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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतजयशंकर पर मोदी सरकार की छवि खराब न होने देने की बड़ी जिम्मेदारी, किसी प्रकार का PR सच्चाई नहीं छुपा सकता

जयशंकर पर मोदी सरकार की छवि खराब न होने देने की बड़ी जिम्मेदारी, किसी प्रकार का PR सच्चाई नहीं छुपा सकता

एस जयशंकर जानते होंगे कि इन दिनों भारत लोकतंत्र की हर रेटिंग में नीचे खिसका है और मानवाधिकारों के बाबत प्रकाशित रिपोर्टों में इस मोर्चे पर भारत की खस्ताहाली पर बड़ी चिंता जाहिर की गई है.

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बड़े नागवार काम का बोझ है एस जयशंकर पर. जो सरकार लि-ब-र-ल लफ्ज के हिज्जे तक नहीं बोल सकती उसी को लिबरल बताने-दिखाने का काम सौंपा गया है उनके कंधों पर. दूसरे मुल्कों से रिश्तों के ताने-बाने बुनने-सुलझाने का काम तो खैर है ही उनके जिम्मे लेकिन एक काम उन्हें और भी करना होता है और सच कहें तो कहीं ज्यादा मुस्तैदी से करना होता है. यह काम है दूसरे देशों के साथ पब्लिक रिलेशन को ऐसे संभालना कि मोदी सरकार की अंतर्राष्ट्रीय छवि मलिन ना हो. ये काम दाम और दंड के सहारे देशी मीडिया को मैनेज करने से कहीं ज्यादा कठिन है क्योंकि देशी मीडिया अपने ज्यादातर में सरकारी ना सही तो भी दरबारी तो है ही. सो, माननीय विदेश मंत्री अपने काम को अंजाम देने में कभी-कभार गच्चा खा जायें तो इसमें उनका दोष नहीं.

काम को अंजाम देने में गच्चा खा जाने का यही करतब उन्होंने बीते शनिवार को इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में दिखाया. पैमाइश के सहारे लोकतंत्र का दर्जा तय करने वाली दो अग्रणी रेटिंग एजेन्सियों ने भारतीय लोकतंत्र को अपने पैमाने पर नीचे खिसकता बताया है. एस जयशंकर से इसी बाबत सवाल पूछा गया. अमेरिकी गैर-सरकारी संगठन फ्रीडम हाऊस ने एक रिपोर्ट जारी की है. इसमें भारत के लोकतंत्र को ‘अंशतया मुक्त’ करार दिया गया है जबकि पहले भारत का दर्जा इस रिपोर्ट में ‘मुक्त’ का हुआ करता था.

स्वीडन के वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी (वी-डेम) इंस्टीट्यूट ने भारत को इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी (चुनावी अधिनायकवाद) के दर्जे में रखा है. जब इस बाबत सवाल हुआ तो जयशंकर ने तीखे शब्दों में जवाब दिया, ‘ये तो ढोंग है. कुछ लोगों ने अपने को दुनिया के रखवाले के तौर पर तैनात कर रखा है और उन्हें ये बात हजम ही नहीं होती कि भारत में कोई ऐसा भी है जो उनके हां-ना की फिक्र नहीं करता और जो खेल वो भारत को खेलता देखना चाहते हैं उस खेल को खेलने की उसे जरा भी इच्छा नहीं है. जाहिर है, वे लोग अपने नियम गढ़ते हैं, अपनी कसौटी बनाते हैं और अपना फैसला सुनाते चलते हैं और कुछ यों जताते हैं मानो वे कुछ ऐसा कर रहे हों जो दुनिया भर के लिए जरूरी है.’

जयशंकर तो खूब पढ़े-लिखे आदमी हैं. उन्हें पता ही होगा कि कुछ बुनियादी किस्म के तर्कदोष होते हैं और इन तर्कदोषों से हरचंद बचते हुए अपने तर्क गढ़ने होते हैं. ऐसे तर्कदोषों की फेहरिश्त में सबसे ऊपरला नाम है ad hominem का. लैटिन के इस पद का अर्थ होता है ‘व्यक्ति विरुद्ध’.

