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Thursday, 28 March, 2024
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राम मंदिर में दलित पुजारी बनाने से मोदी को क्या मिलेगा

राममंदिर आंदोलन के नेता के तौर पर अशोक सिंघल और आडवाणी का ही नाम दर्ज है. उनके अलावा मुख्य न्यायाधीश गोगोई और पांच जजों की बेंच को भी इतिहास याद रखेगा. लेकिन इन सब के बीच नरेंद्र मोदी कहां हैं?

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अब से तीस साल पहले 9 नवंबर, 1989 को अयोध्या में विवादित स्थान के पास राम मंदिर का शिलान्यास समारोह हुआ था. ये कार्यक्रम राष्ट्रव्यापी राम मंदिर आंदोलन के तहत हो रहा था, जिसमें विश्व हिंदू परिषद, आरएसएस और बीजेपी के तमाम नेता शामिल थे. जब ये सवाल आया कि मंदिर के लिए पहली ईंट कौन रखेगा तो इन संगठनों ने इसके लिए बिहार के एक दलित कार्यकर्ता कामेश्वर चौपाल को चुना. ये प्रतीक यह बताने के लिए था कि राम मंदिर आंदोलन सिर्फ सवर्ण हिंदुओं का कार्यक्रम नहीं है.

इस कार्यक्रम के ठीक 30 साल बाद, 9 नवंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने विवादित भूमि पर, जहां कभी बाबरी मस्जिद खड़ी थी, राम मंदिर बनाने का आदेश दिया है. ये मंदिर एक ट्रस्ट बनाएगा. ट्रस्ट के गठन का जिम्मा केंद्र सरकार को दिया गया है.

लगभग 30 साल के राम मंदिर आंदोलन के बाद मंदिर की पक्षधर शक्तियों की ये एक बड़ी जीत है. इतिहास की जो चीजें नापसंद हों, उन्हें चुनिंदा तरीके से सुधारने का ये एक बड़ा उदाहरण है.

इस जीत में नरेंद्र मोदी कहां हैं?

आखिर नरेंद्र मोदी वे शख्स हैं जो एक कार्यकर्ता के तौर पर राम मंदिर आंदोलन में शामिल रहे. बीजेपी के शिखर नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जब सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली, तब उसमें नरेंद्र मोदी भी शामिल थे. 27 फरवरी 2002 को अयोध्या से गुजरात लौट रहे कार सेवकों की ट्रेन साबरमती एक्सप्रेस में गोधरा में आग लगाई गई थी. उसके बाद गुजरात ही नहीं, देश की राजनीति भी बदल गई. उस राजनीति का एक पड़ाव नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के रूप में हुआ. इस तरह से बीजेपी ही नहीं, नरेंद्र मोदी के जीवन में भी अयोध्या और राममंदिर का महत्वपूर्ण स्थान है.

लेकिन जब राम मंदिर का मामला अपने निर्णायक पड़ाव की तरफ बढ़ रहा है, तब नरेंद्र मोदी की भूमिका अदालत के फैसले का स्वागत करने और शांति और सौहार्द बनाए रखने की अपील करने की रह गई है.

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क्या नरेंद्र मोदी ऐसा कुछ कर सकते हैं जिससे उनको भी राम मंदिर आंदोलन के इतिहास में याद रखा जाए?

मेरा सुझाव है कि नरेंद्र मोदी को किसी दलित को और भी बेहतर हो कि किसी दलित महिला को राम मंदिर का पुजारी बनाना चाहिए. इसके लिए उन्हें एक ऐसा ट्रस्ट बनाना होगा, जो उनके इस विचार से सहमत हो और इस पर अमल करे. ये बहुत मुश्किल काम नहीं होगा.

सवर्ण नेतृत्व में चला राममंदिर आंदोलन

राम मंदिर आंदोलन अपनी अंतर्वस्तु में सवर्ण हिंदुओं के नेतृत्व में चलने वाला आंदोलन है. मंडल कमीशन की काट करना भी इसका एक अघोषित लक्ष्य रहा. इसका वैचारिक नेतृत्व आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और धर्म संसद ने किया, जो पूरी तरह से सवर्ण नेतृत्व वाले संगठन हैं. इस आंदोलन के साथ जो बड़े नाम जुड़े रहे, जैसे अशोक सिंघल, आरएसएस के प्रमुख देवरस, रज्जू भैया, सुदर्शन और भागवत, रामचंद्र परमहंस दास, अवैद्यनाथ, विश्वेशतीर्थ, वासुदेवानंद आदि सभी स्वाभाविक रूप से सवर्ण रहे. लेकिन बीच के नेताओं में, खासकर आक्रामक नेताओं में मझौली और पिछड़ी जातियों के नेताओं को भी खूब स्थान दिया गया. इनमें कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार, शिवराज सिंह चौहान, साध्वी रितंभरा, गोपीनाथ मुंडे जैसा नेता प्रमुख हैं. नरेंद्र मोदी भी इसी कतार में आते हैं, हालांकि उस दौर में उनकी गिनती महत्वपूर्ण नेताओं में नहीं होती थी.


