scorecardresearch
Friday, 15 November, 2024
होममत-विमतअयोध्या के राम मंदिर में कोई दलित पुरोहित क्यों न हो? कम्युनिस्ट की बौद्धिक जमात भी यह सवाल नहीं उठाएगी

अयोध्या के राम मंदिर में कोई दलित पुरोहित क्यों न हो? कम्युनिस्ट की बौद्धिक जमात भी यह सवाल नहीं उठाएगी

कहा जा रहा है कि राम मंदिर रोम के वैटिकन और सऊदी अरब के मक्का से भी भव्य और दिव्य होगा, लेकिन इससे क्या दलितों और शूद्रों की स्थिति में कोई फर्क आएगा?

Text Size:

अयोध्या में बुधवार को राम मंदिर भूमि पूजन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, और राज्यपाल आनंदीबेन पटेल मंच पर मौजूद थीं. इस आयोजन में शामिल होने वालों में अकेले पटेल ही एक महिला और शूद्र थीं. भूमि पूजन करवाने वाले पुरोहितों में एक भी शूद्र नहीं था. उनमें अन्य पिछड़े वर्गों और दलितों से तो क्या, यूपी के यादव, जाट या कुर्मी समुदायों से भी कोई नहीं था.

हम यह केवल अंदाज़ा ही लगा सकते हैं, क्योंकि उस अनुष्ठान में भाग लेने वाले पुरोहितों के नाम हमें मालूम नहीं हैं. लेकिन इतिहास भी बताता है और आज भी यही हो रहा है कि शूद्रों को हिंदू धर्म में कोई धार्मिक-आध्यात्मिक अधिकार नहीं दिया गया है, और न ही उन्हें हिंदू धार्मिक पाठशालाओं आदि में इसके लिए प्रशिक्षित किया गया है.

शूद्रों ने अगर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस में भाग न लिया होता और इसके बाद 1999, 2014 और 2019 में भाजपा की सरकार न बनी होती, तो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया न तो शुरू हो पाती, और न आरएसएस-भाजपा अपना यह मकसद पूरा कर पाती. ये शूद्र और दलित ही हैं जो कोविड-19 की महामारी के इस सबके लिए कठिन समय में अनाज उगाने में जुटे हुए हैं. यही नहीं, वे मंदिर निर्माण में भी सक्रिय हैं. लेकिन उनके काम को धार्मिक रूप से सम्मानजनक नहीं माना जाता और इसलिए उन्हें हिंदू मानने के बावजूद पुरोहिती का अधिकार नहीं दिया जाता. यह भेदभाव सिर्फ जाति के आधार पर किया जाता है.

अयोध्या और यूपी में हर जगह मंदिरों के रखरखाव का काम हो या खाना से लेकर दूसरे साधनों के उत्पादन का काम हो, वह सब शूद्रों और दलितों की बदौलत चलता है. आरएसएस-भाजपा उन सबको हिंदू मानती है लेकिन इस 21वीं सदी में भी उन्हें राम मंदिर में पुरोहित बनने का या गुरुकुलों में संस्कृत का अध्ययन करने का अधिकार नहीं है.

रामायण में भी वर्ण व्यवस्था का जिक्र है और चार वर्ण बताए गए हैं— ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, और शूद्र. राम खुद क्षत्रीय थे और उनके गुरु वशिष्ठ ब्राह्मण थे.

हम नहीं जानते कि रामायण काल में वैश्यों की क्या स्थिति थी. संभवतः वे मवेशी पालने वाले लोग होंगे, और शूद्र ‘दास’ रहे होंगे, जिन्हें उत्पादन के कामों और द्विज जातियों की सेवा के काम सौंपे गए होंगे. उस समय हिंदू धर्म के नाम से कोई एक धर्म नहीं रहा होगा, जिसमें इन चार वर्णों को शामिल किया गया होगा. इतिहास से जुड़े मसलों और आधुनिक लेखकों के विचारों को हम परे भी रख दें, तो आरएसएस-भाजपा हिंदू धर्म में सभी शूद्रों और दलितों को शामिल मानती है. लेकिन उनके धार्मिक-आध्यात्मिक अधिकारों का क्या ? अगर राम सबके हैं; और, जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, हमें कथित ‘रामराज्य’ लाने के गांधीजी के सपने को पूरा करना है, तो शूद्रों और दलितों को तो साथ रखना ही होगा. जब उन्हें हिंदू कहा गया और कथित ‘राम मंदिर आंदोलन’ में उन्हें शामिल किया गया, तब कम-से-कम सिद्धांततः तो मंदिरों के कामकाज में जाति आधारित बंटवारा खत्म किया जाना चाहिए.


