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Saturday, 4 May, 2024
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मोदी सरकार को ट्रूडो और कनाडा को जवाब देना चाहिए, लेकिन पंजाब में लड़ने के लिए कोई दुश्मन नहीं

ट्रूडो ने अपने जोश में मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, सिर्फ इसलिए पंजाब में अपने ही लोगों के खिलाफ मुहिम छेड़ने की कोई वजह नहीं समझ में आती है.

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निज्जर की मौत को लेकर जस्टिन ट्रूडो ने जो विवाद भड़काया था उसको करीब दो सप्ताह बीत चुके हैं. अब सवाल यह है कि मोदी सरकार को क्या कदम उठाना चाहिए? इस मसले को हम तीन स्तरों में बांट सकते हैं.

एक, वह दबाव बनाए रखे. दूसरा, शांति की घोषणा बुद्धिमानी होगी, अपने ‘सैनिकों’ को छावनी में वापस बुला लें, और जो आग बहुत पहले ठंडी पड़ चुकी है उसे भड़काने का जोखिम न उठाएं.

पहला कदम कनाडा और उसके साथी देशों, अंतरराष्ट्रीय सवालों तथा आलोचनाओं के जवाब के रूप में हो सकता है. यह काम विदेश मंत्री एस. जयशंकर के नेतृत्व में राजनयिक लोग बखूबी कर रहे हैं. उन्हें यह करते रहना चाहिए. भारतीय जनमत इस मसले पर लगभग एकमत है. इससे मदद मिलती है. राजनीतिक खेमे ने भी देशहित में एकता प्रदर्शित की है.

दूसरे स्तर पर, मामला देश के अंदर कदम उठाने का है, खासकर पंजाब के अंदर. यह कदम मुख्यतः कनाडा भागे गैंगस्टरों और अलगाववादियों/आतंकवादियों के संपर्क सूत्रों के यहां छापे डालने और उनकी संपत्ति जब्त करने का है. इस मामले में हमने शांति बरतने और अपने ‘सैनिकों’ को शांत करने का जो सुझाव दिया है उस पर आपत्तियां उठाई जा सकती हैं.

लेकिन हम इससे भी आगे बढ़कर यह सुझाव देना चाहेंगे कि सरकार और भाजपा, घरेलू मीडिया, खासकर योद्धा टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर प्रोपेगेंडा के सुर को मद्धिम करे.

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ट्रूडो ने अपने जोश में मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, सिर्फ इसलिए पंजाब में अपने ही लोगों के खिलाफ मुहिम छेड़ने की कोई वजह नहीं समझ में आती है.

इसके बाद एक जायज सवाल यह उठता है कि अगर ये लोग इतने ही बुरे हैं—और वास्तव में वे ऐसे हैं—तो उनके प्रति नरमी बरतने से भारत को क्या फायदा है? जवाब यह है कि ट्रूडो ने एक रास्ता खोला है, हम लंबे समय से लापरवाह बने रहे हैं, लेकिन अब हम इस मसले को हमेशा के लिए निपटा सकते हैं.


यह भी पढ़ें : पंजाबी सिख गुस्से में हैं पर खालिस्तान से उनका लेना-देना नहीं, भारतीय होने पर उन्हें गर्व है


इसके जवाब में यह सवाल उठाया जा सकता है— तो, समस्या क्या है?

जिस शख्स पर हमने अपने पंजाब में संगठित आतंकी हमले करने का आरोप लगाया, उसे जून में कनाडा में मार डाला गया. अगर कूटनीतिक पाखंड (जिसे नफासत कहा जा सकता है) का तकाजा न होता तो इस पर भारत की प्रतिक्रिया यही होती कि हम उस पर आंसू क्यों बहाएं, चलो छुटकारा मिला.

लेकिन सवाल यह है कि उसकी हत्या के 15 सप्ताह बाद पंजाब में यह छापेमारी अगर ट्रूडो के उकसावे के कारण नहीं हो रही है तो और किस वजह से हो रही है? ट्रूडो के आरोप कितने भी उकसाऊ क्यों न रहे हों, इसने हमें अचानक यह एहसास नहीं कराया है कि पंजाब में बाकी बची उग्रपंथी सिख राजनीति एक नासूर बनी हुई है.