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यह एक तरह के प्राचीन समय से चली आ रही वर्ण व्यवस्था का ही एक रूप है, जिसमें विचार बनाने और नेतृत्व करने का काम ऊंची जातियां संभालती हैं और बाकी सारा काम शूद्र और गंदे काम अछूत जातियां करती हैं. राम मंदिर आंदोलन के दौरान हुए दंगों में शामिल लोगों का अगर कभी कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन हो कि वास्तविक तौर पर हिंसा किन लोगों ने की, कौन मरे और कौन जेल गए तो कुछ रोचक तथ्य सामने आ सकते हैं.

बीजेपी की राजनीति के लिए जरूरी हैं दलित-पिछड़े

आरएसएस-बीजेपी को देश की समाजशास्त्रीय बनावट की अच्छी जानकारी है. उन्हें मालूम है कि ओबीसी और दलितों, आदिवासियों के एक हिस्से को साथ लिए बगैर लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता पाना संभव नहीं है. इसलिए दलित, आदिवासी और पिछड़े हमेशा से आरएसएस-बीजेपी की कार्य योजना का हिस्सा रहे हैं. उन्हें जोड़ने की रणनीति को सोशल इंजीनियरिंग तथा सामाजिक समरसता आदि नामों से जाना जाता है.

ऊपर की सामाजिक शक्तियों के वर्चस्व के लिए नीचे के लोगों की सहमति हासिल करना कोई भारतीय परिघटना नहीं है. चर्च ने भी लंबे समय से इस रणनीति पर काम किया है. मिसाल के तौर पर, इस समय कैथोलिक चर्च ने अपने नेता यानी पोप के लिए एक लैटीनो (दक्षिण अमेरिकी) को चुना है. दक्षिण अमेरिका और बाकी देशों में फैली लैटिनो आबादी को चर्च से जोड़े रखने के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया था. उत्तर अमेरिका में भी हालांकि चर्च ने एक समय गुलामी प्रथा को धर्मसम्मत ठहराया. लेकिन, बाद में चर्च अश्वेत लोगों तक पहुंचा. आगे चलकर ब्लैक चर्च का उभार हुआ जिसने असमानता मिटाने और गुलामी प्रथा खत्म करने के आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई. मार्टिन लूथर किंग जूनियर खुद भी एक पादरी थे. लेटिन अमेरिकी देशों में कई पादरियों ने वहां के मुक्ति आंदोलनों में हिस्सा लिया और इस पूरी परिघटना को लिबरेशन थियोलॉजी नाम से जाना जाता है.

सामाजिक समरसता का विस्तार कर सकते हैं नरेंद्र मोदी

बीजेपी-आरएसएस की सामाजिक समरसता की नीति के तहत भी उचित होगा कि नरेंद्र मोदी किसी दलित को राम मंदिर का मुख्य पुजारी बनाने के लिए पहल करें. मैं इसके लिए एक नाम का सुझाव उन्हें देना चाहता हूं. इस पद के लिए संस्कृत की विद्वान और दिल्ली यूनिवर्सिटी की शिक्षक डॉक्टर कौशल पंवार सर्वथा योग्य हैं. उन्होंने संस्कृत भाषा में पीएचडी की है और धर्मशास्त्रों तथा मीमांसा पर उन्होंने अध्ययन किया है. उन्होंने देश-विदेश के नामी विश्वविद्यालों में इन विषयों पर व्याख्यान दिए हैं. आमिर खान के कार्यक्रम सत्यमेव जयते में उन्होंने हिंदू धर्म शास्त्रों की निर्मिती-वर्ण और जाति व्यवस्था- के बारे में अपने विचार बेबाक तरीके से रखे थे, जिसे सराहा गया था. उन्होंने अवसर दिए जाने पर राम मंदिर की पुजारी बनने के प्रस्ताव को स्वीकार करने की बात कही है.

सबसे बड़ी बात ये है कि कौशल पंवार आंबेडकरवादी हैं और उनके विचारों पर चलते हुए जाति व्यवस्था का विनाश चाहती हैं. नरेंद्र मोदी भी डॉ बीआर आंबेडकर का आदर करते हैं और बार-बार उनकी तस्वीर और मूर्तियों के सामने सिर झुकाते हैं. उन्होंने ये भी कहा है कि आंबेडकर न होते तो वे प्रधानमंत्री न बन पाते. आंबेडकर के जीवन से जुड़े पांच स्थानों पर पंचतीर्थ का निर्माण उन्होंने कराया है. इन सबसे बहुत आगे बढ़कर उन्होंने काशी में सफाई कर्मचारियों के पैर भी धोए हैं.


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एक दलित महिला को राम मंदिर का मुख्य पुजारी बनाना इसी परंपरा में एक और पड़ाव होगा. इससे राममंदिर आंदोलन में नरेंद्र मोदी का नाम जुड़ जाएगा, वरना लोग वही कहेंगे जो प्रवीण तोगड़िया कह रहे हैं कि अगर राममंदिर का फैसला अदालत से ही होना था तो इतना बड़ा आंदोलन और इतना सारी कुर्बानियां क्यों? इससे अच्छा तो ये होता कि हम मुकदमा लड़ने के लिए कुछ अच्छे वकील रख लेते.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)

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1 टिप्पणी

  1. गलत विवरण
    सनातन धर्म में वर्ण व्यवस्था थी, जाति व्यवस्था नहीं।
    जो भी विद्वान हो जो ब्राह्मण है। शूद्र वो होता है जिसमें बल, बुद्धि नहीं होती। वो पंडित का बच्चा भी हो सकता है

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