य़ह भी पढ़ें: भारत में जाति विरोधी आंदोलन को बढ़ावा देने लिए ब्लैक लाइव्स मैटर जैसी आग चाहिए, तभी वह मुख्य विलेन से लड़ पाएगा


धार्मिक अधिकारों से वंचित

क्या आरएसएस ने कभी उन्हें धार्मिक क्रियाओं में शामिल करने की मांग की? मोदी ने भूमि पूजन के बाद अपने भाषण में कहा कि राम पूर्ण समानता में विश्वास रखते थे, और वे आधुनिक विकास के लिए एक प्रेरणा बन सकते हैं. राम को एक दैवी शक्ति और विकास का स्रोत बताने की यह व्याख्या सकारात्मक है. मोदी ने यह भी कहा कि राम स्त्री-पुरुष को समान मानते थे. लेकिन यह ‘परंपरा-पालन’ के उस सिद्धांत के विपरीत है जिस सिद्धांत की वकालत आरएसएस के सिद्धांतकार 1925 में इसकी स्थापना के बाद से करते आ रहे हैं. आरएसएस ने स्त्री-पुरुष समानता या जाति भेद खत्म करने की बात कभी नहीं की.

लेकिन इसके लिए केवल आरएसएस-भाजपा को ही दोष नहीं दिया जा सकता. कांग्रेस के विचारकों ने भी कभी समान धार्मिक अधिकारों के मसले पर विचार-विमर्श की इजाजत नहीं दी, वे यही बहाना बनाते रहे कि वे धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखते हैं इसलिए वे धर्म के मामलों में नहीं पड़ेंगे, और ये सब मामले धार्मिक संगठनों के जिम्मे छोड़े जाएं. इसलिए उन्होंने सत्ता में होते हुए भी हिंदू धर्म या नागरिक समाज में जाति प्रथा को खत्म करने के लिए कुछ नहीं किया.

कम्युनिस्ट विचारकों ने भी इस झूठे सिद्धांत के नाम पर इन सवालों को नहीं उठाया कि वे धर्म में विश्वास नहीं रखते और वे नास्तिक हैं. यह भी जाति और धार्मिक असमानता के मसलों से किनारा करने के लिए एक झूठा तर्क है. पश्चिम बंगाल और केरल में वे लंबे समय तक सत्ता में रहे और हम देख चुके हैं कि उनके नेता और कार्यकर्ता हिंदू धर्म के कर्मकांडों में किस तरह भाग लेते रहे. उन सबने भारत के दो बड़े मसलों – जाति और धर्म— की ओर से अपनी आंखें बंद रखीं.


यह भी पढ़ें: राम मंदिर में दलित पुजारी बनाने से मोदी को क्या मिलेगा


अंग्रेजी शिक्षा से वंचित

बौद्धिक और राजनीतिक संगठनों में इन मसलों की अनदेखी इसलिए की जाती है क्योंकि राष्ट्रीय विमर्शों के सूत्र मुख्यतः इन पांच समुदायों के हाथों में हैं—ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रीय, कायस्थ, और खत्री.

पहले, इन पांच समुदायों के अंदर संस्कृत में शिक्षित मजबूत तबका था, मगर आज उनके अंदर अंग्रेजी में पढ़ा-लिखा, कहीं ज्यादा ताकतवर बौद्धिक तबका उभर गया है. राष्ट्रीय और मुख्यधारा की मीडिया में धर्म के मसले पर स्थानीय भाषाओं में बोलने वाली आवाज़ मुख्यतः गायब है. जब तक राष्ट्रीय स्तर पर बहस तेज नहीं होती, भाजपा समेत हरेक शासक दल शूद्रों और दलितों की उपेक्षा करता रहेगा.

दूसरी समस्या यह है कि जाटों, यादवों, गुज्जरों, पटेलों, समेत शूद्रों में अंग्रेजीभाषी बौद्धिक नहीं हैं, हालांकि उनमें कई क्षेत्रीय नेता जरूर हैं जो केवल वोट और सत्ता के हिसाब-किताब में लगे रहते हैं. उनके पास बदलाव का कोई दार्शनिक या वैचारिक एजेंडा नहीं है. यह बड़ी कमजोरी है, क्योंकि वे शहरी, अंग्रेजीभाषी जमातों को प्रभावित नहीं कर पाते.