बहस में कोई अपनी बात के पक्ष में कोई तर्क दे लेकिन सामने वाला उस तर्क की काट में कोई प्रासंगिक बात ना कहे बल्कि तर्क करने वाले के व्यक्तिगत आचरण के दोष गिनाये, तर्क देने वाले का इतिहास-पुराण बताने लगे तो ad hominem नाम का तर्कदोष पैदा होता है. इस तर्कदोष के कई प्रकारों में एक है ‘tu quoque’ जिसे चलताऊ भाषा में लिखें तो वह होगाः ‘मैं ही क्यों तू भी तो.’ प्रतितर्क के इस श्रेणी में वैसे वाक्य आते हैं जिनमें प्रतिपक्षी के तर्क का सीधे-सीधे जवाब ना देकर उसे ढोंगी बताया जाता है. यह तर्कदोष कहलाता है क्योंकि बहस में इससे कुछ सिद्ध नहीं होता. जो ढोंगी है वह भी तो सच बात कह ही सकता है ना. कोई पढ़ा-लिखा, तेज-तर्रार आदमी जब प्रतिवाद में ‘मैं ही क्यों तू भी तो’ सरीखे वाक्यों का सहारा लेता है तो आप जान जाते हैं कि उसके पास अपने पक्ष में कहने के लिए ना कोई तर्क बचा है ना ही तथ्य.

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जयशंकर ने ढोंग का आरोप लगाया है तो ये बातें उस आरोप को झुठलाने की नीयत से नहीं कही जा रहीं. ये बात अपनी जगह बिल्कुल दुरुस्त है कि यूरोप या फिर अमेरिका को किसी ने ये कहकर अपना चौधरी नहीं बनाया कि आप दुनिया भर के मुल्कों में उनके लोकतंत्र होने-ना होने का सर्टिफिकेट बांटते फिरें. सबको पता है कि यूरोप या फिर अमेरिका लोकतंत्र का जो सर्टिफिकेट दुनिया के बाकी मुल्कों को बांटते फिरते हैं उसका रिश्ता उनकी विदेश नीति और आर्थिक हितों से होता है. यहां इससे भी ज्यादा अहम बात ये याद करने की है कि यूरोप और अमेरिका के लोकतंत्र में भी बड़े झोल हैं.

अमेरिका ने जितने मुल्कों में तानाशाहियों को खड़ा किया और उनकी मदद की, उसकी सूची बनायी जाये तो वह बड़ी लंबी होगी. इसके अलावे एक बात ये भी है कि फ्रीडम हाऊस और वी-डेम ही कोई लोकतंत्र की सेहत बताने के एकलौते पैमाने नहीं. दरअसल, इस मामले में सोलहो आना टंच खरा पैमाना कोई है भी नहीं.

लोकतंत्र की सेहत के बारे में माप-तौल कर संख्याओं में रेटिंग बताने की जो वस्तुनिष्ठ लगती कवायद चलती है, दरअसल एक ना एक अर्थ में वह भी आत्मनिष्ठ ही होती है और इस नाते हरचंद उस पर सवाल उठाये जा सकते हैं. रेटिंग करने वाली हर एजेंसी अपने काम के लिए विशेषज्ञों को बुलाती है और विशेषज्ञ आते हैं तो अपने साथ अपने मान-मूल्य भी लिए चले आते हैं. लोकतंत्र के सेहत की कोई पूरमपूर वस्तुनिष्ठ रेटिंग हो भी नहीं सकती. लेकिन, ध्यान रहे किसी आकलन के आत्मनिष्ठ होने का ये मतलब नहीं होता कि वह हर हाल में मनमाने का आकलन होगा और मान-मूल्य हमेशा व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का मामला नहीं होते. अगर इम्तहान में आये किसी लंबे साहित्यिक लेख का आकलन अंकों के आधार पर हो सकता है तो फिर यही बात लोकतंत्र की सेहत आंकने के मामले में भी सही है.


