दिल्ली विश्वविद्यालय में चल रही असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की स्थायी नियुक्ति प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर एडहॉक शिक्षकों के विस्थापन के साथ-साथ सामाजिक न्याय के साथ भी खिलवाड़ किया जा रहा है. कुछ दिनों पहले ही हिन्दू कॉलेज में 7 वर्षों से पढ़ा रहे एक ओबीसी शिक्षक समरवीर ने विस्थापन से उत्पन्न अवसाद के कारण आत्महत्या कर ली.
राष्ट्रीय समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को 28 अप्रैल 2023 के अपने अंक में प्रमुखता से छापा है. अखबार ने दावा करते हुए लिखा है कि अब तक विभिन्न विभागों में 15 वर्षों से भी अधिक समय से पढ़ा रहे शिक्षकों को विस्थापित किया जा चुका है. अखबार के मुताबिक अब तक 550 से ज्यादा एडहॉक शिक्षकों को हटाया जा चुका है. असल में स्थाई सेवा के लिए एक खास विचारधारा के कार्यकर्ताओं की नियुक्ति के कारण पहले से पढ़ा रहे काबिल शिक्षकों का वृहत स्तर पर विस्थापन किया जा रहा है. एक सोची समझी रणनीति के तहत वर्षों से पढ़ा रहे एडहॉक शिक्षकों को संस्थागत तरीके से अपमानित किया जा रहा है, जिसका परिणाम हिंदू कॉलेज में देखने को मिला.
नॉट फ़ाउंड सूटेबल (‘योग्य उम्मीदवार’ नहीं मिल सका)
वर्तमान में चल रही नियुक्ति प्रक्रिया में पहले राजनीति विज्ञान विभाग में चार ओबीसी सीटों में से दो सीट को नॉट फ़ाउंड सूटेबल कर दिया गया. उसके बाद यही नॉट फ़ाउंड सुटेबल तिकड़म हिंदी विभाग की स्थाई नियुक्ति प्रक्रिया में भी दुहराया गया. हालांकि, ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ किया गया यह धोखा कोई नया नहीं है. गत वर्ष यानी 2022 में शिक्षा मंत्रालय ने एक लिखित जवाब में देश के उच्च सदन राज्य सभा को बताया था कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 880 प्रोफ़ेसरों के पद सहित 3,669 आरक्षित श्रेणी के शिक्षण पद रिक्त हैं. इसमें 1761 पद ओबीसी के रिक्त हैं.
यूजीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश भर के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में मात्र 09 ओबीसी प्रोफ़ेसर पढ़ा रहे हैं जबकि स्वीकृत पद 304 हैं. यह रिपोर्ट कई नामचीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों जैसे कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU), दिल्ली विश्वविद्यालय (DU), बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की असलियत को दिखाता है, जिन्होंने 1 जनवरी 2020 तक OBC कोटे के तहत एक भी प्रोफेसर की नियुक्ति नहीं की थी. इस संदर्भ में एनसीबीसी के एक अधिकारी का कहना है कि विश्वविद्यालय ओबीसी आरक्षण को लागू करने से रोकने के लिए सब कुछ करते हैं, यह मामला कई वर्षों से अटका हुआ है, लेकिन कुछ भी नहीं किया जाता है. ऑनलाइन न्यूजपोर्टल दिप्रिंट ने शिक्षा मंत्रालय की पीआईबी इकाई और सचिव, उच्च शिक्षा को इस विषय पर टिप्पणी के लिए मेल किया, लेकिन इस विषय पर कोई जवाब नहीं दिया गया.
भारत सरकार द्वारा लम्बे समय से नियुक्ति प्रक्रिया को रोके रहने के कारण इतनी बड़ी संख्या में पद रिक्त हैं. लेकिन अब जब नियुक्ति प्रक्रिया आरम्भ हुई है तो संविधान द्वारा दिया गए अनिवार्य आरक्षण के साथ भी खिलवाड़ किया जा रहा है. एक संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली यूनिवर्सिटी में ओबीसी श्रेणी के मात्र 4.63 प्रतिशत शिक्षक हैं. इसी संसदीय समिति ने इस आंकड़े को 27 प्रतिशत आरक्षण की क़ानूनी प्रावधान के ख़िलाफ़ बताया था.
समिति ने देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय को सामाजिक न्याय को सुनिश्चित कर पाने में विफल करार दिया था. समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य पर नाखुशी व्यक्त की है कि विश्वविद्यालय ने “अपने संकायों के बीच ओबीसी का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए बहुत कम काम किया है. डीयू में 16 फैकल्टी और 80 से अधिक शैक्षणिक विभाग हैं, जिनमें इतनी ही संख्या में कॉलेज है. विश्वविद्यालय में 7 लाख से अधिक छात्र पढ़ते हैं. सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस संसदीय समिति की अध्यक्षता भाजपा सांसद गणेश सिंह कर रहे थे.
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दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों में भी ओबीसी आरक्षण के साथ छेड़छाड़ होती रहती है. उदाहरण के तौर पर दिल्ली ओबीसी आयोग ने शिक्षकों की नियुक्ति में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के निर्देशों का पालन नहीं करने के लिए स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज से जवाब मांगा था. इसके अलावा देश के अनेक संस्थान हैं जो आरक्षण नियमों का पालन नहीं करते. 2020 में राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग ने देश के सभी नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी को आरक्षण नीति लागू करने के लिए नोटिस जारी किया था.
