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Saturday, 4 May, 2024
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जातीय जनगणना का बिहार वाला फॉर्मूला मोदी के खिलाफ चलेगा क्या?

कांशीराम में बेशक बुद्धि-कौशल और राजनीतिक दूरदर्शिता थी, और उसकी बदौलत आज हमें एक ओबीसी प्रधानमंत्री हासिल है लेकिन जातीय जनगणना का बिहार मॉडल बाकी देश के लिए निराशाजनक ही साबित हो सकता है.

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नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने वाले चाहे बिखरे हुए हों या एकजुट हों या मोर्चाबंद हों या पूरे जोश में हों, वे उन्हें अगले साल तब तक नहीं मात दे सकते जब तक कि उनके पास वह जादुई ‘आइडिया’ नहीं होगा.

‘इंडिया’ गठबंधन अगर यह सोचता है कि पूरे देश में बिहार जैसी जातीय जनगणना कराना ही वह जादुई ‘आइडिया’ है, तो मैं बंगाल के बारे में दिवंगत गोपाल कृष्ण गोखले की उस अमर उक्ति को आज के संदर्भ से जोड़ने की छूट लेना चाहूंगा : बिहार आज जो सोचता है वह बीते हुए कल से एक दिन पहले ही सोचा करता था.

जैसा कि हम ‘कट द क्लटर’ की एक कड़ी में बता चुके हैं, बिहार में सामाजिक न्याय के आंदोलन ने 1990 में ही राजनीतिक सत्ता को पिछड़े तबकों के कदमों पर लाकर रख दिया था. उसके बाद से उसने आगे कदम नहीं बढ़ाया और व्यापक आर्थिक विकास, अवसरों को बढ़ाने, और लोगों का जीवन स्तर सुधारने जैसे अगले कदम उठाने की कोशिश तक नहीं की.

बिहार मॉडल पूरे देश के लिए बहुत निराशाजनक पेशकश साबित हुआ. वह बिहार में भले कारगर रहा. लेकिन आज तमाम पिछड़ी ताक़तें भाजपा के खिलाफ एकजुट क्यों न हो जाएं, वे केवल बिहार में ही मोदी को नुकसान पहुंचा सकती हैं. वैसे भी, 2019 में भाजपा वहां लोकसभा की केवल 17 सीटें ही जीत पाई थी. अब आप उसमें और कितनी कटौती कर सकते हैं?

सीधी-सी बात यह है कि इस रणनीति से मोदी को हराने के लिए आपको पूरे देश को बिहार के रंग में रंगने की जरूरत नहीं है. यह रणनीति आप केवल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, और हो सकता है हरियाणा और उत्तराखंड में लागू कर सकते हैं.

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इनमें से किसी राज्य में जातियों के समीकरण और पारंपरिक निष्ठाओं पर गौर करें तो आप यही पाएंगे कि आप जिस जनगणना को ऐसी क्रांति मान रहे थे, जिसका आपको इंतजार था, वह उस राज्य की सीमाओं से बाहर नहीं फैल सकती, जहां इसका जन्म 1967 में हुआ था.

लेकिन आप मेरे विचारों या तर्कों या पूर्वाग्रहों पर ही क्यों भरोसा करें, जबकि ‘स्मार्ट’ लोग इसे पहले ही क्रांति घोषित कर चुके हैं और राहुल गांधी ने कांशीराम के इस नारे का समर्थन कर दिया है कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’. आइए, अब जरा 2019 के चुनाव के कुछ तथ्यों पर गौर करें और देखें कि इससे आगे हम किधर जा रहे हैं.

‘दप्रिंट’ के राजनीतिक ब्यूरो के अमोघ रोहमेत्रा के एक लेख से स्पष्ट है कि 2019 में मोदी-शाह की भाजपा ने 224 लोकसभा सीटों पर 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल किए थे. यानी उसे बहुमत पाने के लिए मात्र 49 सीटें और चाहिए. आप चाहे जिसके समर्थक हों, आपको अंदाजा हो सकता है कि इस लहर को उलटना कितना मुश्किल है.