पंजाब में वास्तविक खतरा तब उभरता दिखा था जब भिंडरांवाले जैसा दिखने वाला और समर्थकों की अच्छी-ख़ासी संख्या रखने वाला, अमृतपाल सिंह नाम का एक नया उग्रपंथी उपदेशक उभरने लगा था. शासन ने उसके खिलाफ कार्रवाई की थी. वह कुछ रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में दुबई से पंजाब आ गया था और लोग उसका प्रवचन सुनने के लिए बड़ी संख्या में जुटने लगे थे. वह भिंडरांवाले की जबान में बोलता था मगर एक फर्क था. भिंडरांवाले कभी ‘खालिस्तान’ का नाम नहीं लेता था, न कभी उसने उसके लिए आह्वान किया, लेकिन अमृतपाल की बातें उसके बिना पूरी नहीं होती थीं.

सरकार ने इस संकट को गहरा होने दिया और तभी हरकत में आई जब नये “मैं भी” भिंडरांवाले ने एक पुलिस थाने पर हमला करके वहां बंद अपने गुर्गे को छुड़ा लिया. हम सरकार की निष्क्रियता के बारे में इस कॉलम में लिख चुके हैं.
व्यापक धारणा यह थी— और शायद वह सही भी थी— कि सरकारें अमृतपाल के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने से इसलिए हिचक रही थीं क्योंकि वह वास्तव में काफी लोकप्रिय हो गया था. क्या सरकारें उसे गिरफ्तार करके हिंसा भड़कने और इसके बाद भिंडरांवाले के दौर की वापसी का जोखिम लेना चाहतीं?

अंततः, इस साल अप्रैल में केंद्र और राज्य की सरकारों को लगा कि अब पानी सिर के ऊपर पहुंचने वाला है. दोनों सरकारों ने मिलकर कार्रवाई की, कई हफ्तों की दबिश के बाद अमृतपाल और उसकी मंडली को गिरफ्तार किया. अब वे दूर की जेलों में बंद हैं.

अमृतपाल समेत उसके कई साथी ऊपरी असम की डिब्रूगढ़ जेल में हैं. उनकी गिरफ्तारी पर कोई हिंसा या विरोध प्रदर्शन होना तो दूर, कोई हलचल तक नहीं हुई. ऐसा लगा मानो पंजाब के लोग खामोशी से राहत की सांस ले रहे थे. अमृतपाल कांड ने कुछ समय के लिए चिंतित कर दिया था लेकिन अंततः उन चिंताओं को दफन कर दिया गया.

उसकी गिरफ्तारी पर कोई प्रतिक्रिया न होना यह साबित करता है कि उसकी लोकप्रियता की बातें महज बातें ही थीं. इसने इस मान्यता की पुष्टि की कि सिखों के मन में 1983-93 वाले बदनुमा दशक को लेकर कोई मोह नहीं है. उस रक्तरंजित दशक में पंजाबियों, खासकर सिखों ने ही अलगाववाद और आतंक को परास्त किया था, और आज भी उन्होंने उनकी वापसी को रोका है. इसलिए हमें उतावला होने की जरूरत नहीं है.

जमीनी स्तर पर यही बात महत्व रखती है. कनाडा में जो कुछ घटता है या ट्रूडो जो कुछ कहते हैं, या गुरपतवंत सिंह पन्नुन जो डींग हांकता है, उन सबका कोई मतलब नहीं है. पंजाब में अगर कोई दुश्मन नहीं खड़ा हो गया है, तो हमने किसके खिलाफ जंग छेड़ दी है?

अगर कोई दुश्मन है, तो हमने जंग पहले क्यों नहीं शुरू की? या समय के साथ उससे क्यों नहीं लड़ा जा सकता? हड़बड़ी क्या है? ‘खालिस्तान’ शब्द के नाम पर सुर्खियां बटोरने, टीवी चैनलों के प्राइम टाइम पर हर शाम ‘डिबेट’ कराने का उतावलापन क्यों है? जो ब्रांड धूमिल हो चुका है उसे फिर चर्चित करने को हम आमादा क्यों हैं?