आरएसएस-भाजपा मुस्लिम समाज में असमानताओं, खासकर स्त्री-पुरुष गैरबराबरी को लेकर सभी मंचों पर सवाल उठाती है. लेकिन मुस्लिम बुद्धिजीवी हिंदू धर्म के अंदर जो असमानताएं हैं उनके बारे में बोलने की हिम्मत नहीं करते.

शूद्रों के पास तो बौद्धिक ताकत है नहीं क्योंकि उन्हें शिक्षा से हमेशा वंचित रखा गया, जिसे ब्राह्मण और द्विज जातियां अपनी विशेषाधिकार मानती रही हैं. जब फारसी और उर्दू का बोलबाला था तब भी शूद्रों ने शिक्षा हासिल नहीं की. उन्हें उत्पादन, श्रम और सेवा के कामों में व्यस्त रखा गया. और आज भी जब आधुनिक बुद्धिजीवी बनने की बात आती है, वे एक पराजित जमात बने हुए हैं. अतीत में वे पुरोहित ब्राह्मणों की आज्ञा मानते थे, और आज वे अपने लिए समान अधिकारों की मांग न करके वही सब कर रहे हैं, जो आरएसएस-भाजपा उन्हें कह रही है. अपनी श्रम शक्ति के बूते देश को खाना उपलब्ध कराने वाली एक बड़ी उत्पादक जमात के लिए यह एक दुखद स्थिति है.


यह भी पढ़ें: दलितों को क्यों बनना चाहिए हनुमान मंदिरों का पुजारी?


राम मंदिर और समता का सवाल

राम मंदिर दूसरे हिंदू मंदिरों से अलग है. इसे एक ऐतिहासिक मंदिर बताया जा रहा है और कहा जा रहा है कि यह रोम के वैटिकन और सऊदी अरब के मक्का से भी ज्यादा महत्वपूर्ण और भव्य होगा. गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि अयोध्या में भूमि पूजन 2020 में एक ‘नये यज्ञ’ की शुरुआत है.

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि निर्माणाधीन मंदिर में राम की मूर्ति दुनिया में किसी भी दैवी शक्ति की मूर्ति से ज्यादा न्याय का प्रतीक होगी. अगर यह मंदिर इसका प्रतीक है, तो राम जिस आध्यात्मिक एवं धार्मिक व्यवस्था के प्रतिनिधि हैं उसमें जातिगत भेदभाव और स्त्री-पुरुष असमानता को खत्म करने के बारे में क्या किया जा रहा है? जातिगत असमानता, खासकर मंदिरों में सेवा देने वाले पुरोहितों की केंद्रीय मंडली में शूद्रों को प्रतिनिधित्व देने के सवाल पर पूरी चुप्पी क्यों है? मंदिर में कौन-से श्लोक पढ़े जाएंगे और किस आचार-व्यवहार का पालन किया जाएगा, यह सब पुरोहित लोग तय करते हैं. पुरोहिती धर्म के क्षेत्र में आध्यात्मिक वर्चस्व हासिल करने के लिए एक महत्वपूर्ण पद है.

आरएसएस-भाजपा क्या शूद्रों और दलितों को यह भरोसा दे पाएगी कि अयोध्या में ऐसी धार्मिक पाठशाला या महाविद्यालय बनाए जाएंगे जिनमें जाति के आधार पर नहीं बल्कि सिर्फ धार्मिक पृष्ठभूमि के आधार पर दाखिला दिया जाएगा?

मुश्किल यह है कि भारत में मुख्यधारा की मीडिया इस तरह की बहस को जगह नहीं देगी. अधिकतर मीडिया संगठन मुख्यतः द्विज जातियों के सदस्य चला रहे हैं इसलिए इस तरह की बहस मुश्किल है. उन्हें यह भी भरोसा है कि भारत में ‘ब्लैकलाइव्समैटर’ आंदोलन की तर्ज पर ‘शूद्र/दलित लाइव्स मैटर’ जैसा आंदोलन नहीं चलने वाला है. शांतिपूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन चलाने के लिए ‘शूद्र/दलित समुदायों को अति-आधुनिक, अंग्रेजी में शिक्षित बुद्धिजीवियों की जरूरत है, जो आज की मीडिया में पैठ बना सकें. लेकिन वे आएंगे कहां से?

