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Sunday, 22 December, 2024
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अशोका यूनिवर्सिटी से प्रताप भानु मेहता के जाने पर कोई भी सही सवाल नहीं पूछ रहा

जहां तक प्रतापभानु मेहता के इस्तीफे का सवाल है, हमने एक कमजोर को अपना निशाना बनाना के लिए चुन लिया है लेकिन कोई भी कमरे में आ बैठे हाथी पर अंगुली नहीं उठा रहा.

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अशोका यूनिवर्सिटी से प्रताप भानु मेहता की विदाई पर आयी हमारी सामूहिक प्रतिक्रियाएं एक से ज्यादा वजहों से निराशाजनक हैं. एक छोटे से दायरे में नाराजगी के बुलबुले उभरे और अब इसकी जगह एक मौन स्वीकृति ने ले ली है. प्रोफेसर अरविन्द सुब्रमण्यन ने जो कदम उठाया वह वक्त की पहचान और अपने संदेश के लिहाज एक मिसाल माना जाएगा और इसकी वजह सिर्फ यही नहीं कि सुब्रमण्यन को सरकार-विरोधी नहीं बताया जा सकता. अशोका यूनिवर्सिटी के शिक्षकों और छात्रों ने गजब का साहस दिखाया, आप किसी निजी विश्वविद्यालय के शिक्षकों और छात्रों से इस दर्जे के साहस की उम्मीद नहीं करते अमूमन.

हां, मसले पर विदेश के कुछ विद्वानों की प्रतिक्रियाएं भी आयीं और चंद अखबारों में संपादकीय छपे. कुल मिलाकर इतना ही भर हुआ, जबकि अशोका यूनिवर्सिटी से प्रताप भानु मेहता की विदाई दरअसल भारत में लगातार तंग पड़ते जा रहे अकादमिक दायरे का निर्णायक पड़ाव था. तुलना कीजिए कि वकील प्रशांत भूषण की जबान बंद करने की जब कोशिश हुई तो इसके विरोध में कैसे देशभर में आवाजें उठी थीं और आपके आगे स्पष्ट हो जायेगा कि ईर्ष्या ने हमारी नैतिक भाव-तंतुओं को कुंद कर दिया है. नैतिक भाव-तंतुओं के कुंद होने का ही नतीजा है कि मामला एक प्रसिद्ध विद्वान, एक अग्रणी निजी विश्वविद्यालय और इस विश्वविद्यालय के धनी-मानी संरक्षकों से जुड़ा हो तब भी जन-मानस आंदोलित नहीं होता. मसले पर जो प्रतिक्रियाएं आयीं वो तो और भी ज्यादा निराशाजनक हैं. यह भी हमारे वक्त का एक लक्षण है कि हम सारे सवाल  पूछते हैं लेकिन जो सवाल सचमुच पूछा जाना चाहिए उसे नहीं पूछते. हमने अशोका यूनिवर्सिटी के न्यासियों और संस्थापकों के बारे में सही और सख्त सवाल पूछे लेकिन इस पूछने में हमने निशाना गलत जगह लगाया. हम सवाल पूछते हैं तो ये कि अशोका यूनिवर्सिटी, इसके छात्र और शिक्षक लकदकिया हैं, एलीट तबके के हैं और हमारा ध्यान इस बात पर जाता ही नहीं कि जो घटना हुई है उससे इस सवाल का कुछ लेना-देना नहीं है. मौके का इस्तेमाल कुछ लोगों ने प्रताप भानु मेहता की जन-बुद्धिजीवी की छवि पर व्यंग्य-वाण चलाने में किया. और, ऐसे करतब दिखाने में उलझे हम लोगों में इतनी ही ऊर्जा ही नहीं बची जो हम उन लोगों से सवाल करें जिन्होंने इस घटना की जमीन तैयार की, जिन लोगों ने यूनिवर्सिटी की बांह मरोड़ी, जो लोग असहमति में उठा कोई भी स्वर बर्दाश्त ही नहीं कर सकते. ये वे लोग हैं जिनका नाम आप नहीं ले सकते और वे हमेशा की तरह इस बार भी सवालों के घेरे में आने से बचे रहे.


