और चीन को चिह्नित मैप दें

LAC पर, नई वास्तविकता का सामना करें या रेड लाइन्स की घोषणा करें और चीन को चिह्नित मैप दें

सरकार को सामरिक परमाणु हथियारों के उपयोग के लिए अपनी सीमा का संकेत देना चाहिए. इस सीमारेखा के नीचे, सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए सैन्य अंतर अप्रासंगिक है.

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तीन साल पहले, 1 मई 2020 को, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत कोविड-19 वॉरियर्स के साथ फ्रंटलाइन सैनिकों की एकजुटता दिखाने के लिए 3 मई को दो दिनों के बाद होने वाले सैन्य आयोजन की योजना को अंतिम रूप दे रहे थे. आयोजन वास्तव में एक बड़ी सफलता थी. उस दिन राजनीतिक और सेना को इस बात की भनक भी नहीं थी कि पीपल्स लिबरेशन आर्मी के पश्चिमी थिएटर कमांड के झिंजियांग सैन्य जिले के चौथे और छठे कंबाइंड आर्म्स डिवीजन 1959 की क्लेम लाइन की तरफ धीरे-धीरे बढ़ रहे थे.

पीएलए ने क्षेत्र अभ्यास के बहाने से अप्रैल के अंत तक सैनिकों को वहां इकट्ठा कर लिया था. रणनीतिक रूप से सबको चौंकाते हुए चीन ने आक्रामक रुख अपनाकर देपसांग प्लेन्स, गलवान घाटी, कुग्रांग नदी घाटी, पांगोंग त्सो के उत्तरी भाग और चार्डिंग-निंगलांग नाला में लगभग 1,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया. ऐसा करके चीन ने 1959 की क्लेम लाइन को फिर से हासिल कर लिया था, जिस पर उसने 1962 में सिंधु घाटी को छोड़कर सभी क्षेत्रों में कब्जा कर लिया था.

उच्च हिमालय में ब्रिंकमैनशिप

भारत ने आगे की घुसपैठ को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर सैनिकों की तैनाती करके इसका जवाब दिया और ब्रिंकमैनशिप के इस खेल मे जल्द ही PLA के साथ भारत का टकराव शुरू हो गया. इसकी वजह से 15-16 जून की रात को भीषण निशस्त्र संघर्ष हुआ, जिसमें (पीपी) गलवान घाटी में पेट्रोलिंग प्वाइंट (पीपी) 14 पर कार्रवाई में 20 भारतीय सैनिक मारे गए. तनाव को कम करने के लिए बातचीत शुरू हुई और दोनों पक्ष जुलाई 2020 में 3 किमी के बफर जोन के साथ – जो कि ज्यादातर एलएसी से हमारी तरफ था – पीछे हट गए.

कैलाश रेंज को सुरक्षित करने के लिए 29-30 अगस्त 2020 की रात को भारतीय सेना द्वारा पहल करके उठाए गए कदम ने दोनों पक्षों को वास्तविक युद्ध के कगार पर ला खड़ा कर दिया. हालांकि, हमारे इलाके में एलएसी पर हमारी सेना लाभ की स्थिति में थी.

तीन महीने की तनावपूर्ण अवधि के बाद, कोर कमांडर-स्तरीय सैन्य वार्ता फिर से शुरू हुई, जिसके कारण फरवरी 2021 में पैंगोंग त्सो के उत्तरी तट और कैलाश रेंज से बफर जोन के साथ पहली बड़ी वापसी हुई.

कई दौर की सैन्य वार्ता और छह महीने बाद, अगस्त में, पीपी 17 – 17ए  और 13 महीने बाद सितंबर 2022 में, पीपी 15-16 से दोनों कुगरंग नदी घाटी में डिसइंगेजमेंट हुआ. कोर कमांडर स्तर की 18वें दौर की वार्ता निकट भविष्य में होने की संभावना है. अभी तक चीन ने देपसांग के मैदानों और चारडिंग-निंगलुंग नाला में अपनी घुसपैठ पर बातचीत करने से इनकार किया है.


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तो अगर पूर्वी लद्दाख में स्थिति का वर्णन किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि भारत ने अपने क्षेत्र के 1,000 वर्ग किमी तक पहुंच खो दी है, जिसमें पीपी 14, पीपी 15-16 और पीपी 17-17ए और पैंगोंग त्सो के उत्तर और दक्षिण के बफर जोन शामिल हैं. दोनों पक्षों के सैनिक इतना पीछे हट गए हैं कि उनका सीधा आमना-सामना नहीं होता लेकिन अभी भी डी-एस्केलेशन नहीं हुआ है. दोनों पक्षों द्वारा अप्रैल 2020 से पहले की तैनाती की तुलना में सेना की संख्या दोगुना हो गई है और दोनों के पास ऑपरेशनल स्तर का अतिरिक्त रिज़र्व भी है जो तत्काल उपलब्ध हो सकती हैं और जब जरूरत हो वे तब हमला कर सकते हैं.