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भारत को वैश्विक रैंकिंग की ललक लगी है

एस जयशंकर को पता ही होगा कि फ्रीडम हाऊस और वी-डेम ने लोकतंत्र की रेटिंग का कोई आविष्कार नहीं किया और ये सोचकर तो कत्तई नहीं किया कि इस औजार के सहारे एस जयशंकर की सरकार की तौहीन करनी है. ये संस्थाएं विभिन्न देशों के लोकतंत्र का दर्जा सालाना तौर पर बताती हैं और ऐसा करते हुए इन संस्थाओं ने एक लंबा अरसा गुजारा है.

एस जयशंकर को यह भी पता होगा कि सिर्फ वी-डेम और फ्रीडम हाऊस ही लोकतंत्र की रेटिंग नहीं करते, कुछ और संस्थाएं भी ऐसा करती हैं, जैसे द इकॉनॉमिस्ट का डेमोक्रेसी इंडेक्स. एक प्रेस फ्रीडम इंडेक्स भी है. इसके अलावा एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट भी प्रकाशित होती है और इसी श्रेणी में नाम आता है यूएन रैपोर्टर ऑन ह्यूमन राइट्स का.

एस जयशंकर निश्चित ही ये जानते होंगे कि इन दिनों भारत लोकतंत्र की हर रेटिंग में नीचे खिसका है और मानवाधिकारों के बाबत प्रकाशित रिपोर्टों में इस मोर्चे पर भारत की खस्ताहाली पर बड़ी चिंता जाहिर की गई है. इन रिपोर्टों में एक संख्या दर्ज है और एक नाम भी और भारत के बारे में कोई तनिक भी परिचित है तो वह इस संख्या और नाम को खूब अच्छी तरह पहचानता है.

हां, लोकतंत्र की ऐसी हर रेटिंग पश्चिमी उदारवादी दृष्टिकोण से तैयार होती है. लेकिन, ये मान लेना की ऐसी हर रेटिंग भारत के खिलाफ एक षड़यंत्र है, भोलेपन की हद कहलाएगा. एस जयशंकर भले ये कह दें कि भारत को इन देशों के हां-ना की फिक्र नहीं है लेकिन तथ्य कुछ अलग ही इशारा करते हैं.

नरेंद्र मोदी को छोड़कर भारत के अन्य किसी प्रधानमंत्री ने भारत की छवि चमकाने के लिए विदेशों में मेला नहीं लगाया. भारत सरकार का कोई भी प्रमुख अमेरिकी राष्ट्रपति को खुश करने के लिए इतना ललायित नहीं रहा जितना कि ट्रंप को खुश करने के लिए मोदी ललायित दिखे. ईज ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स सरीखी आये दिन की रेटिंग को लेकर भारत की अन्य किसी सरकार ने इतना ढोल-नगाड़ा नहीं पीटा जितना कि इस सरकार ने और ढोल के इसी शोर में ये भी हल्ला उठा कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स में हेरफेर किया जा रहा है.

भारत की अपनी सांख्यिकी की जगह इस सरकार के अधिकारी जितना अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के आंकड़ों को तरजीह दे रहे हैं उतना अब से पहले कभी नहीं हुआ. लॉकडाउन की सख्ती के इंडेक्स पर ऊंचे स्कोर होने का श्रेय लेने के लिए जितना इस सरकार के समर्थकों में उत्साह दिखा उतना दुनिया में कहीं और नहीं. पश्चिमी मुल्कों से सर्टिफिकेट पाने की जैसी ललक इस सरकार में दिखी है वैसी आजादी के बाद के दिनों में बनी किसी और सरकार में नहीं.