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प्रताप की कलम का कमाल

आइए, शुरुआत इस सीधे से सवाल से करते हैं कि सरकार एक उच्चासनी राजनीति विज्ञानी से इस कदर सहमी हुई क्यों है? आखिर, प्रताप भानु मेहता लिखते तो अंग्रेजी में हैं, और मुझ जैसे उनके दोस्त इस बात को लेकर उनसे कुछ निराश भी रहते हैं! बड़ी मिन्नतें होती हैं कि टीवी की बहसों में आइए लेकिन प्रताप भानु टीवी की बहसों में नहीं जाते. और, वे अपने को किसी राजनीतिक दल, आंदोलन या ऐसी किसी भी जमीनी कार्रवाई से भी अलग-थलग रखते हैं. तो फिर, सरकार ऐसे राजनीति विज्ञानी को लेकर क्यों इस कदर चिन्ता में है? अगर प्रताप भानु सत्ताधारी विचारधारा की आलोचना में लिखते हैं तो ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इस आलोचना को सिर्फ उनके पांडित्य और विद्वता का ही सहारा हासिल हो. प्रताप भानु मेहता कलम के धनी हैं और उनके लेखन का फलक आश्चर्यजनक तौर पर बड़ा विशाल है. उसके दायरे में नैतिक दर्शन, न्यायशास्त्र, राजनीतिक संस्थाएं, विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा, राज्यार्थिकी आदि बहुत कुछ शामिल है. वे उन चंद भारतीय बुद्धिजीवियों में हैं जिन्होंने विदेश के सिरमौर माने जाने वाले विश्वविद्यालयों में अपने अध्ययन-अध्यापन के दौरान सिर्फ पांडित्य की जबान और हाव-भाव नहीं बल्कि इससे अलग बहुत कुछ सीखा है और अपने सांस्कृतिक स्वाभिमान को भी बरकरार रखा. उनका बौद्धिक साहस और निर्भय मानस सिर्फ इसी सरकार के खिलाफ नहीं, और सरकारें भी उनकी बौद्धिक आलोचना के निशाने पर रहीं. उन्होंने अपने प्रिय मित्रों की भी सार्वजनिक आलोचना करने का साहस दिखाया है. जाति और आरक्षण के मसले पर उनकी जो राय है उससे मेरे कई मित्र उनसे चिढ़े रहते हैं. जाति और आरक्षण के मसले पर उनकी और मेरी राय अलग-अलग है और हम दोनों ने मसले पर अपनी मत-भिन्नता का सार्वजनिक तौर पर इजहार किया है. इस मसले पर एक अलग राय रखने की उनकी चाहत को मैं उनके बौद्धिक साहस का ही प्रमाण मानता हूं. लेकिन अगर सत्ताधारी तबके के प्रति ईमानदारी बरतते हुए सोचें तो यहां कहना होगा कि उसके पास वह जेहनी कूबत ही नहीं जो वह प्रताप भानु के इन गुणों को जान-समझ कुछ परेशान हो सके कि मेरे विरोधी में वे गुण भी हैं जो किसी बौद्धिक में होने चाहिए.