सभी उप-कुलपतियों को खुद हाज़िर होकर बताने के लिए कहा गया था कि वो आरक्षण नीति का पालन क्यों नहीं कर रहे. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने देश में क़ानूनी शिक्षा से जुड़े इन प्रीमियर संस्थानों से आरक्षण रोस्टर, पिछड़ों की भर्ती के बैकलॉग की जानकारी के अलावा ये भी बताने को कहा है कि आरक्षण लागू करते समय क्या नीति अपनाई गई है. पिछड़ा वर्ग आयोग का कहना है कि ये संस्थान आरक्षण देने के मामले में पिछड़े वर्ग के अधिकारों की अनदेखी कर रहे हैं.
इसी तरह वर्ष 2021 में उत्तर प्रदेश के प्रयागराज स्थित गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान शोध संस्थान में हुई भर्तियों में अन्य पिछड़ा वर्ग की आरक्षित सीटों को नॉट फ़ाउंड सुटेबल यानी ‘योग्य उम्मीदवार’ नहीं मिल सका कह कर नियुक्ति नहीं की गयी. इस भर्ती प्रक्रिया पर नजर रखने वाले लोगों ने आरोप लगाया है कि संस्थान ने जान बूझकर पिछड़े वर्ग की सीटों को खाली छोड़ दिया है ताकि इस वर्ग के उम्मीदवारों का हक मारा जा सके. ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जाएंगे जहां ओबीसी की आरक्षित पदों को नॉट फ़ाउंड सुटेबल कर दिया गया.
नई शिक्षा नीति
नई शिक्षा नीति के तहत एक नए निकाय की स्थापना का प्रस्ताव है जो उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी के माध्यम से शैक्षिक निकायों को ऋण देगा. इसके अलावा संस्थानों को यह भी सलाह दी गयी है कि वो अपना कोश स्वतंत्र स्रोतों से जुटाएं. संस्थाओं के प्रशासनिक मामले के लिए बोर्ड ऑफ गवर्नर की नई सेटअप की सलाह दी गयी है. आमतौर पर व्यापारिक समूहों के प्रमुखों को बोर्ड ऑफ गवर्नर बनाया जाता है. संस्थाओं पर लोन को कम करने के लिए अपने बजट में कटौती का दबाव रहेगा. यानी शिक्षक अनुबंध पर रखे जाएंगे न की स्थायी तौर पर.
इस नीति का सबसे अधिक दुष्प्रभाव समाज के हाशिए पर पड़े समुदायों एससी, एसटी, अल्पसंख्यकों और ओबीसी को होगा. उच्च शिक्षा में सरकार की प्रतिबद्धता की कमी साफ़ दिखलाई पड़ती है, जिसमें कि छात्र-शिक्षक अनुपात को 15:1 से 30:1 तक दोगुना करने के प्रस्ताव को पारित किया है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, छोटे शिक्षण अधिगम समूह प्रदर्शन और श्रेष्ठता की मुख्य ताकत हैं, लेकिन नई शिक्षा नीति द्वारा इसकी गंभीर उपेक्षा देखी जा रही है. और तो और नई शिक्षा नीति, शैक्षिक योग्यता के किसी भी मानदंड पर विचार किए बिना प्रत्येक संस्थान में “क्षेत्र विशेषज्ञ” की सीधी भर्ती को प्रोत्साहित करने के अपने विचार के माध्यम से उच्च शिक्षा को गड़बड़ाना चाहता है.
एनईपी में शिक्षक के कार्यकाल को लेकर भी अनिश्चितता है. असामान्य रूप से लंबे समय तक की प्रोबेशन अवधि, शिक्षकों के उत्साह को पूरी तरह से ख़त्म कर देगी. “प्रोबेशन अवधि आम तौर पर पांच की साल होगी, जिसे मूल्यांकन के बाद घटाया या बढ़ाया जा सकता है. प्रोबेशन अवधि एक कठोर और व्यापक मूल्यांकन प्रक्रिया पर आधारित होगी. इसमें 360-डिग्री फीडबैक (पर्यवेक्षक, सहकर्मी और छात्र समीक्षा) शामिल हो सकते हैं. ऐसी स्थिति के कारण उच्च शिक्षा में रची-बसी आलोचनात्मक सोच और नवीन शिक्षण पद्धति निश्चित रूप से खंडित होगी.
एक तरफ तो भारतीय जनता पार्टी ओबीसी हितैषी होने का दावा करती है, वहीं दूसरी तरफ वो शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों के ख़िलाफ़ हो रहे अन्याय में भी संलिप्त है. संलिप्तता इसलिए क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय समेत सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपति की नियुक्ति केन्द्र सरकार करती है.
क्या ऐसा सम्भव है कि 2022 की संसदीय समिति की रिपोर्ट शिक्षा मंत्रालय के पास नहीं पहुंची होगी? क्या यह कहना उपयुक्त नहीं है कि सारे तथ्यों को जानते हुए भी वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा ओबीसी वर्ग के साथ धोखा किया जा रहा है! क्या हम केंद्र की सरकार से ये उम्मीद रख सकते हैं कि शिक्षक एक गरिमापूर्ण जीवन जी सके? उनको आत्महत्या करने पर मजबूर न होना पड़े. शिक्षकों के भविष्य को अंधेरे में रखकर क्या भारत विश्व गुरु बन सकेगा?
(आनंद प्रकाश दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के कार्यकारिणी सदस्य और राजधानी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन: ऋषभ राज)
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