(लेखक, राजनीतिक सिद्धांतकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. व्यक्त विचार उनके अपने हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments

17 टिप्पणी

  1. लेखक महोदय आपको में एक सलाह देना चाहूंगा आप वैसे भी समाज सेवी ही हैं तो क्यों न आप एक बार RSS join करके देखें तब आपको पता चलेगा की जातिगत भेदभाव हैं या नहीं ।
    आरएसएस को समझना है तो आप दैनिक शाखा में जाइए आपको पता चल जाएगा कि आखिर ये आरएसएस नाम का वृक्ष है क्या????

  2. लेखक महोदय की ज्यादातर बातें उनकी पूर्वानुमानों पर आधारित लगती है।सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि सात दशक बीत जाने के बाद भी देश के वंचित वर्ग को एक समान मौका आज तक क्यों नहीं मिल पाया है चाहे वो शिक्षा हो या नौकरी।जिन लोगो को मौका मिला वो बेशक दलित या तथाकथित शूद्र वर्ग से आते हो लेकिन सत्ता का दुरुपयोग अपने कुनबे को कुबेर बनाने में लगे रहे।तमाम दलित राजनैतिक नेतृत्व इसका उदाहरण है।सबने एक सिरे से दलित को सिर्फ एक वोट बैंक समझा और उनको अशिक्षित रखने में ही अपनी भलाई समझी । किसी ने भी अपने समाज को शिक्षा ,स्वास्थ्य,आर्थिक उन्नति जैसे मुद्दों पर कोई सहायता नहीं की।वंचित समाज को हमेशा नया शोषक मिला है जो कभी नहीं चाहता है कि उनकी प्रगति हो।दलित नेतृत्व भी सत्ता में आते ही समानता के मूल आधरना को लात मार कर नव मनुवाद को अपनाता हुआ दिखता है।राम मंदिर में सभी वर्गो का नेतृत्व और सहयोग है यह किसी जाति या वर्ग विशेष का नहीं बल्कि समूचे हिन्दू समाज का प्रतिबिंब है,लेकिन लेखक महोदय ये नहीं जानना चाहते कि दिया सभी जाति ,वर्ग के लोगों ने जलाया था। जाति को वर्ग बनने से रोक कर सबका सम्मान कीजिए भारत का विकास होगा।

  3. मूर्ती पूजा.. पाखंड है… कहने वाले आज मन्दिर मे दलित पुजारी नियुक्त करने की बात कर रहे है।

    #कटु_सत्य..

    लग भग हर आंबेडकरवादी के Facebook मे आपको एक पोस्ट तो पक्का देखने को मिलेगी..
    सरदार #वल्लभ_भाई पटेल का पुतला बनाने से अच्छा होता सरकार कोई स्कूल बनाती..

    एक तरफ ये मूर्ति पर ताना कसते हैं,
    जब की असलियत ये है, देश के चौक, चौराहे, सरकारी दफ्तर, गाँव मे छोटी बड़ी मिला के सबसे ज्यादा मूर्तियां बाबासाहेब की ही हैं…
    किसी आंबेडकरवादी के मुँह से यह नहीं निकालता.. बाबासाहेब की इतनी मूर्तियां देश मे पहले से मौजूद हैं, नयी मूर्ति बना ने की जगह स्कूल बनाए जाएं..

    एक तरह ये हमेशा हिंदुओं को मूर्ति पूजा का ज्ञान देते रहते हैं और मूर्ति पूजा को पाखंड बता कर हिंदुओं की भावनाओं का उपहास करते हैं…
    और दूसरी और देश विदेश मे सबसे अधिक मूर्तियां गौतम बुद्ध की ही हैं.. जिसे दिन रात ये लोग पूजे नहीं अघा ते..

    बड़ी विचारणीय बात है..
    आज कल.. तथा कथित आंबेडकरवादी जो खुदको शूद्र बता ते थकते नहीं..
    आजकल हिंदुओं को तोड़ने हेतु एक नई मुहिम चला रहें हैं..
    Sc- st – obc सब एक हैं चिल्लाते रहते हैं..
    Obc को भी शूद्र बनाने पर तुले हैं..