पूर्वी लद्दाख में अपनी सफलता के अहंकार से, चीन ने उत्तर पूर्व में मैकमोहन रेखा के साथ भी सलामी स्लाइसिंग भी शुरू कर दी है और मोटे तौर पर इसके अलावा, रेखा के मूल निर्धारण के कारण कुछ अलग-अलग धारणाओं वाले क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण साबित करने का प्रयास कर रही है. इसकी वजह से तैनाती और ब्रिंकमैनशिप बढ़ा है, इसका सबसे ताजा उदाहरण दिसंबर 2022 में तवांग सेक्टर में यांग्त्ज़े रिज पर एक विफल घुसपैठ का प्रयास है.

दोनों पक्षों के दृष्टिकोण में अंतर – चीन यथास्थिति बनाए रखने के लिए अपनी इच्छा थोपने के लिए प्रतिबद्ध है और भारत पहले की स्थिति को बहाल करने की मांग कर रहा है – की वजह से स्थिति सामान्य होने की काफी कम संभावना बचती है. वास्तव में, विरोधी रणनीतियां न्यू नॉर्मल से निपटने के लिए हैं.

चीन की रणनीति

चीन, भारत को अपने बराबर की शक्ति नहीं मानता है, जिसमें उसकी सुरक्षा या स्थिति को चुनौती देने की क्षमता का अभाव है. हालांकि, अमेरिका, जिसे चीन अपना प्रमुख प्रतियोगी मानता है, के साथ गठबंधन की वजह से भारत को एक क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगी माना जाता है. जबकि भारत-चीन के बीच प्रादेशिक विवाद बहुत पहले से चला आ रहा है, 1962 में हथियारों के बल पर यह चीन के पक्ष में चला गया. इसके बाद, चीन ने एलएसी को लेकर चले आ रहे विवाद का उपयोग किया और अपना आधिपत्य जताने के लिए पूरे अरुणाचल प्रदेश पर फिर से अपना दावा पेश किया.

जब तक भारत ने क्षेत्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन को चुनौती नहीं दी और सीमा पर यथास्थिति को भंग करने का प्रयास नहीं किया, तब तक शांति कायम रही. सुमदोरोंग चू टकराव (1986-87) को छोड़कर, जिसकी शुरूआत भारत ने की, 2014 तक, सरकार ने रणनीतिक संयम की नीति का पालन किया. 2008 की भारत-अमेरिका परमाणु संधि और दारबुख-श्योक-दौलत बेग ओल्डी रोड की वजह से टकराव की दिशा में पहला बदलाव किया जो कि 2013 में देपसांग के अस्थायी घुसपैठ में परिलक्षित हुआ.

2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद, पावर की तलाश में भारत ने अमेरिका के साथ गठबंधन किया, सीमा क्षेत्र में तेजी से इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास किया खासकर पूर्वी लद्दाख में अक्साई चिन की ओर, खोए हुए क्षेत्रों को वापस पाने के लिए आक्रामक बयानबाजी की, अपने सशस्त्र बलों के प्रस्तावित ट्रांसफॉर्मेशन और देपसांग के मैदानों, चुमार और भूटान के डोकलाम में चीन की धमकी भरी चालों से मुकाबला किया.

बीजिंग ने अपनी रणनीति की समीक्षा की और अनिश्चित सीमाओं का फायदा उठाने के लिए अनुकूल आर्थिक और सैन्य अंतर का उपयोग करने का फैसला किया और चीन के खिलाफ अमेरिका के साथ सहयोग करने से भारत को रोकने व अक्साई चिन और अन्य क्षेत्रों के लिए भविष्य के किसी भी खतरे को बेअसर करने के लिए संवेदनशील क्षेत्रों में भारत के बुनियादी ढांचे के विकास को रोककर अपने आधिपत्य को फिर से स्थापित करने का फैसला किया.

भारत का मजबूत डिफेंसिव तरीका, एक पारंपरिक युद्ध और परमाणु हथियारों के अनिश्चित परिणामों ने चीन को इससे होने वाले फायदे को कम किया है. हालांकि, चीन यह आर्थिक लागत भारत पर लादने के लिए इस रणनीति को आगे बढ़ाने का फैसला किया है और अभी भी उकसाने वाली घटनाओं के जरिए अपने व्यवहार को आकार देने का प्रयास कर रहा है.