मामले की जड़ में ये है कि प्रताप भानु मेहता ने मौजूदा सरकार की नीति, राजनीति और उसकी शख्शियतों को अपनी आलोचना का विषय बनाया है और ऐसा करते हुए मौजूदा सरकार के सुप्रीम लीडर को भी अपने तर्कों के निशाने पर लिया है. वे नरेन्द्र मोदी के उन आलोचकों में नहीं जिनके पेट में सुबह उठते ही मरोड़ उठती है और अपनी पीड़ा से परेशान वे हर बात में मोदी की गलती खोजते हुए विषबुझे व्यंग्य बाण छोड़ते हैं. प्रताप तीखा लिखते हैं लेकिन उनके तर्कों में सिर्फ धार ही नहीं दमखम भी होता है और वह महीनी भी जो किसी बौद्धिक की पहचान होती है. वे सरकार की आलोचना करते हैं लेकिन आप उन्हें किसी विचारधारा के तंग दायरे से बंधा बुद्धिजीवी करार नहीं दे सकते. अगर हमारी संस्थाएं ढहती जा रही हैं तो वे इस गिरावट को एक गवाह के तौर पर कलमबंद करते हैं और ऐसा करते हुए कहीं भी उनकी कलम बंधे-बंधाये फार्मूलों में नहीं फंसती. राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले के रग-रेशों को खूब बिन-परखकर उन्होंने मोदी सरकार के राष्ट्रवाद के दावों को अपने तर्कों के निशाने पर लिया. प्रताप भानु मेहता ने प्रधानमंत्री की विचारधारा ही नहीं उनकी नाकाबलियत को भी एक लंबे अरसे तक संदेह का लाभ दिया और इसके बाद ही प्रधानमंत्री को अपनी आलोचना का विषय बनाया. और, ये बात पीड़ा पहुंचायेगी ही. प्रताप भानु मेहता उन प्रभावहीन लेफ्ट-सेक्युलर आलोचकों में तो हैं नहीं कि मोदी सरकार उनकी अनदेखी करके चले. जो नया भारत गढ़ा जा रहा है, प्रताप भानु उसे खूब अच्छी तरह समझते हैं और अपनी लिखाई में उसकी एक-एक बुनावट के रग-रेशे खोलकर सबके सामने रख देते हैं. वह छुप्पा हाथ जो आज नीति और राजनीति को अपनी अंगुलियों के इशारे पर नचा रहा , उस हाथ के लिए प्रताप भानु एक गंभीर चुनौती बनकर उभरे हैं. जाहिर है, फिर प्रताप भानु मेहता को चुप कराना जरूरी लगेगा ही.

एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में

इस मुकाम से यह मसला आ जुड़ता है संस्थानों से: किसी प्राइवेट यूनिवर्सिटी के भितरखाने अगर कुछ उठा-पटक हो रही है तो हम क्यों फिक्र पालें? यूनिवर्सिटी की लिबरल छवि की मीन-मेख निकालने में जुटे बहुत से असहमतों को प्रताप भानु की विदाई की घटना ने झकझोरा है. यूनिवर्सिटी का चरित्र अभिजनवादी है और सिर्फ बौद्धिक रूप से ही नहीं बल्कि रोजमर्रा के बरताव वाले अर्थ में कहें तब भी यूनिवर्सिटी के चरित्र को अभिजनवादी ही कहा जायेगा. ऐसे ज्यादातर विश्वविद्यालय जातिगत और वर्गगत विशेषाधिकार के रंगमंच होते हैं. यहां जिन दामों पर शिक्षा दी जाती है उसे चुकाने के लिए मध्यवर्गीय मां-बाप को अपनी जिन्दगी भर की कमाई उड़ेलनी पड़ जायेगी. (एक खुलासा: इन पंक्तियों का लेखक भी ऐसे मां-बाप की श्रेणी में आता है). बेशक अशोका यूनिवर्सिटी ने अपने फैकल्टी के रूप में जाने-माने विद्वानों की एक मंडली तैयार की है लेकिन इसका खामियाजा सरकारी यूनिर्सिटिज को भुगतना पड़ा है. ताकत और विशेषाधिकार के ऐसे टापू पर उदारवादी मूल्यों, न्याय और निष्पक्षता सरीखे मूल्यों की शिक्षा देना बड़ा बेढब जान पड़ता है. कोई शक नहीं कि यूनिवर्सिटी की जो लिबरल होने आत्मछवि बनी चली आ रही थी उसे धक्का पहुंचा है. इसके बावजूद, अभी के मौके पर यूनिवर्सिटी के आलोचक गलत हैं, उनके तर्क उल्टे निशाने पर जा लगे हैं. प्रताप भानु मेहता की विदाई ऐन इसी नाते महत्वपूर्ण है कि ये घटना एक ऐसे संस्थान में हुई है जो अनुदान के लिए सरकार पर निर्भर नहीं बल्कि ताकत और विशेषाधिकार के बूते स्वयं में सुरक्षित है. अगर ऐसा संस्थान अपनी सुप्रसिद्ध शख्शियतों की हिफाजत नहीं कर सकता तो सोचिए, बाकी संस्थानों का क्या हश्र होगा?