    पर असलियत मे.. इन तथा कथित अम्बेडकरवादियों की जलन obc समाज के प्रति जग जाहिर है..
    सबसे अधिक झूठे sc-st Act केस मे obc समाज के लोगों को ही फंसाया गया है..
    अगर तथा कथित आंबेडकरवादी और obc समाज एक है.. तो पटेल भाई की मूर्ति से जलन क्यूँ.. सरदार वल्लभ भाई पटेल भी तो OBC हैं,.. क्यूँ सरकार को सरदार पटेल की मूर्ति का ताना मारा जाता है..

    इन तथा कथित अम्बेडकरवादियों का obc प्रेम का एक और उदाहरण…

    जितनी गालियां मोदीजी को ये तथा कथित अम्बेडकर वादी देते हैं, उतना तो देश के मुस्लिम भी नहीं देते..
    Modi से इतना बैर क्यूँ..
    मोदी भी तो obc समाज से हैं..

    अब बात करते हैं राम मंदिर की..
    राम मंदिर का विरोध सबसे अधिक ये तथा कथित अम्बेडकर वादी करते हैं..
    राम मंदिर की क्या जरूरत..
    राम मंदिर की जगह अस्पताल बनाना चाहिए…
    जहां एक तरह दुनिया corona से लड़ रही है..
    हिंदू राम मंदिर बना रहा है..
    एक से एक बिना सर पैर वाले तंज कस ते हैं..

    और मजे की बात ये है.. ये खुद राम मंदिर की जगह “बौद्ध विहार” बने…
    अयोध्या को साकेत नागरी घोषित करो..
    इसके लिए सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए..

    इन तथा कथित अम्बेडकर वादियों को अस्पताल से इतना ही प्यार है तो…

    कई जैन मंदिरों को तोड़ कर बने बौद्ध विहारों को तोड़ कर अस्पताल बनाया जाए.. ये अपील सुप्रीम कोर्ट मे क्यूँ नहीं की…

    राम मंदिर की जगह बौद्ध विहार बने.. ये अपील सुप्रीम क्यूँ लेकर गए..

    अस्पताल प्रेमी बौद्धों और तथा कथित आंबेडकरवादी क्या सौगंध लेंगे.. की अब देश मे कोई भी बाबासाहेब की नई मूर्ति नहीं खड़ी की जाएगी.. अब कोई भी नया bauddh vihar नहीं बनाया जाएगा..

    बाबासाहेब की मूर्ति और बौद्ध विहार का पैसा केवल और केवल स्कूल और अस्पताल बना ने के लिए खर्च किया जाएगा..

    मूर्ती पूजा.. पाखंड है… ज्ञान देने वाले बौद्ध जरा बताये… की क्या अब सारे गौतम बुद्ध की मूर्तियां हटा दी जाएंगी…