भारत “रणनीतिक संयम” पर लौटता है

सीमाओं को लेकर एक शुरुआती आक्रामक नीति और एक समान होने के रूप में गहन राजनयिक चर्चा के बाद, अपनी विचारधारा के मुताबिक, दो शिखर सम्मेलनों सहित, मोदी सरकार ने डोकलाम और पूर्वी लद्दाख घुसपैठ के बाद राजनीतिक रूप से सामंजस्य बैठाने का काम किया. चीन के पास बहुत अधिक व्यापक राष्ट्रीय शक्ति है, और इसकी जीडीपी 5 गुना है, और इसका रक्षा बजट भारत से तीन गुना है. जब तक इस अंतर को पाटा नहीं जाएगा, भारत चीन को चुनौती देने की स्थिति में नहीं होगा. जबकि चीन का लक्ष्य 2049 तक प्रमुख विश्व शक्ति बनना है, भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद को 10-15 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ाने और 2047 तक अपने सशस्त्र बलों को इतना ताकतवर बनाना होगा कि चीन को उसी तरह से चुनौती दी जा सके जिस तरह से आज चीन अमेरिका को दे रहा है.


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उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए, मोदी ने “रणनीतिक संयम” की नीति पर वापस लौटने के लिए – 1,000 वर्ग किमी क्षेत्र में नियंत्रण खोने के नुकसान – कड़वा घूंट पीकर रह गए. चीन को सीधे, कूटनीतिक या सैन्य रूप से चुनौती दे पाना मुश्किल है. सीमाओं पर आधिपत्य के इसके दावे को चीन की आक्रामकता की स्थिति में शांत डिफेंसिव तरीके से इसका मुकाबला किया जा सकता है. आक्रामक जवाबी कार्रवाई और परमाणु अस्थिरता चीन की आक्रामकता के स्तर के आधार पर ही डिफेंसिव तरीके का समर्थन करेगी.

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बिल्कुल सही कहा था, “देखिए, वे (चीन) बड़ी अर्थव्यवस्था हैं. मैं क्या करने जा रहा हूं? एक छोटी अर्थव्यवस्था के रूप में, मैं बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ लड़ाई करने जा रहा हूं? यह प्रतिक्रियावादी होने का सवाल नहीं है, यह कॉमन सेंस का सवाल है….” इस रणनीति को योग्यता के आधार पर दोष देना मुश्किल है. हालांकि, मोदी की मजबूत छवि और भाजपा की निर्भर चुनावी संभावनाओं को सुरक्षित रखना होगा. नतीजतन, जनता को सही राय न बनाने देने और संसद में बहस से बचने के लिए अस्पष्टता, बयानबाजी और हो-हल्ला का सहारा लिया जा रहा है. इसमें सुधार की जरूरत है.

आगे का रास्ता

चीन के खिलाफ अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को औपचारिक रूप देने के लिए राष्ट्रीय सहमति के लिए प्रयास करना सत्ता में सरकार के लिए विवेकपूर्ण होगा. एक बार जब इसे संसद में और जनता को समझा दिया जाएगा, तो जवाबदेही से डरने की कोई आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि राजनीतिक बहस इस बात पर शिफ्ट हो जाएगी कि राष्ट्रीय विजन को कौन बेहतर ढंग से प्राप्त कर सकता है.

एक औपचारिक एनएसएस सशस्त्र बलों के ट्रांसफॉर्मेशन को दिशा देगा. यह चीन के साथ सीमा के प्रबंधन और शर्मिंदगी से बचने के लिए तत्काल और दीर्घकालिक सैन्य रणनीति को भी आकार देगा.

भारत को एलएसी और चीन को सौंपे गए चिह्नित मानचित्रों की हमारी धारणा के साथ सीमाओं पर अपनी रेड लाइन की एकतरफा घोषणा करनी चाहिए. चीन की तरफ से किसी भी तरह की आक्रामकता से बचने के लिए LAC को ITBP द्वारा भौतिक रूप से सुरक्षित किया जाना चाहिए.

इस रेखा के पार किसी भी आक्रामक व्यवहार को शत्रुतापूर्ण माना जाना चाहिए और उपयुक्त सैन्य कार्रवाई के जरिए इसका जवाब दिया जाना चाहिए. गैर-सैन्य “दंगा पुलिस” की कार्रवाइयां तुरंत बंद होनी चाहिए. सामरिक परमाणु हथियारों के उपयोग के लिए सरकार को सूक्ष्मता से अपनी सीमा का संकेत देना चाहिए. इस सीमारेख के नीचे, सैन्य अंतर सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए अप्रासंगिक है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति आवश्यक है.

विवादित सीमा के अलावा चीन के पास अपना वर्चस्व जताने के लिए कोई और ताकत नहीं है. जब तक इस अवसर से इनकार किया जाता है, चीन के पास कुछ करने का बहुत कम विकल्प है क्योंकि एकतरफा तनाव अनिश्चित परिणामों से भरा होता है.

(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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