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तथ्य गिनाइए, कविता मत सुनाइए

इस किस्म की रेटिंग पर सवाल उठाने का एक ही ईमानदार और युक्तिसंगत तरीका हो सकता है कि आप अपनी बात के पक्ष में तथ्य गिनायें. जयशंकर के पास अपनी बात के पक्ष में कहने को बस एक ही तथ्य था और वह ये कि- भारत में हर कोई, यहां तक कि जो पार्टी हार गई है वह भी चुनाव के नतीजों को स्वीकार करती है. लेकिन वे यह भूल गये कि व्यंग्य का मुख्य निशाना तो ट्रंप हैं जिनकी सिफारिश अमेरिकी मतदाताओं के आगे खुद मोदी ने की थी. इसके अतिरिक्त, जयशंकर ने अगर ये तथ्य गिनाया कि भारत में हर कोई चुनाव के नतीजों को स्वीकार करता है तो इससे यही साबित होता है कि भारत में मतगणना सही तरीके से होती है और एक हद तक यहां चुनाव-प्रक्रिया निष्पक्ष है.

जयशंकर के तथ्य से ये साबित नहीं होता कि भारत में नागरिक अधिकारों की खस्ताहाली को लेकर जो व्यापक चिंता फैली है, लोकतंत्र की संस्थाओं पर जिस तरह से कब्जा जमा लिया गया है- मीडिया, न्यायपालिका और निगरानी की अन्य संस्थाओं की स्वतंत्रता में जो हद दर्जे का खलल पड़ा है और आज के हिन्दुस्तान में राजनीतिक विरोधियों पर जिस तरह निशाना साधा जा रहा है और असहमतियों को आपराधिक बताकर जिस तरह उनका गला घोंटा जा रहा है, वह सब एक सिरे से गलत है.

दरअसल भारत के लोकतंत्र को चुनावी अधिनायकवाद कहने के पीछे असल मुद्दा भी यही है कि यहां चुनाव कमोबेश निष्पक्ष तरीके से होते हैं लेकिन देश दो चुनावों के बीच देश अलोकतांत्रिक बना रहता है. तर्क की चूक कहिए या असावधानी, जयशंकर ने अपना तथ्य गिनाकर यही बात एक तरह से स्वीकार कर ली है.

दूसरा तरीका है कि आप लोकतंत्र की सेहत मापने का कोई वैकल्पिक पैमाना सुझायें. एक खबर ऐसी आयी है जिसमें कहा गया कि विदेश मंत्रालय एक स्वतंत्र भारतीय थिंक टैंक का लोकतंत्र की वैकल्पिक वैश्विक रेटिंग करने के मामले में मददगार हो सकता है. कोई और वक्त होता तो स्वागत-भाव से कहा जाता कि गैर-पश्चिमी लोकतंत्रों में ऐसी बौद्धिक महत्वाकांक्षा पालने और ऐसा कर दिखाने का साहस होना ही चाहिए. लेकिन आज भारत मे जो हालात हैं, उसे देखते हुए बहुत संभव है लोकतंत्र की वैकल्पिक वैश्विक रेटिंग की ऐसी कोशिश को कर्नल गद्दाफी की ग्रीन बुक सरीखी कवायद मान लिया जाये. आपको कर्नल गद्दाफी की ग्रीन बुक की याद है ना. गद्दाफी ने ग्रीन बुक के अपने वाग्विलास और बड़बोलों के जरिए पश्चिमी राजनीतिक दर्शन के वर्चस्व की काट करनी चाही थी.

भारतीय लोकतंत्र की वर्तमान स्थिति को ढकने का जयशंकर का प्रयास विचित्र है. राजा की स्थिति बिल्कुल स्पष्ट है. किसी भी प्रकार से सच्चाई को छिपाया नहीं जा सकता.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. The Hindi translations at ‘The Print’ are always appreciable. People doing this job should get their credit.

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