    • लेखक ने ऐसे ऐसे झूठे अनुमानों को अपने लेख में शामिल किया है जो वास्तविकता से दूर हैं,जैसे लेखक ने कहा की भारत में दास थे ,जबकि सच तो यह है की इस्लामिक और ईसाई धर्म से भरपूर पश्चिमी और अरबीजगत में दास प्रथा थी, इस्लाम में तो यौन दासियों की भी इजाज़त है जैसा की आइ एस आइ एस (ISIS)वालों ने यजीदी बच्चियों को बनाया ,भारत में दास प्रथा कभी नहीं थी, दास प्रथा का कोई ख़ास ज़िक्र नहीं मिलता भले कोई भी वर्ण हो ।मगर वर्ण प्रथा थी जो अब समाप्ति की ओर है ।
      दूसरी बात यह है कि भारत में शिवाजी महाराज हों या चंद्रगुप्त मौर्य , यह दोनो भारत के सबसे बड़े हिंदू शासक माने जाते हैं। दोनो ही तथाकथित सवर्ण जाति में नहीं जन्मे थे मगर दोनो को महान राजा बनाने में ब्राह्मणो का हाथ था, चाणक्य और समर्थ गुरु रामदास। शिवाजी ने तो हिंदू राज्य की स्थापना भी की थी, रामायण और महाभारत लिखने वाले दोनो महर्षि भी ब्राह्मण नही थे ।
      दूसरी बात राम मंदिर निर्माण ट्रस्ट में दलित सदस्य हैं जिनका नाम है- कामेश्वर चौपाल , ओ बाई सी – विनय कटियार , उमा भारती ,कल्याण सिंह हैं । लेखक का झूट यहाँ भी पकड़ा गया ।
      आख़िर मे सबसे बड़ी बात , राम मंदिर में बहुत से दलित पुरोहित भी होंगे, उनका प्रशिक्षण शुरू हो चुका है । जबकि लेखक ने झूठा दावा किया ।
      इस सब से स्पष्ट है , यह लेख हिंदू घ्रणा से पीड़ित मानसिकता वाले किसी व्यक्ति ने हिंदू घ्रणा को बढ़ाने और समाज में वैमनस्यता फैलाने के लिए अतार्किक , फ़ेक न्यूज़ से युक्त और तथ्यों से उलट लेख लिखा है, यह झूठ से भरपूर लेख है।
      ऐसे लेख लिखने वाले लोग कभी यह सवाल नहीं उठाते कि शिया की मस्जिद में सुन्नी को जाने की इजाज़त क्यों नहीं है??
      मुस्लिम महिलाओं को भारत में मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की इजाज़त क्यों नहीं है??
      मदरसा में मोलवी छोटे छोटे शिष्यों बच्चों के साथ बलात्कार करते पकड़े जाते हैं।
      चर्च में पादरी बच्चों के साथ दुष्कर्म करते है । इन ज़रूरी बातों पर यह कभी लेख नहि लिखेंगे, इसमें इन्हें islamophobia दिखाई देगा मगर हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ झूठ का प्रयोग कर कर के लेख लिखेंगे।
      सत्य तो यह है संघ में जातियों का नाम नहीं लिया जाता ,लोगों को सिर्फ़ प्रथम नाम से बुलाया जाता है जी लगाकर जैसे कमल जी. नरेंद्र जी।
      राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ में एक गीत भी प्रचलित है ,जिसकी पंक्तियाँ हैं :-
      “भूल से भी मुख से ज़ाति पंथ की ना बात हो , भाषा प्रांत के लिए कभी ना रक्तपात हो ।”
      जिसका अर्थ है, जाती, पंथ, का ज़िक्र तो कभी भूल से भी नहीं करना चाहिए और प्रांत के लिए नही, देश के लिए सोचना चाहिए।
      लेखक ईसाई है और इसी वजह से अपने धर्म को बड़ा दिखाने के लिए ऐसी ओछी हरकतें कर रहा है

    • आप जानते ही करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में

  4. kancha illaiya Shepherd tu apne christian religion pr bhi dhyan de le thoda sa.. aandolan chalao ki next Pope dalit varg se hi hoga.. dalit to chhodo tum non European hi bna kr dilha do.. vahan to tum sirf talve chatate ho European ke yahan Hinduo ke upr lecture de rhe ho.. ham Hindu apne aap dekh lenge hme kya krna hai.. tum apne religion tak hi dhyan do apna.. aur han ye The Print apna head kisi dalit ko kyon nhi bna rah..

  5. लेखक निश्चित रूप से किसी अन्य धर्म को मानने वाला , हिन्दू विरोधी गई जो दलितों को भड़काने का काम कर रहा है
    मूर्खता की पराकाष्ठा तो यह है कि इन्हें इतना भी नही पता कि वर्ण व्यवस्था रामायण में कही नही थी।

    नही सती प्रथा , हिन्दू ग्रथों में कोई कुरीति नही थी।
    ए सब मुस्लिम अत्याचारियों एवं ईसाइयों के द्वारा फैलाई गई भ्रांति है।

    जो हिन्दुयो मे फुट डालने की कोशिश करती है

  6. देना चाहूंगा आप वैसे भी समाज सेवी ही हैं तो क्यों न आप एक बार RSS join करके देखें तब आपको पता चलेगा की जातिगत भेदभाव हैं या नहीं ।
    आरएसएस को समझना है तो आप दैनिक शाखा में जाइए आपको पता चल जाएगा कि आखिर ये आरएसएस नाम का वृक्ष है क्या????

  7. आरएसएस को जानने के लिए उनकी नीतियों को समझना काफी है शाखा में जाना जरूरी नहीं है।

  8. हा सहमत हूँ मैं आप से कि आर. एस. एस. में जातिगत भेदभाव नही है यह समस्या समाज में व्याप्त है और सघ
    समाज का हिला है

  9. महोदय अपने ये गंदे विचार हिंदू धर्म को बांटने में न करके … अपनी लेखनी पर ध्यान दीजिए।

Comments are closed.