इन 224 सीटों में से कितनी किस राज्य की हैं, इसके ब्यौरे पर गौर करें तो यह चुनौती और बड़ी नजर आएगी. भाजपा को उत्तर प्रदेश की कुल सीटों में से आधी पर 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे. यह राज्य जातीय समीकरण, अवसरों की उपलब्धता, मुस्लिम आबादी के प्रतिशत आदि के मामले में बिहार जैसा ही है. यानी 80 में से 40 सीटें!

राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक ऐसे बड़े राज्य हैं जिन पर मोदी ज्यादा भरोसा कर रहे हैं. उनमें भी उन्हें 2019 में क्रमशः 23, 25, 26, 22 सीटें मिली थीं. इन सबको मिलाकर 188 में से 136 यानी आधी से ज्यादा सीटें होती हैं. क्या जातीय जनगणना ऐसा फॉर्मूला हो सकता है, जिसके कारण लाखों मतदाता मोदी से मुंह मोड़ लेंगे?

मोदी को चुनौती देने वालों की मुश्किलें तीन मुख्य बातों से तय होंगी—

एक, मोदी इन राज्यों में सीटों और वोट प्रतिशत के हिसाब से इतनी भारी जीत हासिल करते हैं कि उन्हें मात देना असंभव हो जाता है. यह लगभग स्टीव वॉ के नेतृत्व वाली अजेय टीम जैसी होगी, जो पहली पारी में ही इतने रन इतनी तेजी से बना लेती थी कि मैच का फैसला लगभग पहले ही हो जाता था.

दो, 1989 के बाद की कांग्रेस पार्टी के विपरीत, मोदी इतने नादान नहीं हैं कि वे पिछड़ा कार्ड खेलने के लिए खुद को ओबीसी के रूप में पेश करेंगे.

तीन, पिछड़ी जातियों और मुस्लिम के मेल वाली राजनीति तभी तक कारगर होती है जब आप 30 फीसदी के आसपास वोट लेकर चुनाव जीतते हों, जैसा कि हिंदी पट्टी में कभी हुआ करता था. आज जब दूसरा पक्ष 50 फीसदी से ऊपर वोट के साथ शुरू कर रहा हो तब पहाड़ ज्यादा ही ऊंचा हो जाता है. तब उसे लांघने के लिए ज्यादा ताकत, ज्यादा मजबूत कील-कांटे, रस्सी आदि चाहिए. तब जातीय जनगणना और कांशीरम के बेमानी हो चुके युद्धघोष जैसे औजारों से काम नहीं चलेगा.

यहां कांशीराम के बुद्धि-कौशल और उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता से कोई इनकार नहीं कर रहा. वे अपने समय के दिग्गज थे. पिछड़े, अनुसूचित जातियां, अल्पसंख्यक तब राजनीतिक ताकत के लिए बेताब थे. इसने अविश्वसनीय और स्थायी असर डाला और हमारी राजनीति को बदलकर रख दिया. हम कह सकते हैं कि कुछ लक्ष्य तो जरूर हासिल किए गए. भारत को आज एक ओबीसी प्रधानमंत्री और एक आदिवासी राष्ट्रपति हासिल है, जबकि कांग्रेस के चार में से तीन मुख्यमंत्री ओबीसी हैं.

लेकिन यह लहर फिर उभरेगी या नहीं, इस संभावना का आकलन आप यह जांचे बिना नहीं कर सकते कि इनमें से ज्यादातर ‘दूसरी जातियों’ के मतदाता मोदी के पाले में क्यों चले गए.

व्यापक धारणा यह है—और मैं इस धारणा के बारे में इसलिए बात कर रहा हूं क्योंकि कई एक्ज़िट पोल ने इसकी पुष्टि की है—कि आज भारत में ऊंची जातियों का वोट बैंक सबसे सुरक्षित है, और वह भाजपा के कब्जे में है. बिहार की ‘जनगणना’ ने दिखा दिया है कि यह वोट बैंक कितना छोटा है. बिहार में जिन हिंदू ऊंची जातियों की गणना की गई है उन सबको जोड़ दें तो उनकी कुल आबादी करीब 12 फीसदी ही होती है.