जैसा कि हम पिछले सप्ताह कह चुके हैं, पंजाब में खालिस्तान के लिए कोई भावना नहीं है. शून्य! ब्रैंपटन पंजाब में नहीं है. हम इसके बारे में जितनी चर्चा करेंगे, उस पर जितना हमला करेंगे, उतना ही हम बहुत पहले दफ़न हो चुके प्रेत को जिंदा करने का जोखिम मोल लेंगे. इससे भी बुरी बात यह है कि आतंकवादी, उग्रवादी, देशद्रोही जैसी तोहमतों का लापरवाही भरा इस्तेमाल सिखों को बुरा, अपमानजनक और उकसाऊ लगेगा. यह ऐसे कुछ तत्वों को उठ खड़ा होने की ताकत देगा.

हमें जोखिमों को समझना होगा. नीतियां तय करने का काम हमेशा राजनेताओं के जिम्मे छोड़ना चाहिए, पुलिस के जिम्मे नहीं. पुलिस वाले राष्ट्रीय राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने में सिर्फ मदद दे सकते हैं. लेकिन ऐसे पुराने संवेदनशील मसले को अगर आप पुलिस और खुफिया विभाग के जिम्मे छोड़ेंगे तो वे बाहुबल के जरिए ही काम करेंगे.

यही काम वे भी करेंगे जो पुलिस वालों के ‘निशाने’ पर होंगे. और यह तो जाहिर ही है कि पुलिस ज्यादती का शिकार बेकसूरों को भी बनना पड़ता है. यहां तक कि वास्तव में बुरे तत्वों (मसलन कनाडा में बसे) के परिजनों को भी अनुचित रूप से निशाना बनाया जा सकता है. इससे आक्रोश और प्रतिशोध की नयी लहर उठ सकती है. यह हम पहले भी देख चुके हैं. इसलिए आवेश में आकर पंजाब को उन्हीं लोगों और संस्थाओं के हवाले करना मूर्खता ही होगी, जो पहले पूर्ण बगावत से लड़ चुके हैं. आज वैसी किसी लड़ाई के हालात नहीं हैं.

इन दिनों, हमदर्द उदारवादी या शांतिवादी कहलाना कोई अच्छी बात नहीं मानी जाती. इन मसलों पर मेरे लेखन पर अगर आप ध्यान देते रहे हों तो यह भी उलटी बात मानी जा सकती है. इसलिए हमने कुछ विस्तार से अपनी बात रखी है.

पहली बात तो यह है कि पंजाब में गैंगस्टर, ड्रग माफिया, अवैध हथियारों का धंधा, फिरौती वसूली, मशहूर सितारों (खासकर पंजाबी संगीत के) के साथ इनकी मिलीभगत, आतंकी हत्याएं आदि जारी रही हैं और सब लोग इनसे परिचित हैं. इन्हें कोई अलगावादी बगावत मान कर नहीं, बल्कि संगठित अपराध मान कर इनसे हमेशा लड़ते रहना होगा. फिलहाल खतरा यह है कि ट्रूडो के उकसावे के कारण शासन कहीं अति न करने लगे.

यह ज़्यादातर फटाफट कार्रवाई ट्रूडो और उनके समर्थकों को दिखाने के लिए, उन्हें यह जताने के लिए की जा रही है कि पंजाब में वास्तव में एक समस्या है जिससे भारत को लड़ना पड़ रहा है और इसके सूत्र कनाडा में हैं. हम यह नहीं कह रहे हैं कि आप बुरे तत्वों के प्रति क्षमाभाव रखें और उदारता बरतें. उनके साथ वैसा ही बर्ताव करें जैसा सामान्यतः किया जाता है. लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह आज किया जा रहा है, क्योंकि पंजाब में जमीन पर ऐसा कुछ नया और खतरनाक नहीं उभरा है, और न उभरने की आशंका है.

ट्रूडो को जताने के लिए कुछ नहीं है. भारत इतना बड़ा और अनुभवी है कि उसे करीब साढ़े तीन करोड़ की आबादी (पंजाब की आबादी के बराबर) वाले किसी दूर देश का पतनशील नेता झटके से कुछ कर बैठने और किसी को शैतान घोषित करने को मजबूर नहीं कर सकता. इसलिए हमने यह सुझाव देने की हिम्मत की है कि अपने सैनिकों को छावनी में वापस बुलाइए और लड़ने-भिड़ने को तैयार मीडिया को लेकर शांति की घोषणा कीजिए.

(संपादन: इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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