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एक मौन स्वीकृति

इस सिलसिले की आखिर की एक बात यूनिवर्सिटी के न्यासियों के बारे में : आखिर संस्थान के स्वतंत्र और मानव-कल्याण के निमित्त दानदाता के रूप में गिने जाने वाले संस्थापकों ने सत्ताधारियों को मनमानी कैसे करने दी? हमें अब भी ये नहीं पता कि यूनिवर्सिटी के न्यासियों ने कहीं वह रवैया तो नहीं अपनाया जिसे रामचंद्र गुहा ने `झुकने को कहा गया तो रेंगने लगे`के मुहावरे में याद किया है. हो सकता है, जब झुकने को कहा गया हो तो वे झुके हों या फिर उन्हें सीधे-सीधे रेंगने का फरमान सुनाया गया हो. हम नहीं जानते कि सरकार ने दाम की नीति अपनायी या दंड की या फिर दाम और दंड दोनों की और दाम-दंड कितना था. लेकिन हम लोग एक बात जानते हैं कि अशोका यूनिवर्सिटी शिक्षा की उन दुकानों की तुलना में जो अपने को प्राइवेट यूनिवर्सिटी कहते हैं, कहीं ज्यादा दान की रकम से चलता है. हम ये भी जानते हैं कि इस यूनिवर्सिटी के संस्थापक और न्यासियों में बेश्तर तादात न्यू-टेक उद्यमियों की है जो किसी पार्टी से नहीं बंधे. जाहिर है, फिर ये मानकर चलना युक्तिसंगत होगा कि यूनिवर्सिटी के पास छिपाने के लिए बहुत कम है और इस नाते सरकार से डरने का कोई कारण नहीं है. तो फिर यह क्या एकदम ही कायराना तरीके से आत्मसमर्पण कर देने का मामला है? या फिर ऊपर से दबाव ही इतने जोर का डाला गया कि कोई संस्थान उसे झेल ही ना सके? शायद हमें इन सवालों का ठीक-ठीक पता न चले. लेकिन हम लोग इतना भर तो जानते ही हैं कि जब न्यासियों और संस्थापकों की ऐसी टोली की बांह मरोड़ते हुए उसे प्रताप भानु मेहता सरीखे बुद्धिजीवी को निकाल बाहर करने के लिए मजबूर किया जा सकता है तो फिर अन्य किसी भी बुद्धिजीवी के लिए दीवार पर लिखी इबारत एकदम साफ है कि भाई तुम किस खेत की मूली हो?

और प्रताप भानु मेहता को लेकर चल रही बहस में सबसे चुप्पा कोना इसी सवाल का है. हम संदेशवाहक पर निशाना साध रहे हैं और शायद सही ही साध रहे हैं लेकिन जिसने संदेश को गढ़ा है, उसके बारे में कोई नहीं बोल रहा. ऐसा भी नहीं कि किसी को संदेश के मायने और मंशा और इसे गढ़ने वाले के नाम-पहचान को लेकर कोई शक-सुब्हा है. सच्चाई एकदम ही जानी-पहचानी है, बहुत भयावह और उतनी ही उबाऊ भी. इसलिए, निशाना साधने के लिए हमने एक कमजोर को चुन लिया है, हम कमरे के कोने-अंतरे को लेकर मीन-मेख निकालने के क्षुद्र खेल में फंसे हैं लेकिन हमें कमरे में ठंसकर आ बैठा हाथी नजर नहीं आ रहा. और, सोचिए कि ये हाथी कितने दिन से और किस आराम से कमरे में आ पैठा है कि अब उसे देखकर हमें लग रहा है कि वो तो कमरे में रखा फर्नीचर है. हमने राजनीतिक सत्ता के मिजाज को कुदरत की देन और नियति मानकर स्वीकार कर लिया है. स्वतंत्रताओं का गला घुट रहा है और हम बड़े चुप्पे तरीके से इस अपराध में शामिल हो गये हैं.

प्रशांत भूषण को चुप कराने की कोशिश कामयाब न हुई. क्या प्रताप भानु मेहता की विदाई के जरिए जो संदेश देने की कोशिश की गई है, वो कामयाब होगी? हमें ये सवाल अपने से जरूर पूछना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)


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