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मान लीजिए कि ऊंची जातियों की कुल आबादी 15 फीसदी है. 2019 में भाजपा को 37 फीसदी से ज्यादा वोट मिले. तो बाकी 22 फीसदी वोट उसे कहां से मिले? या 224 सीटों पर 50 फीसदी वोट से ज्यादा कैसे मिले?

वह आंकड़ा सिर्फ इसलिए हासिल हुआ क्योंकि मझोली और निचली जातियों के हिंदू वोट मंडल-कांशीराम वोट बैंक से छिटककर मोदी के वोट बैंक में चले गए. क्या जातीय जनगणना और आनुपातिक हिस्सेदारी का वादा करके विपक्ष उन वोटों को वापस हासिल कर सकता है?

और ऐसा हो भी जाए तो हिस्सेदारी किस चीज में की जाएगी? बिहार इस फॉर्मूले का केंद्र है, मगर वह अपने मतदाताओं को क्या दे रहा है, चाहे वे किसी भी जाति के हों? वह सरकारी नौकरियां नहीं दे रहा है, नयी स्कीम शुरू करने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं, उद्योग या सर्विस सेक्टर सिफर हैं, सरकारी फंड से चलने वाला शिक्षा क्षेत्र भी नहीं है जो रोजगार दे सके. राजद नेता तेजस्वी यादव निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने के वादे करते रहते हैं. अच्छी बात है, लेकिन उनके राज्य में शराब के काले धंधे की अगर बात न करें तो निजी क्षेत्र है कहां?

जातीय जनगणना एक महत्वपूर्ण, उपयोगी और जरूरी चीज है और उसका समय भी आ गया है. लेकिन मेरा सिर्फ यह कहना है कि यह कोई रामबाण नहीं है जैसा उसे बताया जा रहा है. इसमें मतदाताओं को वापस लुभाने का आकर्षण नहीं है, जिन्हें जाति आधारित पार्टियां भाजपा के हाथों गंवा चुकी हैं. और यह भाजपा के ऊंची जाति वाले वोट बैंक को और मजबूत ही करेगी.

मंडल और कांशीराम की लहर करीब 4 दशक पहले उभरी थी. उसके बाद से भारत में भारी बदलाव आ चुका है, वह भी ज़्यादातर बेहतर ही हुआ है. भारतीय प्रतिभा के आधार को व्यापक बनाने में इन विचारों के योगदान का असर चारों तरफ देखा जा सकता है. इस कामयाबी ने इन सामाजिक तबकों की नयी पीढ़ियों को इतनी ताकत दी है कि वे चपरासी या क्लर्क से ऊपर बनने की आकांक्षा रख सकते हैं. जातीय जनगणना सरकार को बेहतर योजना, बेहतर नीतियां बनाने में मदद कर सकती है. लेकिन शिकायतों वाले उस दौर के मुकाबले आज आकांक्षाओं के इस दौर में इस विचार के प्रति आकर्षण कमजोर ही रहने वाला है.

तो क्या इसका मतलब यह है कि विपक्ष के पास मोदी के लिए कोई जवाब नहीं है? मेरा कतई यह मानना नहीं है. बस उसे किसी बड़े, किसी अलग, सकारात्मक और आशावादी सोच की जरूरत है.

या मार्केटिंग वाले मुहावरे में कहें तो कुछ ऐसा सोचने की जरूरत है, जिससे उसका ब्रांड/प्रोडक्ट वास्तविक रूप से बिलकुल अलहदा दिखे. राहुल गांधी ने भारत जोड़ो और ‘मोहब्बत की दुकान’ के विचारों के साथ ऐसी कुछ कोशिश तो की थी, लेकिन अब वे ज्यादा नेक विचारों से उसी पुराने, बेमानी विचार की ओर क्यों मुड़ रहे हैं, यह समझना मुश्किल है.

जिन दिलचस्प नये विचारों के बूते आप सत्ताधारी को साफ वैचारिक और राजनीतिक चुनौती दे सकते हैं, उन्हें छोड़कर उन विचारों की ओर क्यों मुड़ना, जिन्हें हम राजनीतिक सोच के मामले में असहनीय आलस का उदाहरण कह सकते हैं?

(संपादन- इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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